नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के आरसीपी सिंह को मंत्री बनने पर बधाई का एक ट्वीट भी न करने - की चर्चा तो हंसी मजाक के तौर पर शुरू हुई थी, लेकिन धीरे धीरे ये गंभीर रूप लेती जा रही है - क्योंकि आरपीसी सिंह ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति ही आभार और शुक्रिया कहा है, न कि अपने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति शुक्रगुजार नजर आ रहे हैं.
आरसीपी सिंह (RCP Singh) और नीतीश कुमार का बरसों पुराना साथ रहा है. जब नीतीश कुमार केंद्र में मंत्री हुआ करते थे तो आरसीपी सिंह उनके ओएसडी थे - और जब वो बिहार के मुख्यमंत्री बने तो पास बुला लिये थे - सिर्फ इतना ही नहीं अगर करीब होने का कोई जातीय आधार होता है तो आरसीपी सिंह भी नीतीश की ही बिरादरी कुर्मी समुदाय से हैं और रहने वाले भी उसी इलाके के जिस जिले में नीतीश कुमार का पुश्तैनी मकान है.
नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को जेडीयू का अध्यक्ष तो दिसंबर, 2020 में बिहार चुनाव खत्म होने और फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाने के बाद बनाया, लेकिन वो तो पहले से ही पार्टी के कर्ताधर्ता बने हुए थे - लेकिन छह महीने बीतते बीतते आरसीपी सिंह की वजह से जेडीयू में तूफान मच गया है.
ऐसा लगता है चिराग पासवान से बदले की कार्रवाई के तहत जो तोड़ फोड़ की कवायद चलायी गयी वो उसी रूप में बैकफायर हुई है - और अब नीतीश कुमार को जेडीयू को संभालने के साथ साथ बीजेपी के साथ भी डील करने के लिए नयी रणनीति और नये जनरल की जरूरत पड़ने वाली है.
दिलचस्प बात तो ये है कि आरसीपी सिंह को भी नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी (Jitan Ram Manjhi) की ही तरह जिम्मेदारी सौंपी थी और दोनों फैसलों के पीछे एक ही मकसद भी रहा, लेकिन वक्त का तकाजा देखिये कि आरसीपी सिंह ने भी मांझी के रास्ते पर चलते हुए नीतीश कुमार के सामने चुनौतियों का इतिहास दोहराये...
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के आरसीपी सिंह को मंत्री बनने पर बधाई का एक ट्वीट भी न करने - की चर्चा तो हंसी मजाक के तौर पर शुरू हुई थी, लेकिन धीरे धीरे ये गंभीर रूप लेती जा रही है - क्योंकि आरपीसी सिंह ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति ही आभार और शुक्रिया कहा है, न कि अपने मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के प्रति शुक्रगुजार नजर आ रहे हैं.
आरसीपी सिंह (RCP Singh) और नीतीश कुमार का बरसों पुराना साथ रहा है. जब नीतीश कुमार केंद्र में मंत्री हुआ करते थे तो आरसीपी सिंह उनके ओएसडी थे - और जब वो बिहार के मुख्यमंत्री बने तो पास बुला लिये थे - सिर्फ इतना ही नहीं अगर करीब होने का कोई जातीय आधार होता है तो आरसीपी सिंह भी नीतीश की ही बिरादरी कुर्मी समुदाय से हैं और रहने वाले भी उसी इलाके के जिस जिले में नीतीश कुमार का पुश्तैनी मकान है.
नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को जेडीयू का अध्यक्ष तो दिसंबर, 2020 में बिहार चुनाव खत्म होने और फिर से मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठ जाने के बाद बनाया, लेकिन वो तो पहले से ही पार्टी के कर्ताधर्ता बने हुए थे - लेकिन छह महीने बीतते बीतते आरसीपी सिंह की वजह से जेडीयू में तूफान मच गया है.
ऐसा लगता है चिराग पासवान से बदले की कार्रवाई के तहत जो तोड़ फोड़ की कवायद चलायी गयी वो उसी रूप में बैकफायर हुई है - और अब नीतीश कुमार को जेडीयू को संभालने के साथ साथ बीजेपी के साथ भी डील करने के लिए नयी रणनीति और नये जनरल की जरूरत पड़ने वाली है.
दिलचस्प बात तो ये है कि आरसीपी सिंह को भी नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी (Jitan Ram Manjhi) की ही तरह जिम्मेदारी सौंपी थी और दोनों फैसलों के पीछे एक ही मकसद भी रहा, लेकिन वक्त का तकाजा देखिये कि आरसीपी सिंह ने भी मांझी के रास्ते पर चलते हुए नीतीश कुमार के सामने चुनौतियों का इतिहास दोहराये जाने का पूरा माहौल तैयार कर दिया है - नीतीश कुमार क्या फिर से सियासत के नये मांझी कांड से वैसे ही निबटते हुए उबर पाएंगे या ताजा चैलेंज ज्यादा मुश्किलों भरा है?
आरसीपी भी तो मांझी जैसे ही निकले
बिहार में मुख्यमंत्री की नयी कुर्सी पर नीतीश कुमार जब बैठे तो कांटों की तादाद पहले के मुकाबले हद से ज्यादा रही. नीतीश कुमार ने कुछ कांटों को तो खुद ही हैंडल किया, लेकिन कुछ के लिए एक भरोसेमंद और काबिल जनरल की जरूरत महसूस हो रही थी, लिहाजा आरसीपी सिंह को अपनी जगह जेडीयू का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया - और खास बात ये रही कि ऐसा करने का मकसद भी बिलकुल वही रहा जो एक दौर में जीतन राम मांझी को बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाते वक्त था.
याद करें तो नीतीश कुमार ने 2013 में एनडीए छोड़ दिया था - और 2014 के आम चुनाव में हार की जिम्मेदारी लेते हुए मुख्यमंत्री की कुर्सी भी. फिर अपने उत्तराधिकारी के तौर पर नीतीश कुमार ने अपनी पार्टी के दलित चेहरे जीतनराम मांझी को मुख्यमंत्री बना दिया - ये कुछ कुछ वैसा ही प्रयोग रहा जैसे तमिलनाडु में तत्कालीन मुख्यमंत्री जे. जयललिता को जब भी जेल जाना पड़ा - वो ओ. पनीरसेल्वम को कुर्सी पर बिठा देतीं.
ओ. पनीरसेल्वम तो भरत की तरह खड़ाऊं लेकर तमिलनाडु में राजकाज संभालते रहे, लेकिन बिहार में जीतनराम मांझी के मन में तो कुछ और ही चल रहा था. कुर्सी पर बैठते ही वो खड़ाऊं तो पहने ही, फर्राटा भरते हुए रफ्तार भी पकड़ लिये. ऐसा करने के लिए मांझी को स्वजातीय सरकारी सलाहकार मोटिवेट करते रहे. तभी मांझी को बीजेपी का भी सपोर्ट मिलने लगा. बीजेपी के नये नेतृत्व को तो नीतीश कुमार के ऐसे किसी कंधे की जरूरत थी ही. बीजेपी मांझी के कंधे पर बंदूक रख कर नीतीश पर निशाना साधने लगी. जहां तक और जितना भी संभव हो सका, डैमेज करने में कोई कसर बाकी भी नहीं रखी.
करीब सात साल बाद एक बार फिर मांझी की ही तरह अब आरसीपी सिंह बीजेपी के हाथ लग गये हैं - और मांझी के मुकाबले आरसीपी सिंह के मोदी कैबिनेट का हिस्सा बन जाने से बीजेपी ज्यादा दबाव बनाने की स्थिति में हो गयी है. तब भी नीतीश कुमार ने काफी मशक्कत से मांझी को हटाकर बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल कर पायी थी, लेकिन आरसीपी सिंह से वैसे निबटना आसान नहीं है - क्योंकि ताजा मामले में राजनीति काफी उलझी हुई लगती है.
लंबे अरसे से नीतीश कुमार के साथ काम करते हुए आरसीपी सिंह, नीतीश कुमार के हर घर-घात तो जानते ही हैं - सारे राज भी उनके पास हैं किसी को शक नहीं होना चाहिये. बीजेपी को तो वैसे भी राजनीतिक मोहरे चाहिये होते हैं - चाहे वो पशुपति कुमार पारस हों, मुकुल रॉय हों, स्वामी प्रसाद मौर्य हों या फिर टॉम वडक्कन जैसे ही क्यों न हों?
तकनीकी तौर पर देखें तो मांझी से मुख्यमंत्री की कुर्सी हासिल करना नीतीश कुमार के लिए काफी मुश्किल काम था बनिस्बत आरसीपी सिंह के केस के मुकाबले - क्योंकि उसमें थर्ड पार्टी यानी पूरे अलग सिस्टम का दखल था. मांझी संवैधानिक तौर पर शपथ लेकर मुख्यमंत्री बने थे, ऐसा आरसीपी के मामले में कतई नहीं है.
नीतीश कुमार चाहें तो एक झटके में जेडीयू की एक मीटिंग बुलाकर प्रस्ताव पास करा सकते हैं और आरसीपी सिंह को भी प्रशांत किशोर की तरह एक झटके में बाहर कर सकते हैं. लेकिन मौजूदा राजनीतिक माहौल में दुरूस्त कदम नहीं होगा - क्योंकि आरसीपी मांझी की तरह इंडिपेंडेंट प्लेटफॉर्म पर नहीं, बल्कि मोदी कैबिनेट का हिस्सा बन चुके हैं - और केंद्रीय मंत्रियों भूपेंद्र यादव और नित्यानंद राय के और भी करीबी साथी बन चुके हैं.
RCP ने गच्चा दिया या BJP के शिकार हो गये?
अंदर की बात तो यही है कि आरसीपी सिंह का इस्तेमाल भी नीतीश कुमार ने जीतनराम मांझी की तरह की किया. दरअसल, 2020 के बिहार चुनाव के बाद जेडीयू की सीटें कम आ जाने के बाद से सरकार में बीजेपी का दबदबा भी बढ़ गया. नीतीश कुमार तो कई बार ये भी कह चुके हैं कि वो मुख्यमंत्री बनने को तैयार नहीं थे, लेकिन बीजेपी के ही कुछ हमदर्द नेताओं के कहने पर तैयार हो गये. नीतीश कुमार ये भी बता चुके हैं कि नयी व्यवस्था में बीजेपी की सहमति से काम करना होता है, वरना पहले तो वो मंत्रिमंडल विस्तार और बाकी काम पहले ही कर दिया करते थे.
कहते हैं नीतीश कुमार को बीजेपी नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह से तो कोई दिक्कत नहीं थी, लेकिन बिहार प्रभारी भूपेंद्र यादव या बिहार बीजेपी अध्यक्ष संजय जायसवाल जैसे नेताओं से डील करना उनको स्तरहीन लग रहा था. वैसे भी जिसकी सुशील मोदी को साल दर साल डिप्टी सीएम बना कर आगे पीछे घुमाते रहने की आदत रही हो, उसके लिए उनसे जूनियर नेताओं से बात करना भी अच्छा तो नहीं ही लगता होगा.
लिहाजा नीतीश कुमार ने मौके की नजाकत को देखते हुए अपने हिसाब से सबसे काबिल और भरोसेमंद आरसीपी सिंह को जेडीयू अध्यक्ष बनाने का फैसला किया - और फिर कमान सौंप दी. बोनस फायदा ये भी रहा कि जो बाद मोदी-शाह के लिए नीतीश कुमार के लिए कहना मुश्किल होता, आरसीपी सिंह एक प्रवक्ता की तरह बोल भी देते और नीतीश कुमार मन ही मन खुशी भी महसूस कर लेते.
जीतनराम मांझी को भी नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह की तरह ही इस्तेमाल किया था. नीतीश कुमार को लगा कि मांझी तो रबर स्टांप बने रहेंगे और जो काम उनको पंसद नहीं आ रहा था मांझी आराम से कर लेंगे. मुख्यमंत्री होने के नाते प्रोटोकॉल के तहत नीतीश कुमार को एयरपोर्ट पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को रिसीव तो करना ही होता, ऐसे और भी मौके होते जहां खून का घूंट पीते रहना पड़ता - क्योंकि मोदी की ही वजह से तो नीतीश कुमार ने एनडीए भी छोड़ा था.
मुश्किल तो ये है कि सोची हुई हर चीज मनमाफिक होती भी कहां है - सूत्रों के हवाले से आयी खबर के मुताबिक, मोदी कैबिनेट की फेरबदल या विस्तार जो भी कहें, से पहले नीतीश कुमार के पास बीजेपी के एक नेता का फोन आया था. अगर खुद मोदी या शाह ने किया होता तो वो बात भी करते, लेकिन नीतीश कुमार ने फोन पर बोल दिया कि जेडीयू अध्यक्ष आरसीपी सिंह बात कर लेंगे.
नीतीश कुमार के ब्रीफ करने के बाद जब आरसीपी सिंह ने बीजेपी नेता से संपर्क किया तो अपना प्रस्ताव सामने रख दिया. आरसीपी सिंह ने जेडीयू कोटे के तहत तीन मंत्रियों की तो डिमांड रखी ही, पशुपति कुमार पारस को भी मंत्री बनाने की सलाह दी. समझा जाये तो जेडीयू के कोटे से कैबिनेट और राज्यमंत्री मिलाकर चार चार मंत्री.
मंत्रीपद को लेकर मोलभाव के साथ ही जेडीयू में तैयारियां भी शुरू हो गयीं. जेडीयू के एक सांसद को फौरन दिल्ली बुला लिया गया - और मंत्री पद के लिए पार्टी की सूची में शामिल दो सांसदों ने जरूरत के हिसाब से आरटीपीसीआर टेस्ट करा कर जल्दी जल्दी रिपोर्ट भी हासिल कर ली - लेकिन इंतजार करते ही रह गये. नीतीश कुमार एक अति पिछड़ा वर्ग से और एक कुशवाहा सांसद के साथ साथ अपने करीबी नेता ललन सिंह को कैबिनेट मंत्री बनवाना चाहते थे. 2019 में बीजेपी की सत्ता में वापसी के बाद जब प्रधानमंत्री मोदी मंत्रिमंडल का गठन करने जा रहे थे तब भी नीतीश कुमार करीब करीब ऐसा ही चाहते थे, लेकिन गठबंधन साथियों को एक सीट से ज्यादा न देने के बीजेपी के निश्चय को डिगा नही सके थे.
चर्चा तो ये है कि आरसीपी सिंह ने नीतीश को गच्चा दे दिया है - संभव भी है, लेकिन ऐसा ही हुआ हो जरूरी नहीं है. कुछ लोग ऐसे भी हैं जो यहां तक मानते हैं कि जो कुछ नजर आ रहा है वो नीतीश कुमार और आरसीपी सिंह मिल कर कहानी सुना रहे हैं.
ये भी तो हो सकता है बीजेपी ने आरसीपी सिंह का इस्तेमाल करने की कोशिश की हो - और वो हो भी गये हों! जैसे नीतीश कुमार ने एक बार चिराग पासवान को समझाया था - 'कहां दूसरों के चक्कर में पड़े हो, कोई अपना हो तो बोलो मंत्री बना देते हैं'. ठीक वैसे ही बीजेपी के पास जेडीयू का प्रस्ताव लेकर पहुंचे आरसीपी सिंह से भी कहा गया हो कि 'क्यों दूसरों के चक्कर में पड़े हैं?' - 'पशुपति कुमार पारस के साथ आप भी बन जाइये, छोड़िये दुनिया भर की चिंता' - और ये चाल पटना में मिशन को अंजाम देकर दिल्ली पहुंचे भूपेंद्र यादव की पॉलिटिकल लाइन से मैच भी करती है. भूपेंद्र यादव का ट्रैक रिकॉर्ड बताता है कि कैसे बिहार में काम मिलने के बाद से वो लालू यादव के साथ ही नीतीश कुमार की भी राजनीतिक जमीन के नीचे गड्ढे खोदते आये हैं - और यही वजह है कि अमित शाह भी भूपेंद्र यादव को हद से ज्यादा पसंद करते हैं - और वो प्रधानमंत्री मोदी के भी प्रिय पात्र बन जाते हैं.
अगर जेडीयू के भीतर उठापटक की जो आहट महसूस की जा रही है, वो तात्कालिक और महज आभासी है तो दलील कमजोर भी नहीं है. निश्चित रूप से केंद्र सरकार में नौकरशाह के रूप में काम कर चुके एक व्यक्ति के लिए मंत्री पद तो सपने के पूरा होने जैसा ही है, लेकिन क्या एक मंत्री पद के लिए वो एक पार्टी से हाथ धो बैठने का फैसला करेगा जिस पर वो खुद राज करता हो - और ये लंबा चलने वाला हो.
जेडीयू में आरजेडी या एलजेपी की तरह बेटा ही वारिस होगा जैसा कोई पेंच भी तो नहीं है. एक बार नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को उपाध्यक्ष बनाने के बाद जेडीयू का भविष्य जरूर बताया था, लेकिन ये आरसीपी सिंह ही रहे जो ललन सिंह के साथ मिल कर तब तक चैन से नहीं बैठे जब तक कि प्रशांत किशोर बाहर नहीं हो गये.
प्रशांत किशोर की ही तरफ आरसीपी सिंह के लिए उपेंद्र कुशवाहा लगने लगे थे, लिहाजा ललन सिंह के साथ मिलकर अब उनको ठिकाने लगाने की तैयारी शुरू हो गयी थी. अब बताया जा रहा है कि आरसीपी सिंह के खिलाफ ललन सिंह ने उपेंद्र कुशवाहा से ही हाथ मिला लिया है, हो सकता है ललन सिंह ने ऐसा मौके की नजाकत समझते हुए किया हो. उपेंद्र कुशवाहा कोने कोने में घर को दुरूस्त करने निकले हैं. वो जेडीयू नेताओं से जगह जगह मिल कर संगठन को ठीक करने की कोशिश कर रहे हैं. उपेंद्र कुशवाहा की कोशिश को आरसीपी सिंह के संभावित प्रभाव को न्यूट्रलाइज करना है, लेकिन नीतीश कुमार कुछ ज्यादा ही चौकन्ने हो गये हैं - उपेंद्र कुशवाहा के हर मूवमेंट की पल पल की रिपोर्ट पेश करने के लिए अपने आदमियों का जगह जगह पहले से ही जाल बिछा रखा है.
दुनिया गोल है और समय का चक्र भी यही संकेत देता है - जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा के फिर से नीतीश कुमार के साथ हो जाने को इसी नजरिये से देखा जा सकता है - हो सकता है वक्त का पहिया फिर घूमे और फिर से आरसीपी सिंह पहले की ही तरह नीतीश कुमार के साथ हो लें - आखिर कभी जेडीयू के भविष्य बताये गये प्रशांत किशोर वाली जगह पर जिन लोगों की नजर टिकी होगी, आरसीपी सिंह भी तो उनमें से एक होंगे ही.
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