हादसे तभी ज्यादा होते हैं जब स्पीड स्लो होती है, तेज रफ्तार हमेशा अलर्ट मोड में रखती है - नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के साथ भी ऐसा ही है. नीतीश कुमार की राजनीति और मौजूदा बिहार सरकार तभी तक सुरक्षित है जब तक बीजेपी खेल करने की कोशिश करती रहे और जेडीयू नेता उसे अपने सियासी तरकीबों से काउंटर करते रहें. जैसे ही सब कुछ नॉर्मल हुआ, समझो सरकार तो गयी ही, फिर नीतीश कुमार की राजनीतिक जमीन भी खिसकते देर नहीं लगेगी.
ये तो पहले से ही माना जा रहा था कि नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू और बीजेपी (BJP) का रिश्ता आगे से रहीम के 'बेर-केर' जैसा ही होने वाला है - 'कह रहीम कैसे निभे बेर-केर के संग, वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग.' 2015 के बिहार चुनाव में ये दोहा खूब चर्चित रहा था - और एक बार फिर राबड़ी देवी (Rabri Devi) ने नीतीश कुमार को महागठबंधन में लौट आने का प्रस्ताव दे दिया है.
माना भी यही जा रहा है कि नीतीश कुमार और बीजेपी नेतृत्व के बीच सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है. वैसे भी कोई गठबंधन साथी एक छोर पर दोस्त होने का दिखावा करे और दूसरी छोर पर आस्तीन के सांप जैसा व्यवहार करे तो कैसे सब ठीक ठाक रहेगा. अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के सात में से छह विधायकों को झटक कर बीजेपी ने नीतीश कुमार को बहुत बड़ा जख्म दे दिया है - और जख्मी हालत में इंसान हो या जानवर जब पलटवार करता है तो वो बहुत ही खतरनाक होता है.
अब तो ऐसा लगता है जैसे जब तक नीतीश कुमार पर चौतरफा हमले होते रहेंगे, उनकी राजनीतिक अहमियत भी बनी रहेगी और कुर्सी पर भी आंच नहीं आने वाली - अगर थोड़ी बहुत आंच आती है तो ज्यादा से ज्यादा एक बार और पद और गोपनीयता की शपथ लेनी होगी और नहीं तो क्या!
बूटा सिंह और बिहार पॉलिटिक्स
सरदार बूटा सिंह के निधन पर शोक संदेश में नीतीश कुमार ने उनको गरीबों के उत्थान के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहने वाला नेता बताया है. नीतीश कुमार ने बूटा सिंह के बिहार के राज्यपाल के रूप में भी जिम्मेदारियों के कुशलतापूर्वक निर्वहन की बात कही है.
हालांकि,...
हादसे तभी ज्यादा होते हैं जब स्पीड स्लो होती है, तेज रफ्तार हमेशा अलर्ट मोड में रखती है - नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के साथ भी ऐसा ही है. नीतीश कुमार की राजनीति और मौजूदा बिहार सरकार तभी तक सुरक्षित है जब तक बीजेपी खेल करने की कोशिश करती रहे और जेडीयू नेता उसे अपने सियासी तरकीबों से काउंटर करते रहें. जैसे ही सब कुछ नॉर्मल हुआ, समझो सरकार तो गयी ही, फिर नीतीश कुमार की राजनीतिक जमीन भी खिसकते देर नहीं लगेगी.
ये तो पहले से ही माना जा रहा था कि नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू और बीजेपी (BJP) का रिश्ता आगे से रहीम के 'बेर-केर' जैसा ही होने वाला है - 'कह रहीम कैसे निभे बेर-केर के संग, वे डोलत रस आपने उनके फाटत अंग.' 2015 के बिहार चुनाव में ये दोहा खूब चर्चित रहा था - और एक बार फिर राबड़ी देवी (Rabri Devi) ने नीतीश कुमार को महागठबंधन में लौट आने का प्रस्ताव दे दिया है.
माना भी यही जा रहा है कि नीतीश कुमार और बीजेपी नेतृत्व के बीच सब कुछ ठीक ठाक नहीं चल रहा है. वैसे भी कोई गठबंधन साथी एक छोर पर दोस्त होने का दिखावा करे और दूसरी छोर पर आस्तीन के सांप जैसा व्यवहार करे तो कैसे सब ठीक ठाक रहेगा. अरुणाचल प्रदेश में जेडीयू के सात में से छह विधायकों को झटक कर बीजेपी ने नीतीश कुमार को बहुत बड़ा जख्म दे दिया है - और जख्मी हालत में इंसान हो या जानवर जब पलटवार करता है तो वो बहुत ही खतरनाक होता है.
अब तो ऐसा लगता है जैसे जब तक नीतीश कुमार पर चौतरफा हमले होते रहेंगे, उनकी राजनीतिक अहमियत भी बनी रहेगी और कुर्सी पर भी आंच नहीं आने वाली - अगर थोड़ी बहुत आंच आती है तो ज्यादा से ज्यादा एक बार और पद और गोपनीयता की शपथ लेनी होगी और नहीं तो क्या!
बूटा सिंह और बिहार पॉलिटिक्स
सरदार बूटा सिंह के निधन पर शोक संदेश में नीतीश कुमार ने उनको गरीबों के उत्थान के लिए हमेशा प्रयत्नशील रहने वाला नेता बताया है. नीतीश कुमार ने बूटा सिंह के बिहार के राज्यपाल के रूप में भी जिम्मेदारियों के कुशलतापूर्वक निर्वहन की बात कही है.
हालांकि, बूटा सिंह को नीतीश कुमार के याद करने का तरीका नाकाफी है. नीतीश कुमार वैसे तो छह महीने पहले भी हफ्ते भर के लिए मुख्यमंत्री रह चुके थे, लेकिन 24 नवंबर, 2005 को जब नीतीश कुमार ने बहुमत की सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली थी तो उससे पहले शासन की बागडोर तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह के हाथों में ही थी.
जिस जंगलराज की याद दिलाकर बिहार के लोगों को भय दिखाते हुए नीतीश कुमार तब से लगातार मुख्यमंत्री बनते रहे हैं, छह महीने में भी बूटा सिंह हालात को बेहतर बनाने की काफी कोशिशें की थी. अपराधियों पर लगाम कस कर कानून व्यवस्था को सुधारने के बूटा सिंह के प्रयास को लोग नोटिस करने लगे थे. नीतीश कुमार को तो बूटा सिंह का एहसान मानना चाहिये कि उनकी फौरी सिफारिश पर रातोंरात विधानसभा भंग करने का फैसला भी नीतीश कुमार के लिए वरदान ही साबित हुआ - ये ठीक है कि नीतीश कुमार को छह महीने इंतजार करना पड़ा लेकिन बतौर मुख्यममंत्री वो दुरूस्त आये और अब तक तमाम दुश्वारियों के बावजूद बने हुए हैं, तभी तो वो कहते भी हैं - अंत भला तो सब भला!
हाल फिलहाल नीतीश कुमार के हाव भाव में काफी बदलाव देखने को मिल रहा है - और बात बात पर बोलना उसी में से एक है. ये नीतीश कुमार ही हैं जो बिहार के लोगों के सामने बड़ी से बड़ी मुश्किल आने पर भी चुप्पी साध जाते रहे. चाहे वो चमकी बुखार का मामला रहा हो, या फिर पटना की बाढ़ का या फिर पूरे बिहार में आयी बाढ़ का. नीतीश मीडिया के सवालों को सुन कर भी अनसुना कर देते हैं - खुद से आगे बढ़ कर बयान देने की कौन कहे. चुनावों के दौरान भी चिराग पासवान तक के सवाल पर भी हां-हूं या 'नहीं ऐसी कोई बात नहीं है' जैसे सोशल मीडिया के ऑटोमेटेड रिप्लाई की तरह रिएक्ट करते रहे, लेकिन अरुणाचल प्रदेश में बीजेपी की हरकत बर्दाश्त नहीं कर पाये - और बताने लगे कि वो तो मुख्यमंत्री बनना ही नहीं चाहते थे.
जेडीयू कार्यकर्ताओं की मीटिंग में जिसमें नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को अध्यक्ष बनाने की घोषणा की, जेडीयू नेता ने गुस्से में बीजेपी पर पूरी भड़ास निकाल डाली. यहां तक कि एनडीए को जिसे मुख्यमंत्री बनाना हो बना ले - किसी चीज की परवाह नहीं है.
ऐसे ही मायावती जब राहुल गांधी और कांग्रेस पर बरसती हैं तो उसके पीछे भी उनका दर्द छिपा होता है, जिसे लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा बीएसपी नेता को बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता तक करार देती हैं. मायावती के भी छह विधायकों को जयपुर से दिल्ली लाकर मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सोनिया गांधी के सामने ही कांग्रेस ज्वाइन करा दिया. जब अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच कोर्ट कचहरी और होटलों में लुकाछिपी का खेल चल रहा था तो बीएसपी महासचिव सतीशचंद्र मिश्रा ने भी बीएसपी के टिकट पर चुनाव जीतने वाले विधाकयों की सदस्यता खत्म कराने के लिए पैरवी की थी, लेकिन कोर्ट का रुख भी बुलंद किस्मत वाले अशोक गहलोत के पक्ष में ही गया. अब तो नीतीश कुमार भी मायावती के दर्द को अच्छी तरह समझ रहे होंगे.
मुख्यमंत्री पद को लेकर नीतीश कुमार की दिलचस्पी न होने की पुष्टि बीजेपी सांसद सुशील कुमार मोदी ने भी की है. तब नीतीश कुमार के डिप्टी सीएम रहे सुशील मोदी का कहना है कि वो खुद नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद स्वीकार करने का आग्रह किये थे क्योंकि चुनाव भी तो उनके नाम पर ही लड़ा गया था.
देखा जाये तो जेडीयू की कम सीटें होने के बावजूद चुनावी वादे के तहत दोबारा नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री बनाया गया है. 2015 में जो काम लालू प्रसाद यादव ने किया था, 2020 में अमित शाह ने किया है.
'ऑल इन नॉट वेल' है, तो बढ़िया ही है!
तेजस्वी यादव की अगुवाई में राष्ट्रीय जनता दल के नेताओं की बयानबाजी हाल फिलहाल काफी हद तक मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पर फोकस हो गयी है - और बाकी बातों के बीच एक बात लगातार दोहरायी जा रही है, वो ये कि नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच 'ऑल इन नॉट वेल' चल रहा है. हालांकि, नीतीश कुमार की तरह से कई बार ऐसी बातों से इंकार किया जा चुका है - और बीजेपी की तरफ से उनके सबसे अच्छे दोस्त सुशील मोदी ने भी तकरीबन ऐसी ही बात दोहरायी है.
एकबारगी, ये कोई बड़ी वजह तो नहीं लगती कि मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद नीतीश कुमार अभी तक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नहीं मिले हैं. ऐसी कोई तकनीकी या संवैधानिक बाध्यता तो नहीं है, लेकिन चुनावों के दौरान नीतीश कुमार जिस तरह से मंचों पर प्रधानमंत्री को पेश करते थे कि जो हैं बस नरेंद्र मोदी ही हैं, वो तो महज निमित्त मात्र हैं - अब तक मिल कर आभार तक न जताना थोड़ा अजीब तो लगता ही है. शिष्टाचार के नाम पर होने वाली मुलाकातों में तो बड़ी से बड़ी बातें हो जाती हैं, लेकिन नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के बीच एक शिष्टाचार मुलाकात तक न होना इधर-उधर सोचने का मौका तो दे ही देता है. नीतीश कुमार के मन में जो भी चल रहा हो, लेकिन उनके दोनो उप मुख्यमंत्री तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी दिल्ली पहुंच कर प्रधानमंत्री से तो मिल ही लिये, बोल भी रहे हैं कि अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपने का बिहार बनाना हैं - जाहिर है नीतीश कुमार को भी ये सब सुनाई तो दे ही रहा होगा.
नये साल के पहले ही दिन पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने ये कह कर हैपी न्यू ईयर सरप्राइज दे डाला कि उनकी पार्टी, या परिवार जो भी समझें, मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को महागठबंधन में एंट्री देने पर विचार कर रहे हैं. राबड़ी देवी की बात को आगे बढ़ाते हुए आरजेडी नेता भाई वीरेंद्र ने भी दोहरा दिया - 'नीतीश कुमार हमारे थे और आगे भी हमारे रहेंगे.'
राबड़ी देवी ने कहा था कि बीजेपी के दबाव के चलते नीतीश कुमार सरकार में अपने मन से काम कर ही नहीं पा रहे हैं. भाई वीरेंद्र दावा कर बैठे कि राबड़ी देवी की बात अगले महीने तक सही साबित हो जाएगी. ये भी याद दिलाया कि नीतीश कुमार ने लालू यादव के सान्निध्य में ही राजनीति की है - एनडीए में नीतीश कुमार को अपमानित किया जा रहा है, इसलिए कभी भी कुछ भी हो सकता है.
जाहिर है ये सब रांची जेल में पड़े लालू यादव की मर्जी से ही हो रहा है. सूत्रों के हवाले से दैनिक जागरण ने ऐसी एक रिपोर्ट भी प्रकाशित की है. अखबार लिखता है, 'पूरे प्रकरण का लाभ आरजेडी दो तरह से उठाने की कोशिश में है. पहला सत्ता के संदर्भ में और दूसरा जमीनी स्तर पर. लालू परिवार को लग रहा है कि भारतीय जनता पार्टी की जेडीयू से जितनी खटपट होगी, दूरी बढ़ेगी और संवादहीनता की स्थिति आएगी - आरजेडी के पक्ष में उतना ही बेहतर माहौल और मुहूर्त बनेगा.'
रिपोर्ट के मुताबिक, जेडीयू में टूट को लेकर श्याम रजक के बयान पर आरजेडी नेतृत्व ने आपत्ति भी जतायी है और मौजूदा माहौल में ऐसी बयानबाजी से बाज आने की हिदायत भी दी गयी है. आरजेडी नेता श्याम रजक ने दावा किया था कि जल्द ही नीतीश की पार्टी जेडीयू में फूट होगी - और जेडीयू के 17 विधायक आरजेडी में शामिल हो जाएंगे. आरजेडी प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने भी ऐसा ही दावा किया था - और दावे के पक्ष में अपनी दलील भी पेश की थी.
सुना है कि मकर संक्रांति पर इस बार दही-च्यूड़ा भोज नहीं होने जा रहा है. ये मौका हर साल राजनीतिक समीकरणों के बनने बिगड़ने का गवाह तो बनता ही है, लगे हाथ भविष्य की राजनीति की नींव रखने का भी मौका देता है.
भोज का आयोजन भले न हो रहा हो, लेकिन आरजेडी की तरफ से लंबे चौड़े दावे किये जा रहे हैं - मसलन, 14 जनवरी के बाद बिहार में राजनीतिक समीकरण पूरी तरह बदल चुके होंगे - एनडीए की जगह महागठबंधन का सत्ता पर कब्जा हो सकता है. आरजेडी के ही एक और नेता उदय नारायण चौधरी ने तो नीतीश कुमार को ये ऑफर भी दे डाला है कि अभी वो तेजस्वी यादव को बिहार का मुख्यमंत्री बनवा दें - और 2024 में जेडीयू नेता को विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के तौर पर पेश करने की कोशिश की जा सकती है.
नीतीश कुमार अपनी सदाबहार खामोशी तो ताक पर रख दिये हैं और मीडिया के ये पूछने पर भी कि 'क्या नए साल में उनके सामने किसी प्रकार का कोई सियासी संकट है' - और न पूछे जाने पर भी नीतीश कुमार की तरफ से एक ही जवाब सुनने को मिल रहा है - “नहीं-नहीं कोई संकट नहीं है.”
बिहार में सड़कें तो अब बेहतर स्थिति में लेकिन अब भी वहां रफ्तार भरते ट्रकों पर एक कॉमन स्लोगन पढ़ने को मिलता है - 'सटला त गइला बेटा'. मतलब, चलते चलते पीछे वाले को अलर्ट करने की कोशिश होती है - सावधानी हटी दुर्घटना घटी. नीतीश कुमार भी फिलहाल यही फॉर्मूला फॉलो कर रहे हैं - लगता तो यही है कि जब तक नीतीश कुमार को घेरने की चौतरफा कोशिश जारी रहेगी वो सुरक्षित रहेंगे. स्लो स्पीड का नुकसान वो भी अच्छी तरह समझते हैं.
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