महज पांच साल के भीतर बिहार में सारा खेल बदल चुका है. खेल के नियम तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ही बनाते रहे हैं और लागू भी उनके मनमाफिक ही होते रहे हैं, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं है. खेल के नियम बनाये तो इस बार भी नीतीश कुमार ने ही हैं, लेकिन वो अपने मन से लागू करने की स्थिति में नहीं हैं. अभी ये जरूर कह सकते हैं कि नियमों को लागू किये जाने में नीतीश कुमार की सहमति अहम होती है, कम से कम इतना तो है ही कि उनकी बातें नजरअंदाज नहीं की जा रही हैं.
बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) में नीतीश कुमार ही एनडीए के नेता हैं. नीतीश कुमार ही एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं - अभी तक जो माहौल बना हुआ है उसमें कोई दो राय नहीं कि चुनाव के तत्काल बाद नीतीश कुमार की सियासी सेहत पर किसी तरह की आंच आने वाली है. बाद में क्या होगा ये किसे मालूम होता है. वैसे भी राजनीति में चाणक्य ही होते हैं, ब्रह्मा नहीं.
यहां तक कि 2015 में भी नीतीश कुमार ने लालू यादव पर दबाव बना कर काफी हद तक चीजें अपने मनमाफिक करा डाली थीं, लेकिन पांच साल बाद परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं - बिहार चुनाव में अब रिंग मास्टर बीजेपी (BJP) बन चुकी है.
कैसे देखते देखते बीजेपी ने महागठबंधन को खत्म कर दिया
नीतीश कुमार ने इतना दबदबा तो कायम रखा ही है कि महागठबंधन की ही तरह इस बार एनडीए के भी नेता और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बन गये, लेकिन उसके आगे पीछे की चीजें धीरे धीरे बेकाबू होती गयीं और पकड़ ढीली पड़ती गयी. वैसे ये सब तो उसी दिन तय हो गया था जब वो महागठबंधन से ऊब कर एनडीए में लौटने कर लिये.
2015 के विधानसभा चुनावों से पहले महागठबंधन जिसके नाम पर खड़ा हुआ, पहला शिकार भी वही हुआ - नीतीश कुमार.
2014 में आम चुनाव के बाद हार का पहला स्वाद तो बीजेपी ने दिल्ली में ही चख लिया था, लेकिन बिहार विधानसभा में शिकस्त बर्दाश्त के बाहर रही. दिल्ली में तो तब स्थानीय नेताओं को नजरअंदाज कर किरण बेदी को लाने को बीजेपी ने एरर ऑफ जजमेंट के तौर पर...
महज पांच साल के भीतर बिहार में सारा खेल बदल चुका है. खेल के नियम तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) ही बनाते रहे हैं और लागू भी उनके मनमाफिक ही होते रहे हैं, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं है. खेल के नियम बनाये तो इस बार भी नीतीश कुमार ने ही हैं, लेकिन वो अपने मन से लागू करने की स्थिति में नहीं हैं. अभी ये जरूर कह सकते हैं कि नियमों को लागू किये जाने में नीतीश कुमार की सहमति अहम होती है, कम से कम इतना तो है ही कि उनकी बातें नजरअंदाज नहीं की जा रही हैं.
बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) में नीतीश कुमार ही एनडीए के नेता हैं. नीतीश कुमार ही एनडीए के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं - अभी तक जो माहौल बना हुआ है उसमें कोई दो राय नहीं कि चुनाव के तत्काल बाद नीतीश कुमार की सियासी सेहत पर किसी तरह की आंच आने वाली है. बाद में क्या होगा ये किसे मालूम होता है. वैसे भी राजनीति में चाणक्य ही होते हैं, ब्रह्मा नहीं.
यहां तक कि 2015 में भी नीतीश कुमार ने लालू यादव पर दबाव बना कर काफी हद तक चीजें अपने मनमाफिक करा डाली थीं, लेकिन पांच साल बाद परिस्थितियां पूरी तरह बदल चुकी हैं - बिहार चुनाव में अब रिंग मास्टर बीजेपी (BJP) बन चुकी है.
कैसे देखते देखते बीजेपी ने महागठबंधन को खत्म कर दिया
नीतीश कुमार ने इतना दबदबा तो कायम रखा ही है कि महागठबंधन की ही तरह इस बार एनडीए के भी नेता और मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बन गये, लेकिन उसके आगे पीछे की चीजें धीरे धीरे बेकाबू होती गयीं और पकड़ ढीली पड़ती गयी. वैसे ये सब तो उसी दिन तय हो गया था जब वो महागठबंधन से ऊब कर एनडीए में लौटने कर लिये.
2015 के विधानसभा चुनावों से पहले महागठबंधन जिसके नाम पर खड़ा हुआ, पहला शिकार भी वही हुआ - नीतीश कुमार.
2014 में आम चुनाव के बाद हार का पहला स्वाद तो बीजेपी ने दिल्ली में ही चख लिया था, लेकिन बिहार विधानसभा में शिकस्त बर्दाश्त के बाहर रही. दिल्ली में तो तब स्थानीय नेताओं को नजरअंदाज कर किरण बेदी को लाने को बीजेपी ने एरर ऑफ जजमेंट के तौर पर लिया, लेकिन बिहार में तो अपनी ओर से कोई कसर बाकी नहीं ही रखी थी. जैसे अभी माना जा रहा है कि बिहार में अकेले बूते किसी के लिए चुनाव लड़ना और जीतना मुमकिन नहीं है, तब भी ये हाल रहा और बीजेपी के साथ भी रामविलास पासवान और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टियां तो रहीं ही, लेकिन लालू के साथ महागठबंधन खड़ा कर नीतीश कुमार मोदी-शाह पर भारी पड़ गये थे.
2019 के आम चुनाव से पहले एनडीए छोड़ कर महागठबंधन पहुंचे उपेंद्र कुशवाहा ने तो तेजस्वी यादव का साथ छोड़ा ही, जीतनराम मांझी भी फिर से नीतीश कुमार की शरण में आ चुके हैं. न तो उपेंद्र कुशवाहा को और न ही जीतनराम मांझी को वो सब मिल पा रहा था जो एनडीए में मिलता रहा. एनडीए में कम से कम उनकी बातें सुनी तो जाती रहीं, महागठबंधन में तो तेजस्वी यादव ने राहुल गांधी को छोड़ कर किसी को भी घास डालने के काबिल भी नहीं समझा. महागठबंधन में रहे राजनीतिक दलों के नेताओं की बाते सुनकर तो यही राय बनती है. जीतनराम मांझी की तरह उपेंद्र कुशवाहा फायदे में तो नहीं रहे, लेकिन सच तो यही है कि वो महागठबंधन में भी नहीं रहे.
उपेंद्र कुशवाहा और जीतनराम मांझी के बाद बच रहे थे खुद को सन ऑफ मल्लाह कहने वाले मुकेश साहनी. महागठबंधन की सीटों के बंटवारे के वक्त तक मुकेश साहनी की विकासशील इंसान पार्टी साथ में बनी रही. प्रेस कांफ्रेंस में मुकेश साहनी ने दो बातें अपने खिलाफ महसूस की - एक वीआईपी के लिए सीटों की घोषणा न होना और दूसरा, डिप्टी सीएम की उनकी मांग को लेकर कहीं कोई चर्चा न होना. फिर क्या था, मुकेश साहनी ने प्रेस कांफ्रेंस में ही बगावत कर दी और बीचे में ही छोड़ कर चले गये.
जाहिर है, मुकेश साहनी ने इतना बड़ा कदम बगैर बीजेपी के पहले से मिले आश्वासन के तो बढ़ाया नहीं होगा. मुकेश साहनी की पार्टी को महागठबंधन में सीटें आरजेडी अपने कोटे से देने वाली थी और एनडीए में वही काम बीजेपी कर रही है.
ले देकर महागठबंधन में आरजेडी के साथ साथ कांग्रेस और वाम दल बने हुए हैं जिनके लिए अपने हिस्से की सीटें जीतना भी चुनौती है और अगर वो चैलेंज पार गये तो भी दहाई का आंकड़ा पार करना तो संभव भी नहीं है. वैसे भी वाम दल 19 सीटों पर ही लड़ रहे हैं. कांग्रेस की भी स्थिति कोई वाम दलों से ज्यादा बेहतर नहीं है. कुछ उम्मीदवार अपनी बदौलत या फिर वोटकटवा उम्मीदवारों की मदद से हार जीत का फासला कम होने की स्थिति में भले ही गाड़ी निकाल लें, वरना उम्मीद तो कोई बड़ी उनको भी नहीं ही होगी.
ये तो ऐसे ही लगता है जैसे महागठबंधन अब आरजेडी का ही थोड़ा सा एक्सटेंशन हो - और महागठबंधन में ये तहस-नहस करने का श्रेय बीजेपी को छोड़ कर किसी और को तो मिलने से रहा. हां, कुछ नेता आरजेडी और कांग्रेस छोड़ कर नीतीश कुमार के साथ हो जरूर लिये हैं, लेकिन कुछ ने तो आरजेडी के लिए नीतीश का भी साथ छोड़ा ही है.
नीतीश शेर तो बीजेपी सवा शेर साबित हो रही है
बिहार में बीजेपी की रणनीति तो यही लगती है कि वो किसी को भी मजबूत स्थिति में नहीं रहने देना चाहती. चिराग पासवान के 143 सीटों पर एनडीए से अलग होकर लड़ने को भी बीजेपी के साथ ही जोड़ कर देखा जा रहा है. एलजेपी को फिलहाल बीजेपी की बी-टीम के तौर पर भी देखा जा रहा है. जिस तरीके से एलजेपी ने अपनी रणनीति बतायी है, लग भी यही रहा है कि वो जो कुछ भी कर रही है सिर्फ बीजेपी के फायदे के लिए ही कर रही है. एलजेपी को भी यही लगता है कि बीजेपी के फायदे में ही उसका भी फायदा है.
नीतीश कुमार को हो सकता है लगता हो कि वो बिहार के रिंग मास्टर हैं, मुख्यमंत्री तो नहीं लेकिन अब वो भूतपूर्व रिंग मास्टर जरूर हो चुके हैं. निश्चित तौर पर नीतीश कुमार वो शेर हैं जिसका दावा है कि उसने बिहार में 'जंगलराज' खत्म कर दिया, लेकिन छोटे शेर का आज के सबसे बड़े शेर से सामना हो गया है.
2015 से पहले नीतीश कुमार की पूरी मनमानी चलती रही. जिसे जो दे दिया प्रसाद की तरह चुपचाप ग्रहण कर लेता रहा. विधानसभा सीटों के बंटवारे में 2015 में लालू यादव के मोलभाव ने मामला बराबरी पर ला दिया - और उसी का फायदा उठाते हुए बीजेपी ने भी इस बार पहला काम यही किया. लोक सभा में बराबरी का मौका देकर विधानसभा में भी बीजेपी ने जेडीयू के साथ बंटवारा बराबरी पर ला दिया है
बीजेपी 121 सीटों पर लड़ रही है और जेडीयू 121 पर. बीजेपी ने अपने हिस्से की 11 सीटें मुकेश साहनी की पार्टी वीआईपी को दी है और नीतीश कुमार ने अपने पास से 7 सीटें जीतनराम मांझी की पार्टी को.
दस साल पहले भी बीजेपी और जेडीयू मिल कर ही चुनाव लड़े थे, लेकिन तब नीतीश कुमार ने अपने पास बीजेपी के मुकाबले काफी ज्यादा सीटें रखी थीं. 2010 में नीतीश कुमार ने जेडीयू के लिए 141 सीटें अपने पास रखी थी और बीजेपी को 102 सीटें दी थी. चुनाव नतीजे आये तो जेडीयू को 115 और बीजेपी को 91 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. अक्टूबर, 2005 में हुए चुनाव में भी नीतीश कुमार ने जेडीयू के खाते में 139 और बीजेपी से 102 ही सीटें ही शेयर की, लेकिन जेडीयू सिर्फ 88 सीटें ही जीत पायी और बीजेपी की भी सीटें कम होकर 55 पर आ गयी थीं.
बिहार चुनाव में नीतीश कुमार को अगर उनका कोई विकल्प न होने का फायदा मिल रहा है, तो बीजेपी ने उनके लिए भी विकल्प खत्म कर दिया है. बीजेपी को मालूम था कि जब तक गठबंधन मजबूत रहेगा, नीतीश कुमार के सामने विकल्प मौजूद रहेगा. इसीलिए सबसे पहले बीजेपी ने महागठबंधन को कमजोर करने में पूरा जोर लगा दिया और काफी हद तक कामयाब भी रही है.
फिर बीजेपी नेतृत्व को लगा होगा कि गठबंधन का क्या चुनाव पूर्व महागठबंधन भले कमजोर हो गया हो, लेकिन चुनाव के बाद भी तो गठबंधन खड़ा हो ही सकता है. बीजेपी को सबसे बुरा इसका अनुभव महाराष्ट्र में हुआ है. एक तो बीजेपी की अपनी सीटें कम आयीं और दूसरी विरोधी की सीटें मिला कर सरकार बनाने लायक हो गयीं. महाराष्ट्र में शिवसेना ने चुनाव के पहले वाला गठबंधन तोड़ा और कांग्रेस-एनसीपी के साथ नया गठबंधन बनाकर उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन बैठे और बीजेपी चुपचाप देखती रह गयी. आगे से बीजेपी इतिहास दोहराये जाने का मौका किसी को नहीं देना चाहती - और नीतीश कुमार भी बीजेपी के आगे मजबूर हो चुके हैं.
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