नीतीश कुमार (Nitish Kumar) 2020 के बिहार चुनाव के झटके से काफी हद तक उबर चुके हैं. अब तो ऐसा लगता है जैसे वो बीजेपी नेतृत्व के साथ शह और मात का खेल भी शुरू कर चुके हैं. हालत ये है कि नीतीश कुमार खुले हाथों से खेल रहे हैं - और बीजेपी बचाव की मुद्रा में इशारों पर नाचती सी नजर आ रही है.
ये ठीक है कि नीतीश कुमार की इफ्तार पार्टी की कीमत लालू यादव और उनके परिवार को सीबीआई की छापेमारी के रूप में चुकानी पड़ी है. दरअसल, लालू यादव के 17 ठिकानों पर सीबीआई की छापेमारी को लेकर आरजेडी की तरफ से ऐसा ही रिएक्शन आया था, लेकिन कम से कम दो मामले तो ऐसे देखे ही जा रहे हैं - एक जातीय जनगणना का मसला और दूसरा जेडीयू नेता आरपीसी सिंह (RCP Singh) को फिर से राज्य सभा भेजे जाने का मामला.
जातीय जनगणना (Caste Census) के मुद्दे पर नीतीश कुमार के तेजस्वी यादव को साथ ले लेने के बाद बीजेपी के लिए विरोध के स्टैंड पर टिक पाना मुश्किल हो रहा था. नीतीश कुमार अक्सर ही कुछ मुद्दों को बिहार की अस्मिता से जोड़ देते हैं और बीजेपी को बैकफुट पर आने को मजबूर होना पड़ता है. चाहे वो बिहार को स्पेशल राज्य का दर्जा देने की बात हो या फिर जातीय जनगणना कराये जाने का. डीएनए के मामले तो सब लोग देख ही चुके हैं कि कैसे बीजेपी के खिलाफ पूरा बिहार 2015 में एक साथ खड़ा हो गया था.
जातीय जनगणना का मसला वैसे तो पिछड़ी जातियों के हित वाला मुद्दा है, लेकिन बिहार के नाम पर हर राजनीतिक दल को साथ खड़ा होने की मजबूरी बन जाती है. केंद्र में तो बीजेपी ने साफ तौर पर बोल दिया है कि वो देश में जातीय जनगणना के खिलाफ है, लेकिन बिहार में ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती.
जातीय जनगणना बीजेपी के लिए ऐसा मसला है जिसे लेकर जिद पर अड़े रहने से नीतीश कुमार के साथ साथ बिहार के लोगों की भी नाराजगी मोल लेनी पड़ सकती है. जातीय जनगणना पर बीजेपी के यू-टर्न से साफ है कि नये सिरे से वो अब किसी भी गठबंधन साथी की नाराजगी मोल लेने के पक्ष में नहीं है. पहले ही पंजाब में अकाली दल और महाराष्ट्र में...
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) 2020 के बिहार चुनाव के झटके से काफी हद तक उबर चुके हैं. अब तो ऐसा लगता है जैसे वो बीजेपी नेतृत्व के साथ शह और मात का खेल भी शुरू कर चुके हैं. हालत ये है कि नीतीश कुमार खुले हाथों से खेल रहे हैं - और बीजेपी बचाव की मुद्रा में इशारों पर नाचती सी नजर आ रही है.
ये ठीक है कि नीतीश कुमार की इफ्तार पार्टी की कीमत लालू यादव और उनके परिवार को सीबीआई की छापेमारी के रूप में चुकानी पड़ी है. दरअसल, लालू यादव के 17 ठिकानों पर सीबीआई की छापेमारी को लेकर आरजेडी की तरफ से ऐसा ही रिएक्शन आया था, लेकिन कम से कम दो मामले तो ऐसे देखे ही जा रहे हैं - एक जातीय जनगणना का मसला और दूसरा जेडीयू नेता आरपीसी सिंह (RCP Singh) को फिर से राज्य सभा भेजे जाने का मामला.
जातीय जनगणना (Caste Census) के मुद्दे पर नीतीश कुमार के तेजस्वी यादव को साथ ले लेने के बाद बीजेपी के लिए विरोध के स्टैंड पर टिक पाना मुश्किल हो रहा था. नीतीश कुमार अक्सर ही कुछ मुद्दों को बिहार की अस्मिता से जोड़ देते हैं और बीजेपी को बैकफुट पर आने को मजबूर होना पड़ता है. चाहे वो बिहार को स्पेशल राज्य का दर्जा देने की बात हो या फिर जातीय जनगणना कराये जाने का. डीएनए के मामले तो सब लोग देख ही चुके हैं कि कैसे बीजेपी के खिलाफ पूरा बिहार 2015 में एक साथ खड़ा हो गया था.
जातीय जनगणना का मसला वैसे तो पिछड़ी जातियों के हित वाला मुद्दा है, लेकिन बिहार के नाम पर हर राजनीतिक दल को साथ खड़ा होने की मजबूरी बन जाती है. केंद्र में तो बीजेपी ने साफ तौर पर बोल दिया है कि वो देश में जातीय जनगणना के खिलाफ है, लेकिन बिहार में ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना चाहती.
जातीय जनगणना बीजेपी के लिए ऐसा मसला है जिसे लेकर जिद पर अड़े रहने से नीतीश कुमार के साथ साथ बिहार के लोगों की भी नाराजगी मोल लेनी पड़ सकती है. जातीय जनगणना पर बीजेपी के यू-टर्न से साफ है कि नये सिरे से वो अब किसी भी गठबंधन साथी की नाराजगी मोल लेने के पक्ष में नहीं है. पहले ही पंजाब में अकाली दल और महाराष्ट्र में शिवसेना को वो गंवा चुकी है - और मजे की बात देखिये कि दोनों ही जगह न तो बीजेपी सत्ता में है, न सत्ता में साझीदार ही.
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने बीजेपी नेतृत्व की ये कमजोरी पकड़ ली है और उसी हिसाब से एक रणनीति के तहत बीजेपी को घेरने में जुट गये हैं. विपक्ष के बिखरे होने की वजह से बीजेपी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए 2024 का मैदान साफ देख रही है और सीनियर बीजेपी नेता अमित शाह भी नहीं चाहते कि नीतीश कुमार की नाराजगी मोल कर कोई जोखिम उठाया जाये - नीतीश कुमार भी उसी का पूरा फायदा उठाने के चक्कर में लगते हैं.
जातीय जनगणना पर बीजेपी का यू-टर्न
नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना को लेकर 1 जून को सर्वदलीय बैठक बुलायी है. पहले बीजेपी के ही बैठक से दूर रहने की आशंका थी लेकिन अब तो पार्टी ने साफ कर दिया है कि वो जातीय जनगणना के फेवर में है. बीजेपी विधायक हरिभूषण ठाकुर ने साफ कर दिया है कि बीजेपी जातीय जनगणना के पक्ष में है और इसे लेकर किसी भी तरीके का कंफ्यूजन नहीं है.
वैसे ये बीजेपी के केंद्र सरकार स्टैंड से यू टर्न है. बिहार की राजनीति से ही केंद्र में गृह राज्य मंत्री बने नित्यानंद राय ने साफ तौर पर कह दिया था कि केंद्र की मोदी सरकार जातीय जनगणना नहीं कराने जा रही है, लेकिन बिहार में बीजेपी ने पैंतरा बदल लिया है. हालात ही कुछ ऐसे लगते हैं.
हाल ही में बिहार विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव ने ऐलान कर दिया था कि अगर नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना पर कोई स्टैंड नहीं लिया तो पटना से दिल्ली तक पैदल मार्च करेंगे. ये तेजस्वी यादव की नीतीश कुमार पर दबाव बनाने की कोशिश रही, लेकिन तभी नीतीश कुमार ने आरजेडी नेता को बुला कर मुलाकात कर ली. नीतीश कुमार के साथ मुलाकात के बाद तेजस्वी यादव ठंडे पड़ गये और दिल्ली मार्च स्थगित कर दिया.
आरजेडी प्रवक्ता मृत्युंजय तिवारी ने कहा कि बीजेपी ने जातीय जनगणना के मुद्दे पर एक बार फिर से यू-टर्न ले लिया है. बीजेपी को जब डर सताने लगा कि उसके बगैर भी नीतीश कुमार बिहार में जातीय जनगणना कराएंगे और तेजस्वी यादव उनके सपोर्ट में हैं तो बीजेपी ने अपना स्टैंड बदल लिया.
जो नीतीश कुमार 2020 के चुनाव नतीजे आने के बाद जब मुख्यमंत्री बने तो हर बात बीजेपी नेतृत्व की मंजूरी लेकर ही करते रहे, वही नीतीश कुमार अब बार बार आंखें दिखाने लगे हैं और ये सिर्फ जातीय जनगणना के मुद्दे पर ही हो रहा हो, ऐसा बिलकुल नहीं है.
उत्तराखंड के बाद जैसे ही अमित शाह ने बीजेपी शासित राज्यों में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू किये जाने को लेकर भोपाल में बयान दिया, बिहार में भी बीजेपी नेता मांग करने लगे. सुशील कुमार मोदी को तो बयान देकर सफाई देनी पड़ी थी - और नीतीश कुमार की तरफ से साफ तौर पर जता दिया गया कि बिहार में ये सब नहीं होने वाला है.
जनसंख्या नियंत्रण कानून और मस्जिदों में लगे लाउडस्पीकर पर भी बिहार बीजेपी के नेताओं ने शोर मचाने की कोशिश की, लेकिन एक एक करके नीतीश कुमार सबको न्यूट्रलाइज करते गये - और अब जातीय जनगणना पर भी बीजेपी को झुकाने में सफल देखे जा सकते हैं.
आरसीपी सिंह को लेकर फंसा पेंच
नीतीश कुमार ने बीजेपी के साथ एक ऐसे मामले में पेंच फंसा दिया है जो जातीय जनगणना से कहीं ज्यादा फजीहत कराने वाला है - अगर बीजेपी ने समय रहते इंतजाम नहीं किया और नीतीश कुमार अपनी जिद पर अड़े रहे तो आरसीपी सिंह की मोदी मंत्रिमंडल से अपनेआप छुट्टी हो जाएगी.
केंद्रीय मंत्री आरसीपी सिंह बिहार से राज्य सभा सदस्य हैं. जब से आरसीपी सिंह मंत्री बने हैं तभी से नीतीश कुमार उनसे नाराज चल रहे हैं - और नाराजगी की वजह से ही नीतीश कुमार उनको जेडीयू कोटे से फिर से राज्य सभा भेजने को तैयार नहीं हैं. जुलाई, 2022 में आरसीपी सिंह का राज्य सभा का कार्यकाल खत्म हो रहा है. मंत्री बने रहने के लिए आरसीपी सिंह को हर हाल में संसद के किसी भी सदन का सदस्य होना होगा.
इस बीच, इंडियन एक्सप्रेस ने सूत्रों के हवाले से खबर दी है कि आरसीपी सिंह चाहते थे कि जेडीयू छोड़ दें - और बीजेपी ज्वाइन कर लें, लेकिन बीजेपी नेतृत्व ऐसा नहीं होने देना चाहता. क्योंकि ऐसा हुआ तो नीतीश कुमार और भी मनमानी करने लगेंगे.
बीजेपी नेतृत्व ये नहीं चाहता कि राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति चुनाव से पहले नीतीश कुमार को नाराज होने का कोई मौका मिल जाये. वैसे भी नीतीश कुमार का ये ट्रैक रिकॉर्ड रहा है कि वो जिस पार्टी के साथ गठबंधन में होते हैं, उसके विरोधी राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार को वोट देते हैं. कम से कम दो बार से तो ऐसा ही हो रहा है. 2017 में आरजेडी और कांग्रेस के साथ महागठबंधन में होते हुए भी नीतीश कुमार ने बिहार का गवर्नर रहने के नाम पर राष्ट्रपति चुनाव में रामनाथ कोविंद को वोट दिया था. ठीक वैसे ही 2012 के चुनाव में एनडीए में होने के बावजूद यूपीए के उम्मीदवार प्रणब मुखर्जी को वोट दिया था. भला ऐसे में बीजेपी क्यों चाहेगी कि नीतीश कुमार ऐसा फिर से करने के लिए कोई नयी दलील न गढ़ लें.
नीतीश को आरसीपी से क्या फायदा: ऊपर से तो आरसीपी सिंह ने जेडीयू छोड़ने से इनकार किया है, लेकिन इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है कि बीजेपी को वो बता चुके हैं कि नीतीश कुमार उनको जेडीयू से राज्य सभा नहीं भेजने वाले हैं.
नीतीश ने आरसीपी सिंह को भी वैसे ही जेडीयू का अध्यक्ष बनाया था जैसे जीतनराम मांझी को बिहार का मुख्यमंत्री - बीजेपी से दो-दो हाथ करने के मकसद से. और दोनों ही ने नीतीश कुमार के साथ करीब करीब मिलता जुलता ही व्यवहार किया.
2020 के बिहार चुनाव के बाद नीतीश कुमार के लिए बीजेपी नेतृत्व से डील करना काफी मुश्किल हो रहा था. नीतीश कुमार ने यही सोच कर आरसीपी सिंह को अपनी जगह जेडीयू का अध्यक्ष बना दिया. कुछ ऐसे मुद्दे रहे जिन पर नीतीश कुमार चुप रह कर भी बीजेपी को अपनी बातें समझाना चाहते थे. जो बात वो खुद नहीं कर पा रहे थे, उसी काम के लिए अपने बेहद भरोसेमंद आरसीपी सिंह को तैनात किया था. IAS अधिकारी रहे आरसीपी सिंह तब से नीतीश कुमार के साथ काम करते आ रहे थे जब वो केंद्र सरकार में मंत्री हुआ करते थे. जब नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने तो आरसीपी सिंह को भी पटना बुला लिये.
जैसे बीजेपी ने चिराग पासवान और पशुपति कुमार पारस को अलग थलग कर दिया, आरसीपी सिंह को भी नीतीश कुमार से करीब करीब झटक ही लिया है. जुलाई, 2021 में जब मोदी मंत्रीमंडल में फेरबदल और विस्तार हो रहा था, नीतीश कुमार ने आरसीपी सिंह को मोलभाव के लिए बीजेपी नेतृत्व के पास भेजा था.
2019 में एनडीए की सत्ता में वापसी हुई तो गठबंधन साथियों को बीजेपी ने एक ही मंत्री पद दिया था. नीतीश कुमार कम से कम दो चाहते थे इसलिए जेडीयू को कैबिनेट का हिस्सा बनाने से कदम पीछे खींच लिये. बाद में जब बीजेपी की तरफ से उदारता के सिग्नल मिले तो आरसीपी सिंह के जरिये नीतीश कुमार बातचीत करने लगे. बातचीत ऐसी हुई कि आरसीपी सिंह खुद मंत्री पद की शपथ ले डाले और नीतीश कुमार को झटका दे दिया. नीतीश कुमार मन मसोस कर रह गये और फिर ललन सिंह को जेडीयू का अध्यक्ष बना दिया.
नीतीश कुमार को भी वक्त आने का इंतजार रहा. वो जानते थे कि राज्य सभा का कार्यकाल पूरा होने पर तो मामला उनके पास आएगा ही. वो तारीख भी नजदीक आती जा रही है. राज्य सभा के नामांकन की आखिरी तारीख भी नजदीक आ रही है - और आरसीपी सिंह को लेकर सस्पेंस बना हुआ है.
अब आरसीपी सिंह को मंत्री बनाये रखने के लिए बीजेपी को जैसे भी हो राज्य सभा भेजने का इंतजाम करना होगा, भले ही उसे ऐसा अपने कोटे से ही क्यों न करना पड़े. अगर बीजेपी ऐसा करती है तो भी ये नीतीश कुमार को नाराज करने वाली बात होगी.
बीजेपी नेतृत्व को आरसीपी सिंह की कुर्सी बचाये रखने के लिए बीच का कोई रास्ता निकालना है - और फिलहाल नीतीश कुमार को नाराज किये बगैर ये काम तो होने से रहा.
शह और मात के खेल में कौन आगे?
नीतीश कुमार ने जातीय जनगणना की घोषणा कर बीजेपी को वॉर्निंग देनी चाही थी. इफ्तार पार्टी के बाद से नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव को करीब देखा जाने लगा था. फिर जातीय जनगणना के मुद्दे पर तेजस्वी यादव और नीतीश कुमार दोनों हाथ मिला कर खड़े हो गये - और बीजेपी के सामने चुनौती पेश कर दी.
नीतीश को लगा होगा कि बीजेपी जातीय जनगणना के मामले पर अड़ जाएगी और फिर वो अपने हिसाब से दबाव बना कर काम निकालने की कोशिश करेंगे - लेकिन बीजेपी ने यू टर्न ले लिया और बिहार में जेडीयू के साथ रहने को तैयार हो गयी.
नीतीश को नुकसान ये हुआ कि जातीय जनगणना का अकेले क्रेडिट लेने देने से रोकने वाले दो-दो दल तैयार हो गये. आरजेडी का पहले से ही दबाव है, लेकिन अब उसमें बीजेपी भी हिस्सेदार हो जाएगी - देखा जाये तो बीजेपी ने एक तरीके से नीतीश कुमार की राजनीति को थोड़ा हल्का ही कर दिया है. पहले नीतीश कुमार बीजेपी पर ये दबाव बनाने में कामयाब रहे कि बीजेपी को अपना विधायक भी बिहार प्रतिनिधि मंडल में भेजना पड़ा था.
असल में ये 2024 की लड़ाई है. नीतीश कुमार को लगता है कि बीजेपी सीटों के मामले में 2020 जैसा कोई खेल न करे. सीटों के बराबर बंटवारे में रोड़े न खड़ा कर दे - क्योंकि अभी तो दोनों की विधानसभा सीटों में बड़ा फासला हो चुका है.
बीजेपी के साथ आने के बाद से नीतीश कुमार की सेक्युलर छवि को काफी नुकसान पहुंचा है. ऐसी नौबत आने पर वो बच निकलने की कोशिश तो करते थे, लेकिन कोई रास्ता बचता न था. धीरे धीरे अब वो ऐसी स्थिति में पहुंच चुके हैं जहां से बीजेपी को उसकी हदें बताते हुए मनमानी कर सकें - और ये सब 2024 के आम चुनाव तक तो हो ही सकता है.
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