एक दिन पहले दो दिलचस्प राजनीतिक घटनाएं सामने आईं. दोनों के एक सिरे पर कांग्रेस है. हालांकि दोनों घटनाओं में समूचे देश का ध्यान सिर्फ राजस्थान पर केंद्रित हुआ. वहां 'राजनीतिक बिल्लियों' के भाग से छींका फूटता दिख रहा है. छींका बिहार में भी फूट सकता है. राजस्थान पर तो समूचा देश बात कर ही रहा है. मैं बिहार पर बात करना पसंद करूंगा. उन बिहारी मित्रों से माफी के साथ जो गैरबिहारी पत्रकारों के 'घुसपैठिया' विश्लेषण पर सवाल उठाते हैं.
राजस्थान संकट कांग्रेस में सुनामी की तरह है. और सुनामी ने कांग्रेस से ही जुड़ी दूसरी घटना को ढांप दिया. चर्चाएं व्यापक नहीं हो पाईं. जबकि देरशाम तक राजस्थान का रायता फ़ैलने से पहले लालू यादव, पीएम इन वेटिंग नीतीश कुमार को लेकर सोनिया गांधी से दिल्ली मिल चुके थे. मुलाक़ात में क्या हुआ यह तो स्पष्ट नहीं, मगर उसका मकसद शीशे की तरफ साफ़ है. 2024 का लोकसभा चुनाव. बातचीत का मुद्दा संभवत: नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष की तरफ से एक योग्य नेता का नाम तय करना होगा. लालू और नीतीश की पार्टी ने वह योग्य नेता पहले ही चुन लिया है. जाहिर सी बात है कि जब नेता पहले ही चुना जा चुका हो तो लालू, सोनिया के पास पीएम इन वेटिंग को लेकर उनके नाम पर मुहर ही लगवाने गए होंगे. सवाल यह है कि कांग्रेस क्यों मुहर लगाएगी जब वह मोदी के खिलाफ राहुल को एक देशव्यापी यात्रा के जरिए झाड़ पोंछकर नया रूप रंग देने की कोशिश में है.
वैसे भी राहुल कुछ भी हों, कम से कम उनकी राजनीतिक हैसियत नीतीश कुमार से कहीं ज्यादा बड़ी है. लालू-नीतीश मात्र एक राज्य में (झारखंड को भी तकनीकी रूप से शामिल कर सकते हैं) वह भी गठबंधन की सरकार चला रहे हैं. कांग्रेस तो फिर भी कई राज्यों की गठबंधन सरकार का हिस्सा है. दो बड़े राज्यों में उसकी सरकार है. कई राज्यों में भाजपा के सामने मुख्य विपक्षी दल है. ऐसा भला हो सकता है क्या कि लालू यादव जैसे माहिर नेता यह नहीं समझते हों. कांग्रेस किसी भी सूरत में भारत जोड़ो यात्रा के नतीजों का विश्लेषण करने से पहले मोदी के खिलाफ विपक्ष के किसी...
एक दिन पहले दो दिलचस्प राजनीतिक घटनाएं सामने आईं. दोनों के एक सिरे पर कांग्रेस है. हालांकि दोनों घटनाओं में समूचे देश का ध्यान सिर्फ राजस्थान पर केंद्रित हुआ. वहां 'राजनीतिक बिल्लियों' के भाग से छींका फूटता दिख रहा है. छींका बिहार में भी फूट सकता है. राजस्थान पर तो समूचा देश बात कर ही रहा है. मैं बिहार पर बात करना पसंद करूंगा. उन बिहारी मित्रों से माफी के साथ जो गैरबिहारी पत्रकारों के 'घुसपैठिया' विश्लेषण पर सवाल उठाते हैं.
राजस्थान संकट कांग्रेस में सुनामी की तरह है. और सुनामी ने कांग्रेस से ही जुड़ी दूसरी घटना को ढांप दिया. चर्चाएं व्यापक नहीं हो पाईं. जबकि देरशाम तक राजस्थान का रायता फ़ैलने से पहले लालू यादव, पीएम इन वेटिंग नीतीश कुमार को लेकर सोनिया गांधी से दिल्ली मिल चुके थे. मुलाक़ात में क्या हुआ यह तो स्पष्ट नहीं, मगर उसका मकसद शीशे की तरफ साफ़ है. 2024 का लोकसभा चुनाव. बातचीत का मुद्दा संभवत: नरेंद्र मोदी के खिलाफ विपक्ष की तरफ से एक योग्य नेता का नाम तय करना होगा. लालू और नीतीश की पार्टी ने वह योग्य नेता पहले ही चुन लिया है. जाहिर सी बात है कि जब नेता पहले ही चुना जा चुका हो तो लालू, सोनिया के पास पीएम इन वेटिंग को लेकर उनके नाम पर मुहर ही लगवाने गए होंगे. सवाल यह है कि कांग्रेस क्यों मुहर लगाएगी जब वह मोदी के खिलाफ राहुल को एक देशव्यापी यात्रा के जरिए झाड़ पोंछकर नया रूप रंग देने की कोशिश में है.
वैसे भी राहुल कुछ भी हों, कम से कम उनकी राजनीतिक हैसियत नीतीश कुमार से कहीं ज्यादा बड़ी है. लालू-नीतीश मात्र एक राज्य में (झारखंड को भी तकनीकी रूप से शामिल कर सकते हैं) वह भी गठबंधन की सरकार चला रहे हैं. कांग्रेस तो फिर भी कई राज्यों की गठबंधन सरकार का हिस्सा है. दो बड़े राज्यों में उसकी सरकार है. कई राज्यों में भाजपा के सामने मुख्य विपक्षी दल है. ऐसा भला हो सकता है क्या कि लालू यादव जैसे माहिर नेता यह नहीं समझते हों. कांग्रेस किसी भी सूरत में भारत जोड़ो यात्रा के नतीजों का विश्लेषण करने से पहले मोदी के खिलाफ विपक्ष के किसी साझे उम्मीदवार के लिए तैयार हो. भारत जोड़ो यात्रा 150 दिन की है और अभी तो एक महीना भी नहीं बीता है. तो सवाल यही है कि लालू, नीतीश को लेकर सोनिया से मिलने-मिलाने दिल्ली क्यों आए थे?
लालू के आने की वजहें हैं. आप इसे पूर्व मुख्यमंत्री का पैंतरा भी कह सकते हैं. असल में नीतीश दूसरी बार एनडीए छोड़कर जरूर निकले, मगर इस बार उनके पक्ष में 2015 जैसा माहौल नहीं है. उलटे नीतीश अपने ही कार्यकर्ता और कोर वोटर के निशाने पर हैं राजद के साथ एक असंभव लक्ष्य हासिल करने के लिए गठबंधन बनाने को लेकर. सवाल हो रहे हैं. कोढ़ में खाज यह है कि राजद के सरकार में आते ही अराजक घटनाएं आम हो गई हैं. मीडियाकर्मियों को परेशान किया जा रहा, कोई थाने में घुसकर अफसर को धमका रहा, मीटिंग में मंत्री नियमों का उल्लंघन कर रिश्तेदारों को लेकर बैठ रहे. एक जाति विशेष के लोगों पर मारने-पीटने और धमकाने के आरोप लग रहे हैं. कहा यह भी जा रहा कि फिलहाल बिहार की सत्ता का केंद्र लालू और तेजस्वी ही हैं. नीतीश तमाम चीजों से मुंह मोड़े नजर आ रहे और उनका भी कोर वोटर इससे बहुत परेशान है.
लालू नीतीश की सबसे कमजोर नस का इस्तेमाल कर रहे हैं
यहां तक कि कुछ हत्याओं पर शिवानंद तिवारी जैसे पुराने वरिष्ठ राजद नेताओं ने भी पार्टी के काडर की गुंडागर्दी और नीतीश पर तीखे सवाल दागे हैं. बिहार में राजनीति की यह सबसे पॉपुलर बहस है इस वक्त कि लालू के हाथ नीतीश की सबसे कमजोर नस लगी है. और कमजोर नस कुछ और नहीं- प्रधानमंत्री की कुर्सी ही है. नीतीश के करीबी भी मान चुके हैं कि नीतीश के मन में कहीं ना कहीं पीएम की कुर्सी का ख्याल गहराई से धंसा है. बिहार से ढेरों विश्लेषण निकलकर आ चुके हैं जिसमें निष्कर्ष निकला कि पीएम का चेहरा बनाने के बदले नीतीश, मुख्यमंत्री के रूप में तेजस्वी की ताजपोशी के लिए राजी हुए.
लेकिन राजद के साथ असहज दिख रहे पार्टी काडर के दबाव, सरकारी संरक्षण में आपराधिक घटनाओं में वृद्धि और राहुल गांधी की यात्रा और राजद की बजाए कांग्रेस की आक्रामकता ने नीतीश को निराश किया है. कांग्रेस की रणनीति ही है कि पिछड़े कोर मतों की राजनीति करने वाली क्षेत्रीय ताकतों को सीधे संघ पर हमला कर उनकी ताकत को ही कुंद कर दिया जाए. संघ की पैंट में आग लगवाना बस उसी कड़ी का हिस्सा था.
बिहार के एक पत्रकार मित्र से बात हो रही थी जिन्होंने अंदरखाने का जिक्र करते कहा कि राहुल की देशव्यापी यात्रा के बाद नीतीश के शुभचिंतकों के एक धड़े को भी ऐसा लग रहा कि उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार ही ना बनाया जाए. और यह बिहार की सत्ता हासिल करने के लिए एक तरह से राजद का ट्रैप हो. नीतीश के शुभचिंतक धड़े का कहना है कि अगर लालू, नीतीश को मोदी के सामने चेहरा बनाना चाहते हैं तो वे उसके लिए पर्याप्त राजनीतिक सक्रियता क्यों नहीं दिखाते? भाजपा के खिलाफ उनकी आक्रामकता नहीं दिखती. जैसे वे शांतिपूर्वक तरीके से अपनी सरकार चलाना चाहते हों. बिहार में विपक्ष का यह प्रचार भी लोकप्रिय हो चुका है कि नीतीश नाममात्र के मुख्यमंत्री हैं. सरकार तेजस्वी और उनकी पार्टी चला रही है. कुछेक को छोड़ दिया जाए तो जेडीयू के तमाम नेता खुद को हाशिए पर पा रहे हैं.
बिहार में पिछड़ा राजनीति के आतंरिक दायरे में भी बहस हो रही है- सिर्फ यादव-कुर्मी ही क्यों?
एक तो नीतीश की दावेदारी के लिए लालू की तरफ से तगड़ी कोशिश नहीं दिखती. उलटे तमाम घटनाओं की वजह से मुख्यमंत्री की साख पर रोजाना कोई ना कोई बट्टा लग ही जा रहा है. सत्ता का लोभी और उसके लिए कुछ भी करने वाले नेता की छवि बनाई जा रही है. इतना ही नहीं बिहार की पिछड़ा राजनीति पर यादव और कुर्मी-कोइरी के वर्चस्व को लेकर भी अन्य पिछड़ी जातियों में बड़ी हलचल दिखने लगी है. बिहार में विपक्ष की कोशिशें तमाम मुद्दों पर असरदार दिखी हैं. कुछ पत्रकार मित्रों ने बताया कि नीतीश ने भी लालू को जमीन की मजबूरियों और अपनी चिंताओं से अवगत कराया है. सरकार बनने के बाद अब तक नीतीश ने ऐसा कोई फैसला नहीं लिया है जिसमें उनके मजबूत इरादों और बदलाव का संकेत मिले. अपने ही राज्य में जाति जनगणना के सवाल पर भी नीतीश बचते नजर आ रहे. जबकि भाजपा के खिलाफ राजद के साथ यह उनके एजेंडा में भी दिखता था.
माना जा रहा कि लालू, नीतीश की कमजोर नस का इस्तेमाल कर रहे और उसी के सहारे गठबंधन सरकार चला रहे हैं. इसके लिए लालू अपने देशव्यापी तगड़े पॉलिटिकल नेटवर्क का इस्तेमाल कर रहे हैं. राजनीतिक गलियारे में चर्चा है कि जब नीतीश की तरफ से लालू पर दबाव तेज होता है- पूर्व मुख्यमंत्री कोई ना कोई तरकीब के साथ सामने आते हैं. कभी केसीआर को पटना बुला लिया जाता है. कभी अखिलेश यादव से बात करवा दी जाती है और फूलपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने का शिगूफा छेड़ दिया जाता है. ऐसा होने के बाद नीतीश की तरफ से कुछ दिनों की ढील मिल जाती है. मगर जैसे ही फिर दबाव बढ़ता है लालू एक और तरकीब लेकर आते हैं जिसमें पीएम उम्मीदवार के रूप में नीतीश के लिए विपक्ष की तरफ से कोशिश करते दिखते हैं.
कुछ घटनाओं ने दबाव बनाया तो दिल्ली चले आए, राजस्थान कांग्रेस के संकट ने पानी फेरा
उदाहरण के लिए अभी हाल ही में दलित छात्रों पर हमले और कुछ इलाकों में युवाओं की जघन्यतम हत्या के बाद विपक्ष के साथ-साथ गठबंधन के तमाम बड़े नेताओं ने सवाल उठाए. नीतीश पर दबाव बढ़ा और उनकी अंतरात्मा जोर मारे उससे पहले लालू उन्हें लेकर दिल्ली पहुंच गए सीधे सोनिया के पास. लालू ने सोचा होगा कि चलो एक आध महीने चीजें आराम से निकल जाएंगी. सोनिया से मिलकर लालू ने दहाड़ा भी- "हम कितनी बार दोहराए जी. 2024 में हम पटक दूंगा." लेकिन मुलाक़ात के बाद कुछ ही घंटों में राजस्थान कांग्रेस ने जो भसड मचाई- लालू का मन खराब हो गया होगा. उन्होंने सोचा था कि कम से कम सोनिया से मीटिंग के बहाने पीएम इन वेटिंग नीतीश पर चर्चा होगी और इस तरह वे एकाध महीने शांत रहेंगे.
हरियाणा में विपक्ष का जुटान भी हो गया जिसमें खुद नीतीश-तेजस्वी के अलावा शरद पवार भर दिखे. वह भी दबे मन से. बाकी जो नेता नजर आए उनका होना ना होना बराबर है. दक्षिण ने हाथ नहीं बढ़ाया और साथ दिख रहे क्षत्रप अपने खड़े होने की जमीन तलाश रहे हैं.
बाद बाकी जरूरत पड़ने पर आगे भी ऐसे कुछ ना कुछ करतब किए जाएंगे. कांग्रेस की यात्रा पूरी होने तक ऐसे करतबों से वक्त निकाला जा सकता है. क्योंकि कांग्रेस की तरफ से चीजें तभी क्लियर होंगी जब कश्मीर में भारत जोड़ो यात्रा ख़त्म होगी. हालांकि आसार बिल्कुल नहीं दिख रहे कि कांग्रेस उन्हें अपना नेता मान ही ले. कोई लॉजिक भी नजर नहीं आ रहा. राजद को इस बात से फर्क भी नहीं पड़ता कि कौन मोदी के आगे पीएम उम्मीदवार बने. राजद का पहला लक्ष्य किसी भी तरह बिहार में अपनी सरकार चलाते रहना है. भले ही वह पीएम की कुर्सी से नीतीश को तुष्ट करते हुए या भविष्य में कांग्रेस का साथ ही छोड़कर क्यों ना हो.
असल में देखें तो यात्रा राहुल गांधी नहीं कर रहे, बल्कि लालू ने नीतीश कुमार का जुलूस निकाला हुआ है. क्या बिहार के मुख्यमंत्री को यह बात समझ में नहीं आती कि वे 43 विधायकों का नेता बनकर उस पार्टी को अपने पीछे बुला रहे- जिसके विधायकों की संख्या देशभर में कम से कम 250 से ज्यादा होगी. यह कहना जल्दबाजी है, लेकिन कहीं ऐसा ना हो कि नीतीश 'पीएम इन वेटिंग' अवस्था से मोहभंग कर लें और बिल्लियों के भाग से छींका बिहार में भी फूट ही जाए. देखते रहिए. बिहार की राजनीति में राजस्थान से भी ज्यादा तीखा मसाला है.
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