रेल और हवाई यात्रा में जो सबसे बड़ा फर्क नजर आता है, वो है - 'जेबकतरों से सावधान' जैसे अलर्ट मैसेज एयरपोर्ट पर नजर नहीं आते. हादसों के हिसाब से भी हवाई सफर रेल के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित लगता है, लेकिन सबसे बड़ी राहत ये होती है कि कोई आपका वॉलेट छीन कर नहीं ले भागेगा या चेन स्नैचिंग जैसे खतरों को लेकर आप निश्चिंत रहते हैं.
बरसों बाद एक दिन के लिए पटना जाना हुआ था - और 24 घंटे में जो अनुभव हुआ उसमें ज्यादातर चीजें अच्छी ही लगीं. हालांकि, कुछ आवश्यक बुराइयां तो शाश्वत सत्य होती हैं - और फ्लाइट से बाहर निकलने के बाद एयरपोर्ट बिल्डिंग तक पैदल जाने में ऐसा महसूस भी हुआ.
ऐसा तो बिलकुल नहीं लगा कि किसी एयरपोर्ट पर हैं. बल्कि, लग रहा था जैसे किसी गांव के बाजार के बीच से होकर निकल रहे हैं. जहां एयरलाइन कंपनियों के ट्रैक्टर से बच कर कदम बढ़ाने पड़ रहे थे. कोई आगे से तो कोई पीछे से - और मजे की बात ये कि किसी को कोई दिक्कत भी नहीं महसूस हो रही थी. सभी लोग चले जा रहे थे और जैसे ही लगता कि ट्रैक्टर वाला धक्का न दे दे, तो किनारे रुक कर रास्ता दे देते रहे.
अंदर जाने पर तो और भी हैरान करने वाला सीन दिखा. बैगेज के लिए आगे बढ़ने से पहले ही लगा कि मच्छर उठा ले जाएंगे. मच्छरों का साम्राज्य तो हर जगह है, लेकिन अब तक किसी एयरपोर्ट पर ऐसा नजारा देखने को नहीं मिला था. हिम्मत पहले ही जवाब देने लगी थी. रात कैसे कटेगी समझ में नहीं आ रहा था.
जहां रात में रुकना था वहां सब कुछ ठीक लगा. घर में मच्छर नहीं थे क्योंकि एहतियाती इंतजाम किये गये थे और वे कारगर भी थे. तभी बिजली सप्लाई को लेकर मन में सवाल हुआ - पूछा तो पता चला पटना में बिजली व्यवस्था बेहतरीन है. अगर कहीं किसी वजह से कोई खराबी आयी तो कोई भी बिजली विभाग के अधिकारियों को सीधे फोन कर लेता है. फोन करने पर वो बताते हैं कि काम चल रहा है और कभी कभार को छोड़ कर अक्सर जल्दी ही ठीक भी हो जाता है.
ये सुन कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2020 के विधानसभा चुनावी रैलियों का भाषण याद आ...
रेल और हवाई यात्रा में जो सबसे बड़ा फर्क नजर आता है, वो है - 'जेबकतरों से सावधान' जैसे अलर्ट मैसेज एयरपोर्ट पर नजर नहीं आते. हादसों के हिसाब से भी हवाई सफर रेल के मुकाबले ज्यादा सुरक्षित लगता है, लेकिन सबसे बड़ी राहत ये होती है कि कोई आपका वॉलेट छीन कर नहीं ले भागेगा या चेन स्नैचिंग जैसे खतरों को लेकर आप निश्चिंत रहते हैं.
बरसों बाद एक दिन के लिए पटना जाना हुआ था - और 24 घंटे में जो अनुभव हुआ उसमें ज्यादातर चीजें अच्छी ही लगीं. हालांकि, कुछ आवश्यक बुराइयां तो शाश्वत सत्य होती हैं - और फ्लाइट से बाहर निकलने के बाद एयरपोर्ट बिल्डिंग तक पैदल जाने में ऐसा महसूस भी हुआ.
ऐसा तो बिलकुल नहीं लगा कि किसी एयरपोर्ट पर हैं. बल्कि, लग रहा था जैसे किसी गांव के बाजार के बीच से होकर निकल रहे हैं. जहां एयरलाइन कंपनियों के ट्रैक्टर से बच कर कदम बढ़ाने पड़ रहे थे. कोई आगे से तो कोई पीछे से - और मजे की बात ये कि किसी को कोई दिक्कत भी नहीं महसूस हो रही थी. सभी लोग चले जा रहे थे और जैसे ही लगता कि ट्रैक्टर वाला धक्का न दे दे, तो किनारे रुक कर रास्ता दे देते रहे.
अंदर जाने पर तो और भी हैरान करने वाला सीन दिखा. बैगेज के लिए आगे बढ़ने से पहले ही लगा कि मच्छर उठा ले जाएंगे. मच्छरों का साम्राज्य तो हर जगह है, लेकिन अब तक किसी एयरपोर्ट पर ऐसा नजारा देखने को नहीं मिला था. हिम्मत पहले ही जवाब देने लगी थी. रात कैसे कटेगी समझ में नहीं आ रहा था.
जहां रात में रुकना था वहां सब कुछ ठीक लगा. घर में मच्छर नहीं थे क्योंकि एहतियाती इंतजाम किये गये थे और वे कारगर भी थे. तभी बिजली सप्लाई को लेकर मन में सवाल हुआ - पूछा तो पता चला पटना में बिजली व्यवस्था बेहतरीन है. अगर कहीं किसी वजह से कोई खराबी आयी तो कोई भी बिजली विभाग के अधिकारियों को सीधे फोन कर लेता है. फोन करने पर वो बताते हैं कि काम चल रहा है और कभी कभार को छोड़ कर अक्सर जल्दी ही ठीक भी हो जाता है.
ये सुन कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के 2020 के विधानसभा चुनावी रैलियों का भाषण याद आ गया, "अटल जी कभी कहते थे कि बिहार में बिजली की परिभाषा ये है कि आती कम है... जाती ज्यादा है... लालटेन काल का अंधेरा अब छंट चुका है, लेकिन बिहार की आकांक्षा अब लगातार बिजली और एलईडी बल्ब की है." ये उसी रैली की बात है जिसमें प्रधानमंत्री मोदी ने आरजेडी नेता तेजस्वी यादव को जंगलराज का युवराज कहा था.
वास्तव में पटना की बिजली तो बनारस से भी बेहतर लगी. प्रधानमंत्री मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में 2014 से ही 24 घंटे बिजली की बात सुनते आये थे. तब यूपी में अखिलेश यादव की सरकार थी. लखनऊ और सैफई जैसे इलाकों की सूची में वाराणसी को भी जोड़ दिया गया था. बेशक गांवों तक की बिजली आपूर्ति में काफी सुधार हुआ है, लेकिन लोकल फॉल्ट के नाम बिजली कब चली जाएगी और लौटने में कितना देर लगाएगी, पटना की तरह बनारस और यूपी के लोग कम ही आश्वस्त नजर आये हैं.
जंगलराज के लिए तेजस्वी यादव कई बार माफी मांग चुके हैं, लेकिन वो किसी न किसी रूप में प्रकट हो ही जाता है. निश्चित तौर पर एयरपोर्ट के मच्छर किसी को अगवा नहीं कर सकते या रनवे के ट्रैक्टर चालक सरेआम किसी को गोली नहीं मार देते, लेकिन राह चलते परेशान तो करते ही हैं. हां, सड़के ज्यादातर शानदार हैं.
मिलाजुला अनुभव भी ज्यादातर बेहतर हो तो बेहतरीन ही माना जाना चाहिये क्योंकि आदर्श स्थिति तो कुदरत भी नहीं दे पाती - और हर व्यवस्था टीम वर्क का नतीजा होती है. बिहार में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कामकाज पर भी ये चीज लागू होती है.
ये तो हर कोई जानता है कि नीतीश कुमार (Nitish Kumar) की ताजा पारी काफी मुश्किलों भरी हो गयी है क्योंकि बीजेपी (BJP) नेतृत्व ने चुनावों से पहले ही ये प्लान कर लिया था - लेकिन ऐसा भी नहीं कि नीतीश कुमार घबराहट में सारा फ्रस्टेशन इधर उधर निकालने लगें. अब भी बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है. अगर शराबबंदी (Liquor Ban) को भूल कर नीतीश कुमार चाहें तो सुशासन पर फोकस कर सामने खड़ी चुनौतियों से आराम से उबर सकते हैं.
जंगलराज और सुशासन
नीतीश कुमार ने बिहार में सुशासन बाबू की छवि बना रखी है. लेकिन ये छवि इतनी नाजुक है कि श्रेष्ठता साबित करने के लिए हमेशा ही जंगलराज का नाम लेना ही पड़ता है. पहले चुनाव से लेकर 2020 तक. अब नीतीश कुमार को एक बार भी इतना भरोसा नहीं हुआ कि बगैर जंगलराज का नाम लेकर डराये वो सफल हो सकते हैं.
बीते बिहार चुनाव में भी नीतीश कुमार के सुशासन पर भरोसा दिलाने के लिए रांची जेल में बंद लालू यादव और राबड़ी देवी शासन की बार बार याद दिलानी पड़ी थी - और ये काम सिर्फ नीतीश कुमार ही नहीं, प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह भी ऐसा ही करते रहे. भले ही ताली और थाली बजा कर लालू यादव का परिवार अपना विरोध प्रकट करता रहा.
अंत भला तो सब भला - नीतीश कुमार यही बोल कर अपनी आखिरी चुनावी रैली खत्म की थी और तरह तरह से समझाये जाने के बाद बिहार के लोगों ने आखिरकार जेडीयू नेता के सुशासन को ही तरजीह दी. बीजेपी के मुकाबले जेडीयू की सीटें जरूर कम हो गयीं, लेकिन मुख्यमंत्री तो नीतीश कुमार ही बने.
लब्बोलुआब ये है कि ये सुशासन बाबू वाली ही नीतीश कुमार की छवि है जो उनका सरमाया है. बीजेपी नेतृत्व भी बार बार यही बताता रहा है कि बिहार में सुशासन नीतीश कुमार की बदौलत ही है - और नीतीश कुमार का यही सबसे मजबूत पक्ष भी है जो अब तक उनको बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बिठाये हुए है.
लेकिन नीतीश कुमार के हाल के बयानों से ये सवाल खड़ा होने लगा है कि क्या नीतीश कुमार भूल चुके हैं कि सुशासन बाबू कह कर उनको ही संबोधित किया जाता है!
हैरानी ठीक है, लेकिन अफवाह किसने फैलायी: नीतीश कुमार की बिहार से विदाई की खबरें मीडिया में आने पर जेडीयू नेता ओर बिहार सरकार में मंत्री संजय कुमार झा ने हैरानी जतायी है. संजय झा के दावे के मुताबिक, ये सब शरारत भरी हरकत और अफवाह मात्र है.
संजय झा ने अपनी ये हैरानी ट्विटर पर जतायी है. लिखते हैं, 'मैं इस अफवाह से हैरान हूं कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार राज्यसभा जाने पर विचार कर रहे हैं... ये शरारत और सच्चाई से बहुत दूर है.'
बहुत अच्छी बात है. ये कहने और बताने का उनका हक है. लेकिन ट्वीट करने से पहले क्या संजय झा ने एक बार ये समझने की कोशिश की कि इस शरारत के पीछे कौन है? ये अफवाह फैलाया किसने है?
ये तो नीतीश कुमार के मंत्री को भी मालूम होगा ही कि उनके मुख्यमंत्री ने ही अपने चेंबर में मीडिया के सवाल जवाब के दौरान अपने मन की बात शेयर की थी. और नीतीश कुमार कोई जीतनराम मांझी जैसे मुख्यमंत्री तो हैं नहीं कि कुछ भी बोल देंगे.
नीतीश कुमार के ज्यादातर राजनीतिक संदेश तो ऐसे ही होते हैं. वो तो जब पटना में बाढ़ से लोग बेहाल होते हैं तब भी खामोशी अख्तियार कर आगे बढ़ जाते हैं. मीडिया के सवालों की परवाह तक नहीं करते. वरना, न पूछे जाने पर भी जातीय जनगणना जैसे अपने मनमाफिक मुद्दों पर अपडेट देते रहते हैं. आखिर किसलिए जेडीयू के नेता नीतीश कुमार को चाणक्य बताते रहते हैं?
अब तक राज्य सभा सदस्य न होने की बात किसने कही थी? अगर नीतीश कुमार ने अपनी तरफ से ऐसा कुछ नहीं कहा होता तो ये खबर बाहर कैसे आती?
ये तो नीतीश कुमार पहले भी बताते रहे हैं कि कितनी मजबूरी में वो सरकार चला रहे हैं. शपथ लेने के बाद मंत्रिमंडल विस्तार को लेकर भी तो नीतीश कुमार ने देर की वजह भी तो ऐसी ही बतायी थी. नीतीश कुमार का कहना था कि जब उनके हाथ में सब होता रहा तो फटाफट कर देते रहे, लेकिन अब वो बात नहीं रही.
नीतीश कुमार ने राज्य सभा का जिक्र ऐसे वक्त किया जब कई सदस्य रिटायर हुए थे - और जल्द ही चुनाव कराए जाएंगे. बीजेपी नेतृत्व बिहार में अपना मुख्यमंत्री चाहता है ये तो जगजाहिर है. लगता नहीं कि ये सुन कर भी संजय झा को कोई हैरानी होनी चाहिये.
ऊपर से नीतीश कुमार के राज्य सभा की सदस्यता को लेकर जिक्र के बाद बीजेपी नेताओं के बयान भी आ जाते हैं. एक विधायक का कहना रहा कि नीतीश कुमार राज्य सभा जाएंगे तो मुख्यमंत्री बीजेपी का बनेगा. एक और विधायक का दावा है कि अभी तक बिहार में बीजेपी का दारोगा है, अगले सत्र तक एसपी बन जाएगा - अभी तो ऐसी हैरान करने वाली बातें आगे भी होती रहेंगी.
शराबबंदी के आगे जहां और भी है!
मोदी सरकार की नोटबंदी और नीतीश सरकार की शराबबंदी में मामूली फर्क ही लगता है. दोनों ही के फायदे नुकसान अपनी जगह हैं, लेकिन देखने में ये आया है कि नोटबंदी लागू करने से भी बीजेपी को चुनावों में कोई नुकसान नहीं हुआ और नीतीश कुमार को शराबबंदी से चुनावी फायदा जरूर मिला.
लेकिन जो सबसे बड़ा फर्क नजर आता है वो ये कि बीजेपी के किसी भी नेता के मुंह से अब नोटबंदी का नाम तक सुनने को नहीं मिलता - और नीतीश कुमार हैं कि शराबबंदी को सही साबित करने के लिए पूरी जिंदगी की राजनीतिक कमाई ही दांव पर लगा देने पर आमादा देखे जा रहे हैं.
ऐसा भी नहीं कि शराबबंदी को लेकर नीतीश कुमार के सिद्धांत शुरू से एक जैसे ही रहे हैं. ये वही नीतीश कुमार हैं जो कभी कहा करते थे कि जिसे पीना है पीये, जो पैसे मिलेंगे उसे उनकी सरकार लड़कियों को साइकिल बांटने में लगा देगी.
2012 में नीतीश कुमार ने ही कहा था, 'अगर आप पीना चाहते हैं तो पीजिये और टैक्स पे कीजिये... मुझे क्या? इससे फंड इकट्ठा होगा और उससे छात्राओं के लिए मुफ्त साइकिल की स्कीम जारी रहेगी.'
लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव से पहले अचानक नीतीश कुमार को राजनीतिक ज्ञान प्राप्त हुआ और चुनाव जीतने के बाद 2016 में बिहार में शराबबंदी कानून लागू कर दिये - लेकिन कानून बन जाने भर से अपराध तो रुकता नहीं, नतीजे तो तब मिलते हैं जब उसे तरीके से अमली जामा भी पहनाया जाये.
शराबबंदी लागू करने में जब आबकारी विभाग और पुलिस महकमा फेल हो जाता है तो शिक्षकों को लेटर भेजा जाता है. अभी मार्च, 2022 में ही विधानसभा में पूछ लिया गया तो शिक्षा मंत्री विजय चौधरी सवाल को ही बेतूका बता दिया, दावा किये कि ऐसा कोई आदेश जारी ही नहीं किया गया. कांग्रेस विधायक प्रेमचंद्र मिश्रा के सवाल पर मंत्री का जवाब सुन कर जेडीयू सदस्य संजीव सिंह ने याद दिलाया कि कैसे 28 जनवरी, 2022 को शिक्षा विभाग के अधिकारियों को शराबबंदी रोकने के लिए पत्र भेजा गया था. संजीव सिंह का कहना रहा, 'मैं मंत्री के जवाब को चुनौती देता हूं... पत्र को लेकर विभाग की तरफ से खंडन जारी किया जाना चाहिये.'
पीने वाले तो पी ही रहे हैं. जिसे जहां जो सुविधा मिल रही है, पूरा फायदा उठा रहा है. दूसरे राज्यों की सरहद से लगे इलाकों के लोगों को पर तो जैसे फर्क ही नहीं पड़ा है. बाकी इलाकों में सुविधा शुल्क की बदौलत आसानी से उपलब्ध है - ऐसे में नीतीश कुमार के पास रोक पाने का कोई ऑप्शन बचा हो, ऐसा लगता तो नहीं है.
ऊपर से सबसे बुरा असर ये हुआ है कि सीमांचल के इलाकों में नयी पीढ़ी ड्रग्स का शिकार होने लगी है. कुछ सर्वे और मीडिया रिपोर्ट से मालूम होता है कि ऐसे तमाम इलाकों के आम के बगीचों, बंद पड़ी स्कूली इमारत, ऐतिहासिक जगहों के आस पास और सुनसान जगहों पर. यहां तक कि श्मशानों के आस पास दुबले-पतले, कमजोर दिखने वाले नौजवान चलते फिरते सबूत लगते हैं. ऐसे नौजवानों की लाल लाल आंखे जमीनी हकीकत के किस्से खामोशी से सुना रही हैं - एक सर्वे के नतीजों के साथ न्यूज वेबसाइट द प्रिंट ने ऐसी ही चौंकाने वाली एक ग्राउंड रिपोर्ट छापी है.
और ऐसे हालात में कभी नीतीश कुमार कहते हैं कि 'पीयोगे तो मरोगे' ही - और देश भर में पीने वालों की भारतीयता पर सवाल उठाकर कह देते हैं - शराब पीने वाले 'महापापी' हैं.
भले ही कभी लालू यादव से हाथ मिला कर तो कभी बीजेपी के साथ गठबंधन कर नीतीश कुमार बिहार के मुख्यमंत्री बने रहे हैं, लेकिन तो वहां के लोग ही हैं उनको कुर्सी पर बिठाये रखा है, वरना पड़ोसी झारखंड में ही रघुबर दास को पैदल करते लोगों को जरा भी देर नहीं लगी. लोगों को जैसे तैसे तरह तरह के सपने दिखा कर कोई भी राजनीतिक दल कुछ दिन तो सत्ता पर काबिज रह सकता है, लेकिन अवाम के मुंह मोड़ने में वक्त नहीं लगता.
कोरोना संकट के दौरान लॉकडाउन के वक्त ये नीतीश कुमार ही रहे जो लोगों को बिहार न लौटने की सलाह देते रहे. जब किसी ने नहीं सुनी तो प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुख्यमंत्रियों की बैठक में कहने लगे कि लोगों की वापसी के लिए राष्ट्रीय स्तर पर कोई गाइडलाइन बननी चाहिये. तब नीतीश कुमार सबसे ज्यादा परेशान यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को लेकर दिखे क्योंकि अपने लोगों को घर पहुंचाने के लिए योगी आदित्यनाथ ने फटाफट दिल्ली की सीमाओं पर बसें भेज दी थी.
जैसे बिहार में बिजली व्यवस्था सुधारी गयी है, जैसे सड़कें बनवायी गयी हैं लोक कल्याण के लिए और भी काम किये जा सकते हैं. अगर शराबबंदी पर अमल करने में दिक्कतें आ रही हैं तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ेगा. आखिर प्रधानमंत्री मोदी ने कृषि कानूनों को वापस लिया कि नहीं?
जेडीयू मुख्यमंत्री को चाहिये कि वो जन कल्याण के कामों पर फोकस करें क्योंकि डार्विन का सरवाइवल ऑफ फिटेस्ट फॉर्मूला नीतीश कुमार पर भी उसी भाव से लागू होता है - वरना, आखिरी रास्ता तो यही है कि जैसे क्रिकेटर सही वक्त देख कर संन्यास की घोषणा कर देते हैं - नीतीश कुमार को भी वक्त रहते वही रास्ता अख्तियार करना चाहिये.
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