नीतीश कुमार (Nitish Kumar) जानते हैं कि चुनावों में कैसे उनके 15 साल के शासन की समीक्षा होने वाली है. तभी तो पहली ही डिजिटल रैली में नीतीश कुमार ने लालटेन बनाम बिजली की बहस शुरू करने की कोशिश की है. लालटेन आरजेडी का चुनाव निशान है और उसी के जरिये नीतीश कुमार 1990-2005 के लालू-राबड़ी शासन के दौरान हुए विकास की तस्वीर पेश करना चाहते हैं - और अपने 15 साल के लिए बिजली को सामने लाकर खड़ा कर रहे हैं. हालांकि, ये बहस नीतीश कुमार ने नहीं शुरू की है, बल्कि अमित शाह ने जून की अपनी डिजिटल रैली में ऐसा किया था.
जंगलराज के लिए तो तेजस्वी यादव कई बार माफी भी मांग चुके हैं, इसलिए नीतीश कुमार बिहार के लोगों को यही समझाना चाहते हैं कि अब उनको लालटेन की जरूरत नहीं रही - क्योंकि अब तो घर घर बिजली पहुंच चुकी है. ऐसा नीतीश कुमार का दावा है, बाकी रही हकीकत तो वो बिहार का बच्चा बच्चा जानता ही होगा.
नीतीश कुमार ने रैली के जरिये आरजेडी को कठघरे में खड़ा करते हुए मुस्लिम वोटों पर तो डेरा डाला ही, लेकिन ऐसा लगता है नीतीश कुमार का ज्यादा जोर दलित एजेंडे पर ही रहने वाला है. ये नीतीश कुमार का दलित एजेंडा ही है जिसकी वजह से एनडीए (NDA) में चिराग पासवान के तेवर कम नहीं पड़ रहे हैं.
नीतीश कुमार की डिजिटल रैली के वक्त ही दिल्ली में लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक चल रही थी - और पार्टी ने गठबंधन पर फैसले का अधिकार अध्यक्ष चिराग पासवान (Chirag Paswan) पर छोड़ दिया है - सवाल है कि तब क्या होगा जब चिराग पासवान बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले उतरने का फैसला करते हैं?
नीतीश और चिराग में तकरार तेज होने लगी है
नीतीश कुमार का दलित एजेंडा तो नहीं लेकिन उसे आगे बढ़ाने का तरीका लगता है बीजेपी को भी रास नहीं आ रहा है - और इसे चिराग पासवान के तेवर से साफ तौर पर समझा जा सकता है. दूसरी तरफ, चिराग पासवान के बयानों पर जेडीयू का रिएक्शन भी गौर करने लायक है. जेडीयू नेताओं की तरफ से बार बार कहा जाने लगा है कि उनका गठबंधन बीजेपी के साथ...
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) जानते हैं कि चुनावों में कैसे उनके 15 साल के शासन की समीक्षा होने वाली है. तभी तो पहली ही डिजिटल रैली में नीतीश कुमार ने लालटेन बनाम बिजली की बहस शुरू करने की कोशिश की है. लालटेन आरजेडी का चुनाव निशान है और उसी के जरिये नीतीश कुमार 1990-2005 के लालू-राबड़ी शासन के दौरान हुए विकास की तस्वीर पेश करना चाहते हैं - और अपने 15 साल के लिए बिजली को सामने लाकर खड़ा कर रहे हैं. हालांकि, ये बहस नीतीश कुमार ने नहीं शुरू की है, बल्कि अमित शाह ने जून की अपनी डिजिटल रैली में ऐसा किया था.
जंगलराज के लिए तो तेजस्वी यादव कई बार माफी भी मांग चुके हैं, इसलिए नीतीश कुमार बिहार के लोगों को यही समझाना चाहते हैं कि अब उनको लालटेन की जरूरत नहीं रही - क्योंकि अब तो घर घर बिजली पहुंच चुकी है. ऐसा नीतीश कुमार का दावा है, बाकी रही हकीकत तो वो बिहार का बच्चा बच्चा जानता ही होगा.
नीतीश कुमार ने रैली के जरिये आरजेडी को कठघरे में खड़ा करते हुए मुस्लिम वोटों पर तो डेरा डाला ही, लेकिन ऐसा लगता है नीतीश कुमार का ज्यादा जोर दलित एजेंडे पर ही रहने वाला है. ये नीतीश कुमार का दलित एजेंडा ही है जिसकी वजह से एनडीए (NDA) में चिराग पासवान के तेवर कम नहीं पड़ रहे हैं.
नीतीश कुमार की डिजिटल रैली के वक्त ही दिल्ली में लोक जनशक्ति पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक चल रही थी - और पार्टी ने गठबंधन पर फैसले का अधिकार अध्यक्ष चिराग पासवान (Chirag Paswan) पर छोड़ दिया है - सवाल है कि तब क्या होगा जब चिराग पासवान बिहार विधानसभा चुनाव में अकेले उतरने का फैसला करते हैं?
नीतीश और चिराग में तकरार तेज होने लगी है
नीतीश कुमार का दलित एजेंडा तो नहीं लेकिन उसे आगे बढ़ाने का तरीका लगता है बीजेपी को भी रास नहीं आ रहा है - और इसे चिराग पासवान के तेवर से साफ तौर पर समझा जा सकता है. दूसरी तरफ, चिराग पासवान के बयानों पर जेडीयू का रिएक्शन भी गौर करने लायक है. जेडीयू नेताओं की तरफ से बार बार कहा जाने लगा है कि उनका गठबंधन बीजेपी के साथ है, न कि एलजेपी के साथ.
नीतीश कुमार के दलितों को परिवार में हत्या होने की सूरत में नौकरी देने को लेकर तेजस्वी यादव और चिराग पासवान का रिएक्शन करीब करीब एक जैसा ही है. तेजस्वी ने भी दलितों को नौकरी के लिए हत्या होने के कंडीशन पर आपत्ति जतायी थी और हर वर्ग को रोजगार देने की बात कही थी. चिराग पासवान का भी कहना है कि एससी-एसटी ही नहीं बल्कि किसी वर्ग के व्यक्ति की हत्या न हो, ऐसे कठोर कदम उठाने की भी जरूरत है.
चिराग पासवान ने नीतीश कुमार पर दलितों के साथ वादाखिलाफी का आरोप लगाया है - और याद दिलाया है कि दलितों को जमीन देने का वादा नीतीश कुमार ने अब तक पूरा नहीं किया है.
नीतीश कुमार के दलित कार्ड का असर महागठबंधन पर भी पड़ा है. जीतनराम मांझी के एनडीए में आ जाने के बाद विकासशील इंसान पार्टी के नेता मुकेश साहनी ने भी नीतीश कुमार के फैसले का स्वागत किया है. अब तो वो नीतीश कुमार से अति पिछड़ी जातियों के लिए भी दलितों की तरह ही नौकरी देने की मांग कर रहे हैं. मुकेश साहनी का कहना है कि अति पिछड़ी जातियों की भी सामाजिक और आर्थिक स्थिति बिलकुल वैसी ही है. वैसे अभी ये नहीं मालूम कि मुकेश साहनी भी एनडीए को लेकर मन तो नहीं बना चुके हैं. अगर ऐसा होता है तो एनडीए में आने के बाद वो भी नीतीश कुमार की टोली में ही रहेंगे.
नीतीश कुमार के दलित कार्ड पर चिराग पासवान की प्रतिक्रिया को लेकर जेडीयू ने बड़े ही सख्त लहजे में एलजेपी नेता को आगाह किया है. जेडीयू महासचिव केसी त्यागी ने सलाह दी है कि चिराग पासवान को भद्दे बयानों से बचने की कोशिश करनी चाहिये. चिराग पासवान खुद को एनडीए का हिस्सा मानते हैं तो नीतीश कुमार के खिलाफ बयानबाजी न करें.
लगे हाथ केसी त्यागी ने चिराग पासवान को ये भी बता दिया है कि जेडीयू का बीजेपी के साथ गठबंधन है, एलजेपी के साथ नहीं. जीतनराम मांझी के साथ चिराग पासवान की नोंकझोंक पर केसी त्यागी का कहना है कि मांझी पहले ही एनडीए में रह चुके हैं - लेकिन अब चिराग पासवान को ऐतराज क्यों हो रहा है?
नीतीश नरम नहीं पड़े तो खैर नहीं!
नीतीश कुमार और चिराग पासवान दोनों की ही बीजेपी के साथ रिश्तों की डोर मजबूत है - और दोनों ही आपसी झगड़े में भी इस बात का पूरा ख्याल भी रख रहे हैं. बीजेपी को फायदा भी तो इसी में है कि दोनों आपस में लड़ते रहें. हालांकि, बीजेपी के लिए ये लड़ाई तभी तक अच्छी है जब तक झगड़े से उसे किसी तरह का नुकसान न हो.
गौर करने वाली बात ये है कि चिराग पासवान ने अभी तक अकेले चुनाव लड़ने की बात ही कही है - महागठबंधन ज्वाइन करने की नहीं. चिराग पासवान की तरफ से एक अंतर ये आया है कि पहले वो बिहार विधानसभा की सभी 243 सीटों पर लड़ने की बात कर रहे थे अब 143 की ही बात हो रही है. ऐसा लगता है कि ये 100 सीटें बीजेपी की हैं जिनसे एलजेपी दूरी बना कर चल रही है. चिराग पासवान ने हो सकता है 143 सीटों को लेकर ये मान कर चल रहे हों कि ये तो बीजेपी ने जेडीयू, एलजेपी और जीतनराम मांझी की पार्टी के लिए छोड़ने वाली है.
ये सब तो यही समझा रहा है कि चिराग पासवान अगर अकेले चुनाव मैदान में उतरने का फैसला करते हैं तो उन सीटों पर अपने उम्मीदवार तो खड़े करेंगे ही जिन पर उनकी एनडीए में रह कर भी दावेदारी बनती है. साथ ही, जेडीयू के हिस्से में आने वाली सीटों पर भी वो अपने उम्मीदवार उतारने के बारे में सोच रहे लगते हैं.
देखा जाये तो नीतीश कुमार जितने विकल्प चिराग पासवान के पास नहीं हैं. नीतीश कुमार चाहें तो एक बार महागठबंधन में लौट भी सकते हैं, लेकिन चिराग पासवान के लिए तो बीजेपी के बगैर राजनीतिक संकट ही खड़ा हो जाएगा. ये ठीक है कि चिराग पासवान की पार्टी ने लोक सभा चुनाव में 6 सीटें जीते हैं, लेकिन रामविलास पासवान को बीजेपी ने ही राज्य सभा भेजा है और मोदी सरकार में मंत्री भी बनाया हुआ है. नीतीश कुमार का चिराग पासवान चाहे जितना भी विरोध करें, लेकिन बीजेपी से दूर होने की हिम्मत नहीं जुटाना भी मुश्किल है. अगर कांग्रेस के कहीं कोई सत्ता में आने की संभावना होती तो पासवान पिता-पुत्र के पास विकल्प भी होता - बीजेपी ने फिलहाल तो सभी के लिए विकल्प खत्म कर रखे हैं.
लोक सभा की बात और है, लेकिन बिहार विधानसभा में एलजेपी और जीतनराम मांझी की हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा में कोई खास फर्क नहीं है. अगर चिराग पासवान की पार्टी के दो विधायक हैं तो जीतनराम मांझी की पार्टी का भी एक विधायक है. चिराग पासवान के दलितों में जनाधार को ऐसे समझा जा सकता है कि एलजेपी के दोनों विधायक भी दलित समुदाय से नहीं हैं. फिर तो ये भी कहा जा सकता है कि लोक सभा का चुनाव चिराग पासवान की पार्टी मोदी लहर की बदौलत जीतती है और विधानसभा का चुनाव एनडीए की वजह से.
अव्वल तो अभी ऐसा कोई चांस नजर नहीं आ रहा है कि चिराग पासवान इस हद तक भी जा सकते हैं कि वो नीतीश कुमार के साथ सीधे मैदान में दो-दो हाथ करने का फैसला करें, लेकिन किन्हीं वजहों से ऐसा होता है तो ये नीतीश कुमार के लिए खतरनाक साबित हो सकता है. ऐसी सूरत में नीतीश कुमार को चिराग पासवान की वजह से अगर दर्जन भर सीटों का भी नुकसान हो जाता है तो सीधा फायदा बीजेपी को ही मिलेगा.
बीजेपी ये तो मान कर चल रही है कि नीतीश कुमार के साथ मिल कर वो चुनाव तो जीतेगी ही, आरजेडी को भी कम से कम सीटों पर रोक देगी, लेकिन बीजेपी हर हाल में नीतीश कुमार से ज्यादा सीटें जीतने की कोशिश करेगी. साथ ही, बीजेपी की कोशिश होगी कि आरजेडी को उतनी सीटें तो किसी भी सूरत में न मिल पायें कि नीतीश कुमार कभी शिवसेना की तरह गठबंधन तोड़ कर महागठबंधन के साथ सरकार बना लें.
नीतीश कुमार को काबू में रखने के इस पूरे खेल में चिराग पासवान बीजेपी के चाबुक बने हुए हैं - और नीतीश कुमार भी ये जानते हैं कि अगर ज्यादा चालाकी दिखायी तो बीजेपी को लगाम कसते देर नहीं लगेगी. ऐसी हालत में अब नीतीश कुमार को भी कोशिश करनी होगी कि चिराग पासवान कहीं एनडीए छोड़ कर अकेले चुनाव लड़ने का फैसला न ले लें - अगर ऐसा हुआ तो ये नीतीश कुमार के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है.
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