नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के सामने दिल्ली में अब तक ऐसी कोई चुनौती नजर नहीं आयी है जो ममता बनर्जी झेल चुकी हैं. राहुल गांधी से लेकर शरद पवार तक तो वो मिल ही चुके हैं, मेदांता अस्पताल जाकर मुलायम सिंह यादव का भी हालचाल पूछ चुके हैं - और अस्पताल से बाहर आकर अखिलेश यादव के साथ जो कहा है वो तो विपक्ष के उज्ज्वल भविष्य की राह ही दिखा रहा है.
पश्चिम बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के दिल्ली पहुंचते ही विपक्षी खेमे में जबरदस्त गुटबाजी देखने को मिली थी. पहले से बातचीत हो जाने के बावजूद ममता बनर्जी विपक्षी दलों की कोई मीटिंग नहीं बुला सकीं - और शरद पवार ने तो मिलने के लिए टाइम तक नहीं दिया.
तब ये देखने को मिला था कि ममता बनर्जी के दिल्ली पहुंचते ही राहुल गांधी खासे एक्टिव हो गये थे और ताबड़तोड़ विपक्षी दलों के नेताओं को बुलाकर मीटिंग करने लगे थे. ब्रेकफास्ट से लेकर लंच तक. मजबूरन ममता बनर्जी को अलग अलग विपक्ष के नेताओं से मिलना पड़ा - काफी निराश होकर कोलकाता लौटना पड़ा था.
लेकिन नीतीश ने तो वो सब होने ही नहीं दिया. दिल्ली पहुंचते ही सबसे पहले राहुल गांधी से मिल लिये. राहुल गांधी को विपक्षी नेता कितना भाव देते हैं, सबको मालूम है - नीतीश कुमार ने सबसे पहले मिल कर उनको खुश होने का ख्याल दे दिया कि बड़े नेता तो वही हैं - और फिर बाकी नेताओं से मिलते रहे.
विपक्ष की मीटिंग तो नीतीश कुमार के लिए भी नहीं बुलायी गयी, लेकिन 25 सितंबर को हरियाणा में जो रैली होने जा रही है वो बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के खिलाफ बड़ा जमावड़ा माना जा सकता है - और मुद्दे की बात भी यही है कि विपक्ष की असली तस्वीर भी तभी समझ में आएगी. ये भी तभी...
नीतीश कुमार (Nitish Kumar) के सामने दिल्ली में अब तक ऐसी कोई चुनौती नजर नहीं आयी है जो ममता बनर्जी झेल चुकी हैं. राहुल गांधी से लेकर शरद पवार तक तो वो मिल ही चुके हैं, मेदांता अस्पताल जाकर मुलायम सिंह यादव का भी हालचाल पूछ चुके हैं - और अस्पताल से बाहर आकर अखिलेश यादव के साथ जो कहा है वो तो विपक्ष के उज्ज्वल भविष्य की राह ही दिखा रहा है.
पश्चिम बंगाल चुनाव जीतने के बाद ममता बनर्जी (Mamata Banerjee) के दिल्ली पहुंचते ही विपक्षी खेमे में जबरदस्त गुटबाजी देखने को मिली थी. पहले से बातचीत हो जाने के बावजूद ममता बनर्जी विपक्षी दलों की कोई मीटिंग नहीं बुला सकीं - और शरद पवार ने तो मिलने के लिए टाइम तक नहीं दिया.
तब ये देखने को मिला था कि ममता बनर्जी के दिल्ली पहुंचते ही राहुल गांधी खासे एक्टिव हो गये थे और ताबड़तोड़ विपक्षी दलों के नेताओं को बुलाकर मीटिंग करने लगे थे. ब्रेकफास्ट से लेकर लंच तक. मजबूरन ममता बनर्जी को अलग अलग विपक्ष के नेताओं से मिलना पड़ा - काफी निराश होकर कोलकाता लौटना पड़ा था.
लेकिन नीतीश ने तो वो सब होने ही नहीं दिया. दिल्ली पहुंचते ही सबसे पहले राहुल गांधी से मिल लिये. राहुल गांधी को विपक्षी नेता कितना भाव देते हैं, सबको मालूम है - नीतीश कुमार ने सबसे पहले मिल कर उनको खुश होने का ख्याल दे दिया कि बड़े नेता तो वही हैं - और फिर बाकी नेताओं से मिलते रहे.
विपक्ष की मीटिंग तो नीतीश कुमार के लिए भी नहीं बुलायी गयी, लेकिन 25 सितंबर को हरियाणा में जो रैली होने जा रही है वो बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के खिलाफ बड़ा जमावड़ा माना जा सकता है - और मुद्दे की बात भी यही है कि विपक्ष की असली तस्वीर भी तभी समझ में आएगी. ये भी तभी साफ हो पाएगा कि नीतीश कुमार भी ममता बनर्जी की तरह हाथ पांव मार कर बैठ जाते हैं या 2024 के आम चुनाव तक राष्ट्रीय राजनीति के चाणक्य बने रहते हैं?
सबका साथ, सबका विकास
सबका साथ, सबका विकास वैसे तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्लोगन है, लेकिन लगता है नये नये उनके दुश्मन बने नीतीश कुमार उनके खिलाफ आजमाने जा रहे हैं - दरअसल, नीतीश कुमार जिस तरीके से पूरे विपक्ष को साथ लेकर चलने की कोशिश कर रहे हैं, वो अपनेआप में मिसाल है.
जैसे ममता बनर्जी के दिल्ली कैंप को उनके भतीजे और तृणमूल कांग्रेस महासचिव अभिषेक बनर्जी तब होस्ट कर रहे थे, नीतीश कुमार के लिए ये सब जेडीयू महासचिव केसी त्यागी कर रहे हैं. नीतीश कुमार के प्रयासों को लेकर जो बात केसी त्यागी बता रहे हैं वो बड़ी बात है, नीतीश कुमार की राजनीति यानी 'विपक्षी एकता' की मुहिम में किसी तरह की कोई पॉलिटिकल अनटचेबिलिटी नहीं है - कहते हैं, नीतीश कुमार की विपक्षी एकता की राजनीति में सभी के लिए जगह है. बस एक ही शर्त है, वो बीजेपी के खिलाफ खड़ा होने को तैयार हो.
अब तक की विपक्षी एकजुटता के सारे ही प्रयासों में यही देखने को मिला है कि हर बार किसी न किसी के साथ अछूत जैसा व्यवहार होता रहा है. राजनीति के इस छुआछूत के सबसे ज्यादा शिकार तो आम आदमी पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल हुए हैं.
ममता बनर्जी को ही लें तो उनको कांग्रेस से परहेज करते देखा गया था. दिल्ली में न मिल पाने के बाद भी जब शरद पवार से मिलने ममता बनर्जी मुंबई गयीं तो भी कांग्रेस को विपक्षी खेमे से बाहर रखने की जिद कर रही थीं. मुलाकात के बाद आपको याद होगा यूपीए के अस्तित्व पर ही सवाल उठा दिया था. बाद में जब ममता बनर्जी को साफ हो गया कि शरद पवार नहीं मानने वाले तो उपराष्ट्रपति चुनाव आते आते उनसे भी नाता तोड़ लिया.
अरविंद केजरीवाल की अलग ही थ्योरी है. राष्ट्रपति चुनाव को छोड़ दें तो 2019 के बाद तो वो किसी से न तो गठबंधन की बात करते हैं, न ही विपक्ष के साथ मिल कर चलने को तैयार लगते हैं. विपक्ष का साथ देने के नाम पर बस वो राष्ट्रपति चुनाव में दो बार से विपक्ष के उम्मीदवार को वोट देते आ रहे हैं - देखा जाये तो अरविंद केजरीवाल विपक्षी एकता के मामलों में सभी से परहेज करते नजर आ रहे हैं.
वो एमके स्टालिन के साथ खड़े देखे जा सकते हैं, लेकिन तभी जब वो दिल्ली के स्कूलों और मोहल्ला क्लिनिक देखने आ रहे हों. ठीक वैसे ही वो दिल्ली ही नहीं बल्कि के. चंद्रशेखर राव के साथ तो पंजाब में भी नजर आते हैं - लेकिन विपक्ष के साथ मिल कर 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने को तैयार नहीं हैं. जब पूछा जाता है तो कहते हैं, मुझसे स्कूल बनवा लो, अस्पताल बनवा लो लेकिन इस तरह की राजनीति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है. ये सवाल ममता बनर्जी की गतिविधियों के संदर्भ में ही पूछा गया था और केजरीवाल का कहना था कि इस मुद्दे पर उनकी कोई बातचीत नहीं होती.
राष्ट्रपति चुनाव से पहले ये मान सम्मान ममता बर्जी को ही मिल रहा था, लेकिन जिस तरीके से टीएमसी नेता ने दूरी बना ली है, थोड़ा संदेह हो रहा है और इसका लाभ नहीं बल्कि नुकसान उनको हो सकता है.
ममता के सीन से हटते ही नीतीश कुमार ने वो जगह ले ली है, लेकिन नीतीश कुमार के पूर्वाग्रहग्रस्त न होने से उनके संपर्क का दायरा काफी विस्तृत नजर आ रहा है. और वो भी तेजी से अपने मिशन में लगे नजर आ रहे हैं - दिल्ली में नीतीश कुमार से ताबड़तोड़ मुलाकातें की हैं.
दिल्ली पहुंचते ही नीतीश कुमार ने राहुल गांधी से मुलाकात की. फिर अरविंद केजरीवाल, सीपीएम नेता सीताराम येचुरी, सीपीआई नेता डी. राजा, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, उनके बेटे और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी के साथ साथ INLD नेता ओम प्रकाश चौटाला से तो मिले ही - मुलायम सिंह से मिलने के लिए अस्पताल पहुंच गये जहां अखिलेश यादव से भी उनकी मुलाकात हुई.
निर्गुट नेताओं का रुख कैसा रहेगा: अब तक की मुलाकातों से तो नीतीश कुमार सही दिशा में ही आगे बढ़ते नजर आ रहे हैं, लेकिन असली परीक्षा ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी के रुख से ही मालूम होगा.
यूपीए पर ममता बनर्जी के सवाल उठाने से पहले शिवसेना सांसद संजय राउत भी अपनी सलाह दे चुके थे. ये तब की बात है जब संजय राउत, शरद पवार को यूपीए की कमान सौंप देने की पैरवी कर रहे थे. तभी वो नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी जैसे नेताओं के यूपीए में न होने का मुद्दा भी उठा रहे थे - और एक ऐसे फोरम की सलाह दे रहे थे जिसमें पूरा विपक्ष एक साथ खड़ा हो.
बाकी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन बड़ा सवाल ये है कि क्या नवीन पटनायक और जगनमोहन रेड्डी बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ खड़े होने को तैयार भी होंगे?
विपक्षी नेताओं का अब तक का सबसे बड़ा जमावड़ा 2019 के आम चुनाव से पहले बेंगलुरू में एचडी कुमारस्वामी के शपथग्रहण के मौके पर देखने को मिला था. ज्यादतर नेताओं को एक दूसरे के साथ हंसते मुस्कुराते देखा गया था, लेकिन नवीन पटनायक वहां भी नजर नहीं आये थे.
उसी के बाद हुए राज्य सभा उपसभापति के चुनाव में नवीन पटनायक ने हरिवंश नारायण सिंह का समर्थन किया था. हरिवंश वैसे तो नीतीश कुमार की पार्टी जेडीयू से राज्य सभा सांसद हैं, लेकिन उपसभापति के चुनाव में वो एनडीए के उम्मीदवार थे - और माना जाता है कि नीतीश कुमार के साथ पुराने संबंधों की वजह से ही नवीन पटनायक ने सपोर्ट किया था. हालांकि, ज्यादातर मामलों में नवीन पटनायक को मोदी सरकार के साथ ही खड़े देखा गया है.
क्या नीतीश कुमार ऐसे नेताओं को भी विपक्षी खेमे का एक्टिव सदस्य बना पाने में कामयाब हो सकेंगे जो निर्गुट रहते हुए भी एनडीए के साथ नजर आते हैं?
यूपी में तो नयी राह ही दिखा दी है
एक बात तो माननी पड़ेगी, यूपी की राजनीति को लेकर नीतीश कुमार ने जो बयान दिया है, वो विपक्षी एकता की ऐसी राह दिखा रहा है जो बीजेपी को शिकस्त देने का अब तक का सबसे मजबूत तरीका लगता है.
नीतीश कुमार असल में समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव से मिलने गुरुग्राम के अस्पताल गये थे. बताते हैं कि अस्पताल के ही एक कमरे में अखिलेश यादव के साथ भी घंटे भर की मुलाकात हुई. मुलाकात के बाद नीतीश कुमार और अखिलेश यादव दोनों साथ बाहर आये. फिर नीतीश कुमार ने जो बताया वो तो ऐसा ही लगता है जैसे विपक्षी एकता में सबसे बड़ा रोड़ा खत्म करने वाला है.
नीतीश कुमार ने शुरुआत कुछ इस तरह की कि हम लोगों का लक्ष्य तो एक ही है... सबको मिलकर आगे बढ़ना है. जब अखिलेश यादव को लेकर मीडिया ने सवाल किया तो नीतीश कुमार के कहने का मतलब तो यही लगा कि देश में महागठबंधन खड़ा होने की सूरत में यूपी में नेता अखिलेश यादव ही होंगे. नीतीश कुमार बोले, 'अखिलेश यादव यूपी का आगे नेतृत्व करेंगे.' दोनों नेताओं के बीच क्या बातें हुईं, ये तो अखिलेश यादव ने नही बताया मगर इतना जरूर बताया कि नीतीश कुमार की मुहिम में वो भी साथ हैं.
अब अगर नीतीश कुमार की बातों का राजनीतिक मतलब निकालें तो यही समझ में आता है कि जिस मुद्दे पर 2019 से अब तक विपक्षी खेमे में सहमति नहीं बन पा रही थी, नीतीश कुमार वो बाधा पार कर चुके हैं. अगर ऐसा न होता तो इतनी बड़ी बात नीतीश कुमार जैसा नेता शायद ही खुलेआम बोलता.
सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी से बातचीत में नीतीश कुमार अपने स्टैंड को लेकर अप्रूवल ले चुके हैं? क्या यूपी में अखिलेश यादव का नेतृत्व राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को मंजूर होगा?
2019 के आम चुनाव से पहले बीजेपी के कुछ सीनियर और असंतुष्ट नेताओं ने विपक्ष को एकजुट होकर मोदी-शाह को शिकस्त देने का कुछ ऐसा ही फॉर्मूला सुझाये थे - और कांग्रेस के उदयपुर चिंतन शिविर के बाद जब राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों की विचारधारा कमेंट किया था तब भी ऐसे ही सुझाव आये थे.
आरजेडी नेता मनोज झा का कहना रहा कि राज्यों में राहुल गांधी कांग्रेस को सहयोगी की भूमिका में रखें और क्षेत्रीय नेताओं को ड्राइविंग सीट पर रहने दें. मनोज झा वैसे तो बिहार को लेकर समझाने की कोशिश कर रहे थे कि वो तेजस्वी यादव को ही नेता रहने दें - हालांकि, ये तब की बात है जब नीतीश कुमार महागठबंधन के नेता नहीं बने थे.
अब अगर नीतीश कुमार कांग्रेस को इस बात के लिए तैयार कर लेते हैं कि जहां जहां वो मजबूत है ड्राइविंग सीट पर बनी रहे. राष्ट्रीय स्तर पर भी नेतृत्व करे, लेकिन राज्यों में जहां क्षेत्रीय नेताओं का जनाधार है, कांग्रेस महज सहयोगी की भूमिका में बनी रहे.
फर्ज कीजिये नीतीश कुमार ऐसा कर लेते हैं तो ये बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह के लिए मुश्किलों भरा हो सकता है - और अगर चौधरी देवीलाल की जन्मदिन पर 25 सितंबर की विपक्ष की रैली में ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल दोनों पहुंच जाते हैं तो ये नीतीश कुमार के लिए बहुत बड़ी उपलब्धि होगी.
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