यूपी विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी सभी 403 सीटों पर अकेले मैदान में है. उसकी योजना समीकरणों के सहारे एक बार फिर यूपी की सत्ता हासिल करना है. मायावती के नेतृत्व में पार्टी ने विधानसभा चुनाव के लिए तगड़ी किलेबंदी की है. हालांकि यह उस तरह नहीं दिख रहा जैसी किलेबंदी दूसरी पार्टियों की नजर आती है. बसपा ने नए तौर तरीकों पर काम शुरू किया है बावजूद उसे पुरानी प्रक्रिया ज्यादा पसंद आ रही है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बसपा के काडर की गैरमौजूदगी या खामोश होने की वजह से उसके खिलाफ एक नैरेटिव भी चल रहा है. उसे भाजपा की 'बी' टीम करार दिया जा रहा है. बहुजन आंदोलनों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट और राजनीतिक विश्लेषक कुश अंबेडकरवादी इसे विपक्षी करतूत मानते हैं.
कुश अंबेडकरवादी ने कहा- यह नैरेटिव सिर्फ मुसलमानों को बसपा में जाने से रोकने के लिए हमेशा से चलाया जाता रहा है. विपक्ष को मालूम है कि बसपा के पास सबसे बड़ा वोट बैंक है और उसमें मुसलमानों का जुड़ना, भाजपा के खिलाफ किसी भी राजनीतिक लड़ाई में उसे अन्य विपक्षी दलों से बहुत आगे कर देता है. दलित और मुसलमान दो ऐसा मतदाता वर्ग हैं जो उत्तर प्रदेश में किसी भी विधानसभा के नतीजे को पूरी तरह बदलने की क्षमता रखते हैं. खासकर पश्चिम में तो यह एकतरफा 'विनिंग फ़ॉर्मूला' है. कुश ने आरोप लगाया कि नैरेटिव कांग्रेस की शह पर चलता है और जबरदस्त फायदा मिलने की वजह से सपा चुप्पी साध लेती है.
भाजपा को हराने के लिए बसपा को सिर्फ मुसलमान चाहिए
कुश कहते हैं- अगर पश्चिम की बात करें तो भाजपा को हराने के लिए सपा को जाट, मुसलमान, ओबीसी सभी के हिस्से की जरूरत पड़ती है. पिछले नतीजे भी बताते हैं कि मुसलमान ने ईमानदारी से एकतरफा सपा को वोट दिया बावजूद सपा हार गई. ऐसा इसलिए हुआ कि मुसलमानों के अलावा उसे दूसरे समाजों के वोट ही नहीं मिले. जबकि पश्चिम में ज्यादातर सीटों पर 20 से 25 प्रतिशत दलित के साथ सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत मुसलमानों का आ जाना ही जीत की गारंटी है. कुश का दावा है कि इस बार जमीन पर बसपा की सोशल...
यूपी विधानसभा चुनाव में बहुजन समाज पार्टी सभी 403 सीटों पर अकेले मैदान में है. उसकी योजना समीकरणों के सहारे एक बार फिर यूपी की सत्ता हासिल करना है. मायावती के नेतृत्व में पार्टी ने विधानसभा चुनाव के लिए तगड़ी किलेबंदी की है. हालांकि यह उस तरह नहीं दिख रहा जैसी किलेबंदी दूसरी पार्टियों की नजर आती है. बसपा ने नए तौर तरीकों पर काम शुरू किया है बावजूद उसे पुरानी प्रक्रिया ज्यादा पसंद आ रही है. सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर बसपा के काडर की गैरमौजूदगी या खामोश होने की वजह से उसके खिलाफ एक नैरेटिव भी चल रहा है. उसे भाजपा की 'बी' टीम करार दिया जा रहा है. बहुजन आंदोलनों के लिए काम करने वाले एक्टिविस्ट और राजनीतिक विश्लेषक कुश अंबेडकरवादी इसे विपक्षी करतूत मानते हैं.
कुश अंबेडकरवादी ने कहा- यह नैरेटिव सिर्फ मुसलमानों को बसपा में जाने से रोकने के लिए हमेशा से चलाया जाता रहा है. विपक्ष को मालूम है कि बसपा के पास सबसे बड़ा वोट बैंक है और उसमें मुसलमानों का जुड़ना, भाजपा के खिलाफ किसी भी राजनीतिक लड़ाई में उसे अन्य विपक्षी दलों से बहुत आगे कर देता है. दलित और मुसलमान दो ऐसा मतदाता वर्ग हैं जो उत्तर प्रदेश में किसी भी विधानसभा के नतीजे को पूरी तरह बदलने की क्षमता रखते हैं. खासकर पश्चिम में तो यह एकतरफा 'विनिंग फ़ॉर्मूला' है. कुश ने आरोप लगाया कि नैरेटिव कांग्रेस की शह पर चलता है और जबरदस्त फायदा मिलने की वजह से सपा चुप्पी साध लेती है.
भाजपा को हराने के लिए बसपा को सिर्फ मुसलमान चाहिए
कुश कहते हैं- अगर पश्चिम की बात करें तो भाजपा को हराने के लिए सपा को जाट, मुसलमान, ओबीसी सभी के हिस्से की जरूरत पड़ती है. पिछले नतीजे भी बताते हैं कि मुसलमान ने ईमानदारी से एकतरफा सपा को वोट दिया बावजूद सपा हार गई. ऐसा इसलिए हुआ कि मुसलमानों के अलावा उसे दूसरे समाजों के वोट ही नहीं मिले. जबकि पश्चिम में ज्यादातर सीटों पर 20 से 25 प्रतिशत दलित के साथ सिर्फ 15 से 20 प्रतिशत मुसलमानों का आ जाना ही जीत की गारंटी है. कुश का दावा है कि इस बार जमीन पर बसपा की सोशल इंजीनियरिंग सपा गठबंधन के साथ ही भाजपा के लिए भारी पड़ने वाली है. फरवरी में मायावती पश्चिम से जो अभियान शुरू करने जा रही हैं वह बसपा के खिलाफ तमाम नैरेटिव की हवा निकालने में जरूर कामयाब होगा.
इसमें कोई शक नहीं कि पश्चिम में बसपा की सोशल इंजीनियरिंग से विपक्ष की नींद तो उड़ी ही है भाजपा को भी जूझना पड़ सकता है. सपा ने मुस्लिम प्रत्याशियों से बचने की कोशिश की. लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने अल्पसंख्यकों को जमकर टिकट बांटे हैं. बसपा के मुस्लिम प्रत्याशियों की वजह से ज्यादातर सीटों पर भाजपा के खिलाफ सपा गठबंधन बैकफुट पर है. खासकर पश्चिम में. बसपा ने अब तक 232 उम्मीदवारों की लिस्ट जारी की है (30 जनवरी तक). इसमें सबसे ज्यादा भागीदारी मुस्लिम समाज की है जो सपा गठबंधन के मुकाबले संख्या में बहुत ज्यादा है. अब तक बसपा के घोषित 232 उम्मीदवारों में 24 प्रतिशत मुसलमान, 24 प्रतिशत सवर्ण, 27 प्रतिशत ओबीसी और 24 प्रतिशत दलित चेहरे हैं. इसमें भी पश्चिम के पहले और दूसरे चरण में बसपा के 30 उम्मीदवार हैं.
भाजपा को रोकने के लिए जाट-ओबीसी दबाव में फंस गई सपा
नतीजे जो भी हों, मगर भाजपा से लड़ाई में जाट और ओबीसी मतों के दबाव की वजह से सपा गठबंधन जिन चीजों से बचता नजर आया, बसपा ने उन्हीं पर बोल्ड और आक्रामक रुख दिखाया है. पार्टी को दलित वोट बैंक पर भरोसा है और इस बार अन्य वोटिंग ब्लॉक को साथ जोड़कर 2007 जैसे नतीजे निकालने की उम्मीद है. पश्चिम में पार्टी चुनावी रहनीति के तहत मुसलमान भागीदारी के साथ एक ऐसा गठजोड़ तो बना ही लिया है जो कम से कम अभी तमाम सीटों पर समीकरण के हिसाब से निर्णायक नजर आ रहा है.
यूपी चुनाव के लिए बसपा की तैयारी क्या है?
बसपा के दूसरे सूत्रों से जो पता चला वह साफ़ संकेत है कि पार्टी भले चुनाव में बहुमत लाने का दावा करे मगर फिलहाल तो उसकी कोशिशें किसी भी तरह 100 के आंकड़े को पार करना और भाजपा से मुकाबले में सपा को पीछे छोड़ना है. 100 के पार जाने की जद्दोजहद बसपा की रणनीति में नजर भी आती है. इसके लिए बसपा की योजनाओं को चार बिंदुओं में समझा जा सकता है.
1) पार्टी का मकसद पश्चिम में दलित-मुस्लिम गठजोड़ से मुस्लिम बहुल सीटों को जीतना है. करीब तीन दर्जन से ज्यादा ऐसी सीटें हैं जहां मुस्लिम मतदाता निर्णायक हैं. पार्टी ने यहां ज्यादातर उन्हीं के समाज को मैदान में उतारा है. मुजफ्फरनगर जिले में एक भी सीट पर सपा गठबंधन की ओर से कोई मुस्लिम चेहरा नहीं है. सपा एके वाक ओवर की वजह से बसपा के मुस्लिम प्रत्याशी फायदा उठा रहे हैं. यह बसपा को दूसरे इलाकों में भी भाजपा के खिलाफ सीधे-सीधे एज दे रहा है.
2) जो सीटें मुस्लिम बहुल नहीं हैं, वहां सवर्ण और ओबीसी समाज की भागीदारी के साथ सोशल इंजीनियरिंग का फ़ॉर्मूला तैयार किया गया है. पार्टी को भरोसा है कि जिस तरह मुसलमानों को टिकट दिया गया- भाजपा को हराने के लिए उनका एक बड़ा हिस्सा अन्य सीटों पर पार्टी के झंडे के नीचे आएगा. ये वो सीटें हैं जहां बसपा के टिकट पर ओबीसी और सवर्ण (खासकर ब्राह्मण) प्रत्याशी मैदान में हैं.
3) सुरक्षित सीटों के लिए मायावती ने अलग योजना बनाई है. राज्य में 85 विधानसभा सीटें आरक्षित हैं. सीधे सतीश चंद्र मिश्र को जिम्मेदारी दी गई है. मायावती की योजना है कि ऐसी सीटों पर दलित समाज की बजाय दूसरे समाज के मतदाता निर्णायक हैं. अगर सतीश मिश्रा की वजह से सवर्ण खासकर ब्राह्मणों का झुकाव बसपा की ओर हो जाए तो यहां भाजपा के खिलाफ सपा की तुलना में बसपा आगे दिखेगी. मुस्लिम वोट पैटर्न से बसपा ये सीटें जीत सकती है. लखनऊ में सतीश मिश्र के घर में बसपा ने सोश्गल मीडिया वॉर रूम बनाया है. जहां बसपा के खिलाफ नैरेटिव को काउंटर किया जा रहा है.
4) 2017 के विधानसभा चुनाव में जीती गई 19 सीटों और जहां पार्टी दूसरे नंबर पर थी- उन्हें खूब फोकस किया जा रहा है. अकेले पहले चरण में 30 सीटें हैं जहां बसपा दूसरे नंबर पर थी. इन सीटों पर ठीक उसी तरह प्रत्याशी उतारे जा रहे हैं जैसे 2007 में मायावती ने उतारे थे. जिताऊ उम्मीदवार जो जातीय धार्मिक समीकरण में भी सेट होते हैं. पार्टी को भरोसा है कि सोशल इंजीनियरिंग की वजह से बसपा के वोट बैंक में थोड़ा सा वोट भी जुड़ा तो इन सीटों को आसानी से जीता जा सकता है.
मायावती की रैलियों से बनेगा असल माहौल
हालांकि तमाम सर्वेक्षणों में बसपा का प्रदर्शन बहुत निराशाजनक दिखा है, मगर पार्टी सुप्रीमों को इसकी परवाह नहीं. वैसे भी समीकरण आख़िरी वक्त तक बदलते रहते हैं. उम्मीदवारों की वजह से बसपा को पश्चिम में जो एज मिला है वह उसके उत्साह को बढ़ा रहा है. अब मायावती निर्णायक प्रहार करने के लिए फरवरी के पहले हफ्ते में करीब आधा दर्जन रैलियां करने वाली हैं. बसपा सूत्रों ने बताया कि पूर्व मुख्यमंत्री 2 फरवरी को आगरा में, 3 फरवरी को गाजियाबाद में चुनावी रैली करेंगी. पश्चिम के अन्य क्षेत्रों में भी रैलियां होंगी. रैलियों से पार्टी को बसपा के पक्ष में माहौल जबरदस्त माहौल बनने की उम्मीद है.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.