बीते बरसों के आम चुनावों पर गौर करें तो हर बार दो राष्ट्रीय दलों से इतर एक तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिश होती रही है. सब कुछ तो बड़े अच्छे से होता है, मामला एक ही मुद्दे पर हमेशा अटक जाता रहा है - कौन बनेगा प्रधानमंत्री? तीसरे मोर्चे की कवायद में प्रधानमंत्री पद के इतने दावेदार होते हैं कि निर्णायक मोड़ आने से पहले ही कुनबा बिखर जाता है. 2014 तक मुलायम सिंह यादव काफी सक्रिय देखे जाते रहे. अब जब अपनी ही पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में पहुंच गये फिर तो ऐसी बातों का कोई मतलब भी नहीं रहा.
राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने के बाद सोनिया गांधी फिर से सक्रिय हो गयी हैं. ऐसे में जबकि देश में एक बार फिर तीसरे मोर्चे को खड़ा करने की कवायद शुरू हो चुकी है, सोनिया गांधी ने 13 मार्च को विपक्ष के नेताओं को डिनर पर बुलाया है. केंद्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश सोनिया ने राष्ट्रपति चुनाव और उप राष्ट्रपति चुनाव के अलावा जीएसटी लागू किये जाने के दौरान भी की थी.
आखिर तीसरे मोर्चे को लेकर इतनी कोशिशें होती हैं, कभी ऐसा क्यों नहीं होता कि देश में एक महिला मोर्चा ही बना लिया जाये! संभव है ऐसा फोरम किसी भी फ्रंट के मुकाबले ज्यादा असरदार हो.
तीसरे मोर्चे की कवायद
लंच के बाद सोनिया गांधी का डिनर सियासी गलियारों में चर्चित है. खबर है कि सोनिया गांधी विपक्ष को एकजुट करने में फिर से जुट गयी हैं ताकि सरकार को संसद के भीतर और बाहर घेरा जा सके. ये सिलसिला सफल रहा तो 2019 में अधिक प्रभावशाली हो सकता है.
सोनिया की ये पहले ऐसे वक्त देखी जा रही है, जब एनडीए में घमासान मचा हुआ है. टीडीपी और बीजेपी अपने अपने रास्ते चलने को आतुर...
बीते बरसों के आम चुनावों पर गौर करें तो हर बार दो राष्ट्रीय दलों से इतर एक तीसरा मोर्चा खड़ा करने की कोशिश होती रही है. सब कुछ तो बड़े अच्छे से होता है, मामला एक ही मुद्दे पर हमेशा अटक जाता रहा है - कौन बनेगा प्रधानमंत्री? तीसरे मोर्चे की कवायद में प्रधानमंत्री पद के इतने दावेदार होते हैं कि निर्णायक मोड़ आने से पहले ही कुनबा बिखर जाता है. 2014 तक मुलायम सिंह यादव काफी सक्रिय देखे जाते रहे. अब जब अपनी ही पार्टी के मार्गदर्शक मंडल में पहुंच गये फिर तो ऐसी बातों का कोई मतलब भी नहीं रहा.
राहुल गांधी को कांग्रेस की कमान सौंपने के बाद सोनिया गांधी फिर से सक्रिय हो गयी हैं. ऐसे में जबकि देश में एक बार फिर तीसरे मोर्चे को खड़ा करने की कवायद शुरू हो चुकी है, सोनिया गांधी ने 13 मार्च को विपक्ष के नेताओं को डिनर पर बुलाया है. केंद्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी के खिलाफ विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश सोनिया ने राष्ट्रपति चुनाव और उप राष्ट्रपति चुनाव के अलावा जीएसटी लागू किये जाने के दौरान भी की थी.
आखिर तीसरे मोर्चे को लेकर इतनी कोशिशें होती हैं, कभी ऐसा क्यों नहीं होता कि देश में एक महिला मोर्चा ही बना लिया जाये! संभव है ऐसा फोरम किसी भी फ्रंट के मुकाबले ज्यादा असरदार हो.
तीसरे मोर्चे की कवायद
लंच के बाद सोनिया गांधी का डिनर सियासी गलियारों में चर्चित है. खबर है कि सोनिया गांधी विपक्ष को एकजुट करने में फिर से जुट गयी हैं ताकि सरकार को संसद के भीतर और बाहर घेरा जा सके. ये सिलसिला सफल रहा तो 2019 में अधिक प्रभावशाली हो सकता है.
सोनिया की ये पहले ऐसे वक्त देखी जा रही है, जब एनडीए में घमासान मचा हुआ है. टीडीपी और बीजेपी अपने अपने रास्ते चलने को आतुर हैं. इसी दरम्यान, एक गैर-बीजेपी और गैर-कांग्रेस मोर्चे को लेकर भी संभावनाएं तलाशी जा रही हैं. ममता बनर्जी और उद्धव ठाकरे की मुलाकात के बाद ऐसे मोर्चे के पक्ष में टीआरएस नेता के चंद्रशेखर राव की ओर से मजबूत पहल हो रही है. अगर किसी ऐसे मंच की कल्पना हो तो पहले से ही एक गुट निरपेक्ष दल आम आदमी पार्टी भी है.
कांग्रेस को राव की कोशिश में सियासी साजिश की आशंका लग रही है. कांग्रेस नेताओं का मानना है कि राव द्वारा प्रस्तावित मोर्चे के पीछे बीजेपी का हाथ हो सकता है. कांग्रेस को लगता है कि विपक्ष एकजुट न हो पाये इसके लिए बीजेपी कोई चाल चल रही है.
बहरहाल, ये कोशिश तो चलती रहेगी. आखिर भारतीय राजनीति में सक्रिय और शिखर पर पहुंची महिलाएं आम चुनाव के लिए कोई अलग मोर्चा बनाने की कोशिश क्यों नहीं करतीं?
महिला मोर्चा क्यों नहीं?
मार्च, 2016 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक बात पर खूब ताली बजी थी - एक दिन ऐसा हो सकता है क्या कि सिर्फ महिला सांसदों को भी बोलने का मौका दिया जाये? मोदी की ये पहल उस साल महिला दिवस के मौके के लिए थी. तब स्पीकर सुमित्रा महाजन ने देश भर की विधानसभाओं की महिला विधायकों के लिए दो दिन का सम्मेलन रखा था. मोदी उसी के एक्सटेंशन की बात कर रहे थे.
पिछले ही महीने एक कार्यक्रम में बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने महिला आरक्षण बिल का मुद्दा उठाया था. कार्यक्रम में लोक सभा स्पीकर सुमित्रा महाजन की मौजूदगी में नीतीश ने कहा कि इससे देश भर की महिलाओं के आत्मविश्वास में इजाफा होगा. वैसे महिला आरक्षण का विरोध करने वालों में तब जेडीयू अध्यक्ष रहे शरद यादव आगे नजर आते रहे. शरद यादव की 'परकटी महिलाओं' वाली टिप्पणी अक्सर चर्चाओं का हिस्सा बनती रही. महिलाओं को लेकर नीतीश कुमार की तत्परता 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान भी देखी गयी जब एक कार्यक्रम में शराबबंदी की मांग उठी. नीतीश ने बगैर एक पल देर किये उठ कर सत्ता में आने पर लागू करने की हामी भरी और वादा पूरा भी किया.
महिला बिल को लेकर पिछले साल सितंबर में सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी थी. चिट्ठी में सोनिया ने लोक सभा में बीजेपी के पास बहुमत का जिक्र करते हुए कहा था कि मोदी सरकार बिल पेश तो करे - सपोर्ट करने वालों में कांग्रेस आगे नजर आएगी. ये तब की बात है जब गुजरात चुनावों का माहौल जोर पकड़ रहा था और बीजेपी की ओर से उल्टे सवाल पूछ कर कर्तव्यों की इतिश्री कर ली गयी.
देश की राजनीति के मौजूदा दौर को देखा जाये तो विपक्ष में जिस एकजुटता की कोशिश हो रही है उसकी बड़ी पहल सोनिया गांधी कर रही हैं और ममता बनर्जी की भी उसमें काफी सक्रिय हिस्सेदारी है. दोनों के अलावा विपक्षी खेमे में कई और नाम हैं जो या तो नेतृत्व कर रहीं हैं या फिर आगे बढ़ कर कमान संभाल रही हैं.
मायावती ने यूपी में विपक्षी एकता की एक छोटी सी मिसाल पेश की है. मायावती की ये कोशिश भले ही सियासी फायदे के लिए समझा जाये, लेकिन कोई ये कैसे कह सकता है कि वो ऐसा नहीं कर सकतीं. सोनिया के लंच में शामिल होकर भी मायावती ने पिछले साल विपक्षी एकजुटता में दिलचस्पी दिखायी थी, लेकिन आगे उस पर कायम नहीं रह सकीं. वैसे मायावती फिलहाल कर्नाटक में जेडीएस के साथ भी खड़ी हैं जो कांग्रेस के खिलाफ चुनाव मैदान में है.
जब भी लालू प्रसाद जेल जाते हैं, राबड़ी देवी पूरी मुस्तैदी से मोर्चे पर खड़ी हो जाती हैं. इस बार भी हर मौके पर उनकी मजबूत मौजूदगी देखी जा सकती है. अभी अभी जीतनराम मांझी के महागठबंधन में आने पर मुहर राबड़ी देवी की ओर से लगायी गयी थी.
शरद पवार और करुणानिधि के राजनीति से सक्रियता घटाने के बाद दोनों की बेटियां - सुप्रिया सुले और कनिमोझी को खासा एक्टिव देखा जा सकता है. सीपीएम की अगुवाई भले ही प्रकाश करात या सीताराम येचुरी के हाथ में रही हो, वृंदा करात को हमेशा हर मोर्चे पर आगे देखा जाता रहा है.
प्रियंका गांधी भले ही सक्रिय राजनीति में न हों, लेकिन मालूम हुआ की 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में उन्हीं के हस्तक्षेप से कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का तात्कालिक मेल हुआ - और 'यूपी के लड़के साथ आये' थे. खास बात ये रही कि दूसरी छोर पर भी डिंपल यादव डटी रहीं.
कर्नाटक चुनाव के बाद इस साल के आखिर में मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के अलावा मिजोरम में भी इसी साल चुनाव होने जा रहे हैं. अगर महिला मोर्चा जैसा कोई मंच अस्तित्व में आये तो मिजोरम चुनाव उसे आजमाने के लिए एक बेहतरीन फोरम हो सकता है.
महिला मोर्चा के मैदानी परीक्षण के लिए मिजोरम चुनाव खास मौका हो सकता है. दरअसल, मिजोरम में महिला वोटर पुरुषों से 16, 573 ज्यादा हैं. मिजोरम में महिला मतदाताओं की संख्या 3,88,046 है जबकि 3,71,473 ही पुरुष वोटर हैं.
हकीकत से तो वक्त ही रू-ब-रू करा सकता है, लेकिन मुमकिन है विपक्षी खेमे की महिला नेता जब सत्ता पक्ष को घेरने लगें तो उसका प्रभाव ज्यादा हो. क्या महिलाओं से जुड़े अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी सत्ता पक्ष की महिलाएं आइडियोलॉजी के हिसाब से ही खामोश रह जाएंगी? कहना मुश्किल है, लेकिन नामुमकिन तो नहीं!
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