अफगानिस्तान का जिक्र चलते ही क्या याद आता है? महाशक्तियों के फौजी बूटों से रौंदा हुआ कोई मुल्क? आतंकवादियों की गोलियों से ज़ख्मी कोई देश? या डबडबाई आंखों से दुनिया की ओर मदद के लिए निहारते लोगों का समूह? दुर्भाग्य से ये तीनों ही तस्वीरें आज के अफगानिस्तान की सच्चाई हैं. विश्वासघात, लालच, अहंकार और कट्टरता के प्रहारों ने अफ़ग़ानों की धरती की सूरत इतनी बार बदली कि असली सूरत ही गुम हो गई. मौजूदा तारीख दुनिया से चीख-चीख कर कह रही है कि एक था अफगानिस्तान. आह, आंसू और असमंजस में डूबे आज़ाद अफगानिस्तान पर तालिबान की कट्टर हुकूमत का परचम आखिर लहरा ही गया. यही अब अफगानिस्तान का नया मुकद्दर है अब जो है वो तालिबानी हुकूमत वाला इस्लामिक अमीरात ऑफ अफ़गानिस्तान है. जो इतिहास के अंधेरों में धीरे धीरे गुम हो गया वो अफ़ग़ानिस्तान था. किंग अमानुल्लाह खान वाला अफगानिस्तान, किंग मुहम्मद नादिर शाह वाला अफ़ग़ानिस्तान, किंग ज़हीर शाह वाला अफग़ानिस्तान, मुहम्मद दाउद खान वाला अफ़ग़ानिस्तान.
इसके आगे की कहानी 4 दशक तक अपनी पहचान के लिए संघर्ष करने रहने वाले अफगानिस्तान की है. सोवियत संघ, अमेरिका की दखलअंदाज़ी के बीच कभी नजीबुल्लाह तो कभी हामिद करज़ई और अशरफ ग़नी के दौर को इतिहास भले अफगानिस्तान की पहचान के साथ थोड़ा-बहुत जोड़ सके, लेकिन वो सब भी गए दौर की बात हुई. जो रह गया वो कट्टरता, क्रूरता, क़त्ल-ओ-ग़ारत की दहशत से भरा तालिबानियों का इस्लामिक अमीरात ऑफ अफग़ानिस्तान बचा है.
वो जो अफगानिस्तान था, उसमें कॉमेडियन मोहम्मद खाशा मुस्कुराता था.
ये जो इस्लामिक अमीरात ऑफ अफग़ानिस्तान है, इसने...
अफगानिस्तान का जिक्र चलते ही क्या याद आता है? महाशक्तियों के फौजी बूटों से रौंदा हुआ कोई मुल्क? आतंकवादियों की गोलियों से ज़ख्मी कोई देश? या डबडबाई आंखों से दुनिया की ओर मदद के लिए निहारते लोगों का समूह? दुर्भाग्य से ये तीनों ही तस्वीरें आज के अफगानिस्तान की सच्चाई हैं. विश्वासघात, लालच, अहंकार और कट्टरता के प्रहारों ने अफ़ग़ानों की धरती की सूरत इतनी बार बदली कि असली सूरत ही गुम हो गई. मौजूदा तारीख दुनिया से चीख-चीख कर कह रही है कि एक था अफगानिस्तान. आह, आंसू और असमंजस में डूबे आज़ाद अफगानिस्तान पर तालिबान की कट्टर हुकूमत का परचम आखिर लहरा ही गया. यही अब अफगानिस्तान का नया मुकद्दर है अब जो है वो तालिबानी हुकूमत वाला इस्लामिक अमीरात ऑफ अफ़गानिस्तान है. जो इतिहास के अंधेरों में धीरे धीरे गुम हो गया वो अफ़ग़ानिस्तान था. किंग अमानुल्लाह खान वाला अफगानिस्तान, किंग मुहम्मद नादिर शाह वाला अफ़ग़ानिस्तान, किंग ज़हीर शाह वाला अफग़ानिस्तान, मुहम्मद दाउद खान वाला अफ़ग़ानिस्तान.
इसके आगे की कहानी 4 दशक तक अपनी पहचान के लिए संघर्ष करने रहने वाले अफगानिस्तान की है. सोवियत संघ, अमेरिका की दखलअंदाज़ी के बीच कभी नजीबुल्लाह तो कभी हामिद करज़ई और अशरफ ग़नी के दौर को इतिहास भले अफगानिस्तान की पहचान के साथ थोड़ा-बहुत जोड़ सके, लेकिन वो सब भी गए दौर की बात हुई. जो रह गया वो कट्टरता, क्रूरता, क़त्ल-ओ-ग़ारत की दहशत से भरा तालिबानियों का इस्लामिक अमीरात ऑफ अफग़ानिस्तान बचा है.
वो जो अफगानिस्तान था, उसमें कॉमेडियन मोहम्मद खाशा मुस्कुराता था.
ये जो इस्लामिक अमीरात ऑफ अफग़ानिस्तान है, इसने उनकी गर्दन काट दी.
वो जो अफगानिस्तान था, उसमें फवाद अंद्राबी लोक गीत गाता था.
वो ये जो इस्लामिक अमीरात ऑफ अफग़ानिस्तान है, इसने उनके संगीत को खामोश कर दिया.
वो जो अफगानिस्तान था, उसमें खातिरा एक पुलिस अधिकारी होती थी.
ये जो इस्लामिक अमीरात ऑफ अफग़ानिस्तान है, इसने उनकी दोनों आंखें नोच लीं.
अमेरिका की कायरता, चीन के लालच, पाकिस्तान के फरेब और तालिबानियों के आतंक से न जाने कितने ही अफग़ानी या तो अपने ही देश में बेगाने हो गए या दुनिया के दूसरे देशों में शरणार्थी बन गए. तालिबानी कट्टरता वाले इस्लामिक अमीरात ऑफ अफ़ग़ानिस्तान में जो बचकर रह जाएंगे और अपनी उम्र पूरी करेंगे वो एक दिन अपने बच्चों को उस दौर की कहानियां सुनाया करेंगे जब अफगानिस्तान एक गणराज्य था. तब वो ये भी कहा करेंगे - एक था उनका अपना अफगानिस्तान.
अफ़ग़ानिस्तान न तो बड़े उद्योग धंधों वाला देश था. न यहां के लोग दुनिया के लिहाज़ से बहुत स्किल्ड थे और न ही किसी बाहरी के लिए यहां का जीवन बहुत खुशनुमा या आरामदायक हो सकता था. लेकिन बदकिस्मती ये रही कि फिर भी अफगानिस्तान लगातार युद्ध में रहा. बाहरी देशों के लिए अफगानिस्तान जंग की प्रयोगशाला बना और घरेलू मोर्चे पर सिविल वार ने इसे उलझाए रखा. इस सबके बीच वो जो अफ़ग़ानिस्तान था वो कहीं गुम होता चला गया.
सर झुकाए, हाथों में बंदूक लिए आधी रात को जैसे ही आखिरी अमेरिकी सैनिक मेजर जनरल क्रिस ने एयरक्राफ्ट में क़दम रखा, अमेरिका का 20 साल पुराना मिशन ख़त्म हो गया. अमेरिका का 20 साल का मिशन ख़त्म हुआ और इसके साथ ही तालिबान का भी 20 साल से दोबारा सत्ता में लौटने का इंतज़ार ख़त्म हो गया.तालिबानियों का थोपा हुआ शरिया कानून ही अब अफगानिस्तान का घोषित संविधान है.
महिलाओं की आज़ादी अब गए दौर की बात हुई. ये वो दौर शुरु हुआ है जिसमें महिलाओं के पास सुनाने के लिए सिर्फ दर्द और आंसू बचे हैं क्योंकि सबसे ज़्यादा पाबंदियां उन्हीं के लिए हैं. सिनेमा-संगीत से मनोरंजन का मौलिक अधिकार बर्खास्त हो चुका है. आधुनिक शिक्षा का सुनहरा अध्याय ख़त्म हुआ. बीते 100 साल में धीरे धीरे, लड़खड़ाते-उठकर चलता अफगानिस्तान जहां तक आया था अब उससे भी पीछे के दौर में चला गया.
अफगानिस्तान का इतिहास बदली हुई इस तारीख में सोचता होगा कि ये कौन सा दौर है जहां बातें तरक्की के नए उजालों की हैं लेकिन सामने दिख सिर्फ अंधेरा रहा है. जहां जीन्स पहनने पर लड़की को गोली मार दी जा रही है. महिला जजों और पत्रकारों को बर्खास्त किया जा रहा है. टीवी का न्यूज़ एंकर बंदूकों के साए में खुशहाली के पैग़ाम देने की कोशिशें कर रहा है. बच्चियों पर बुरी नीयत के साए मंडरा रहे हैं. चाबुकों से पिटाई के मंज़र सरे-राह हैं.
एक ये दौर है एक वो दौर था जब अफगानिस्तान बेरोक-टोक हंसता था, मुस्कुराता था, समय से आगे चलता था. तब वहां कट्टरता नहीं खुशियां थीं. एक देश के तौर पर उसके अपने सपने थे. 1919 में अफ़गानिस्तान ब्रिटिश साम्राज्य के चंगुल से आज़ाद हुआ था उसके बाद जो हुक्मरान आए उन्होनें अपने देश के लिए जो रास्ते तय किए थे वो बेहद तरक्की-पसंद थे. उन रास्तों पर पर चलकर अफगानिस्तान आधुनिकता के मामले में दुनिया से बराबरी करने की सोचा करता था.
कई मामलों में अफगानिस्तान ने अमेरिका को भी तब मात दे दी थी. तालिबान के इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान में महिलाओं के लिए पर्दा ज़रूरी है. उसके नियम-कानून के अनुसार चेहरा, हाथ की उंगलियां, पैर के नाखून दिख जाने पर कोड़ों से पिटाई की सजा है लेकिन पुराने अफगानिस्तान ने एक समय में ड्रेस कोड लागू करके महिलाओं को मनपसंद कपड़े पहनने के अधिकार भी दिए.
1926 में यानि अब से 95 साल पहले मुस्लिम शासक अमीर अमानुल्लाह खान ने अफगानिस्तान को आधुनिकता की ओर ले जाने के लिहाज़ से यूरोपीय ड्रेस कोड लागू कर दिया था. इस कोड के अनुसार अफगानिस्तान की महिलाएं आज़ाद थीं कि अगर वेस्टर्न कपड़े पहनना चाहें तो उन्हें इसकी आज़ादी है. क्वीन सोराया खुद भी इसी अधिकार का पालन करती थीँ.
तालिबान के मौजूदा शासन वाला इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान महिलाओं के अकेले घर से बाहर निकलने पर पाबंदी और इसके उल्लंघन पर दर्दनाक सजा की वकालत करता है, लेकिन पुराना अफगानिस्तान एक दूसरी ही तस्वीर पेश करता था. एमनेस्टी इंटरनेशन की रिपोर्ट के अनुसार अफगानिस्तान ने 1919 में ही महिलाओं को वोट का अधिकार सौंप दिया था जबकि अमेरिका जैसे देश में ये अधिकार 1920 में दिया गया था.
1923 में अफग़ानी महिलाओं को मर्जी की शादी का अधिकार मिला था. 1928 में अफ़ग़ानी महिलाओं का ग्रुप टर्की में स्कूल अटेंड करने गया. 1940 से 1950 तक अफगानिस्तान की महिलाएं, डॉक्टर, नर्स, टीचर बनने लगीं थीं 1959 से 1965 के बीच सिविल सर्विस और स्पोर्ट्स में भी महिलाओं की भागीदारी होने लगी थी.
1933 में अफगानिस्तान के शासक किंग ज़हीर शाह बने थे जिन्होनें करीब 40 साल शासन किया था उनके दौर को अफगानिस्तान का स्वर्णिम काल कहा जा सकता है. आज भले तालिबानियों के इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान में महिलाओं की ज़िंदगी नर्क हो लेकिन तब पुराने अफगानिस्तान में महिलाओं के दिन सबसे अच्छे हुआ करते थे.
1960 तक अफगानिस्तान में करीब 8 प्रतिशत महिलाएं ऐसी थीं जो आर्थिक रूप से खुद सक्षम हो चुकी थीं. 1964 में अफगानिस्तान की संसद में महिलाओं की भागीदारी 13 प्रतिशत थी और इस मामले में अफगानिस्तान अमेरिका जैसे पुराने लोकतंत्र से भी आगे निकल चुका था. 1966 से 1971 तक अदालतों में 14 प्रतिशत महिला जजों की नियुक्ति हुई
ये जो तालिबानियों का इस्लामिक अमीरात ऑफ अफ़गानिस्तान है इसमें पुरुष महिलाओं को नहीं पढ़ा सकते. को-एजुकेशन नहीं हो सकेगी. 12 साल से 15 साल की बच्चियों को तालिबानी आतंकवादियों से शादी करनी होगी. बदखासन गांव में एक 21 साल की लड़की को शादी के नाम पर बुलाकर रेप के बाद हत्या कर दी गई. ऐसे न जाने कितने ही मामले ताज़ा सच्चाई हैं जो अब कभी नहीं खुलेंगे. एक वो था जो अफगानिस्तान था एक ये है जो तालिबानियों का अफगानिस्तान है, जहां बेटियों की चीखें तालिबानियों के कहकहे हैं. जहां महिलाओं के आंसू उनका फर्ज है.
1978 के बाद अफ़गानिस्तान, सोवियत संघ और अमेरिका के ग्रेट गेम के बीच फंस गया. मुजाहिदों ने सर उठाए और अफ़गानिस्तान कबीलाई पहचान में बदलता चला गया. 1996 में तालिबान अफ़गानिस्तान पर काबिज हुए और 2001 तक रहे. शरिया कानून तब अफगानिस्तान की सच्चाई बन गया. 2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान में सेनाएं भेजीं और तालिबान को सत्ता से बाहर किया, हामिद करजई और अशरफ गनी के दौर में एक बार तब भी लगा था कि शायद अफगानिस्तान अपनी पुरानी पहचान की तरफ लौट रहा है.
2001 में तालिबान राज पार्ट 1 का खत्म होना ऐसे था जैसे अफगानिस्तान की मूल भावनाओं का पुनर्जन्म हुआ हो. मध्यकालीन बर्बरता के दौर में धंस रहा अफगानिस्तान दोबारा अपने पैरों पर खड़ा होने लगा था. 2002 में अफगानिस्तान की साक्षरता दर 34 प्रतिशत थी लेकिन यूनेस्को के प्रयासों के बाद 2020 तक 43 प्रतिशत हो चुकी थी.
2006 में स्वीडन, जापान, नॉर्वे, डेनमार्क और संयुक्त राष्ट्र एजेंसियों ने मिलकर अफगानिस्तान इतिहास का सबसे बड़ा साक्षरता अभियान चलाया. 1 करोड़ लोग शिक्षित किए गए जिनमें 8 लाख महिलाएं और लड़कियां थीं. 2001 से 2020 तक का ही ये वो दौर भी था जब अफगानिस्तान को पर्यटन और संस्कृति के लिहाज़ से विकसित करने की कोशिशें की गईं. हेरात के हेरिटेज इलाकों को संरक्षित किया गया था. बामियान घाटी, जाम की मीनार और दूसरी अफगानी विरासतों को संजोया गया था.
तालिबान के इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान की तो शुरुआत ही शिया नेता अब्दुल अली हज़ारा की मूर्ति तोड़कर हुई है जिसने बामियान की कहानी फिर से याद दिला दी. तालिबान के पार्ट टू से पहले लगने लगा था कि अफगानिस्तान अपने स्वर्णिम इतिहास की तरफ शायद लौट रहा है. आज़ादी और अभिव्यक्ति की तस्वीर मुकम्मल दिखने लगी थी.
2020 तक अफगानिस्तान में 1,879 सक्रिय मीडिया संस्थान खुल चुके थे. 203 टीवी चैनल, 349 रेडियो स्टेशन और 1327 प्रिंट मीडिया के संस्थान थे. 2020 में अफगानिस्तान मीडिया में 1139 महिला पत्रकार थीं. जिस देश ने 102 साल पहले वोट का अधिकार महिलाओं को दिया था उस देश का आज उस सवाल का और महिला पत्रकार का ऐसे मज़ाक बना रहा है. और दूसरी तस्वीर ये देख लीजिए जब स्टूडियो से महिला एंकर को ही हटना पड़ गया महाशक्ति, सुपरपावर, मोस्ट पावरफुल नेशन अमेरिका अफगानियों को ऐसे लोगों के हवाले छोड़ गया है.
कुछ ऐसे जैसे उसने भी तालिबान की सत्ता कुबूल कर ली, कुछ ऐसे जैसे ऐलान कर गया हो कि एक था कभी अफगानिस्तान. तालिबान राज पार्ट टू आज के अफगानिस्तान की सच्चाई है. वैसे तो अफगानिस्तान में जब भी मुजाहिद या आतंकवादी सक्रिय हुए तब सोवियत संघ या अमेरिका वहां रहा, लेकिन पहली बार तालिबानी आतंकवादियों को रोकने वाला अब कोई नहीं.
दुनिया के इतिहास में अफगानिस्तान का महत्व उस दरवाज़े की तरह रहा जिसे पार किए बिना हर किसी की विजय अधूरी रह जाती. सिकंदर, चंगेज़ ख़ान, तैमूर लंग, बाबर सब यहीं से गुज़रे क्योंकि मध्य एशिया और दक्षिण एशिया का गेट था अफगानिस्तान. यहां से होकर भले एक से एक खूंखार लड़ाके गुज़रे लेकिन अफगानिस्तान को गुलाम कभी कोई नहीं बना पाया, यहां तक कि तालिबान राज पार्ट 2 की सच्चाई भी अभी तक यही है.
हालांकि एक सच ये भी है कि ऊपर ऊपर देखने से लगता है कि तालिबान का पूरे अगानिस्तान पर कब्ज़ा है लेकिन अंदर अंदर कहानी में अभी कई पेंच बाकी हैं. तालिबानी राज में नाम और निज़ाम भले बदल गया लेकिन पुराने अफगानिस्तान की कबीलाई स्वतंत्रता के लिए लड़ने की फितरत शायद ही बदलेगी. 102 साल पहले आज़ाद होने के बावजूद अफगानिस्तान में स्थानीय पहचान कायम रखने की जंग हमेशा जारी रही.
अफगानिस्तान में कुल 42 प्रतिशत पश्तून हैं, 27 प्रतिशत ताजिक, 9 प्रतिशत हज़ारा, 8 प्रतिशत उज्बेक और 14 प्रतिशत अन्य कबीलाई जनजातियां. तालिबान एक देश की तरह अफगानिस्तान को ट्रीट करते हुए एक शरिया कानून लागू करना चाहता है लेकिन असल में अफगानिस्तान इन कबीलों का समूह है.
तालिबान को इन कबीलों के क्षेत्रीय नेताओं को साधना आसान नहीं होगा, और ऐसा न होने पर सत्ता की लड़ाई जारी रहेगी. फिलहाल पंजशीर की लड़ाई ज़ोरों से चल रही है जिसमें तालिबान को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और यहां से ये भी कहा जा सकता है कि अभी अफगानिस्तान ने अपनी पहचान के लिए लड़ना पूरी तरह छोड़ा नहीं है.
तालिबान के इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान के लिए मुश्किलों का दौर सिर्फ पंजशीर से ही नहीं शुरु है बल्कि खुद उनके अंदर से विरोध की आवाज़ें सुनाई देने लगी हैं. एस बार फिर लग रहा है कि अभी जो तस्वीर दिख रही है अफगानिस्तान की उसके कई रंग बदलना अभी बाकी हैं शायद. नाम एक है तालिबानी, लेकिन अंदर इसके पाकिस्तान की आईएसआई भी है, हक्कानी भी हैं, अलकायदा भी है, तहरीक-ए-तालिबान भी है और तुर्की, उज्बेकिस्तान के कई आतंकी संगठन भी शामिल हैं.
अफग़ानिस्तान की सरकार के खिलाफ लड़ाई में सब साथ थे लेकिन सत्ता के बंटवारे में दरारें दिखने लगी हैं. पाकिस्तान चाहता है कि इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान में बनी सरकार का रिमोट उसके हाथ में रहे. तहरीक-ए-तालिबान ने स्पष्ट कह दिया है कि पाकिस्तान के खिलाफ उसकी लड़ाई जारी रहेगी वो भी पाकिस्तान की धरती से. तालिबान के अंदर मुल्ला उमर का बेटा मुल्ला याकूब और हक्कानी नेटवर्क के आतंकियों के बीच तनाव की खबरें आने लगी हैं.
तालिबान के अंदर ही ग़ैर-पश्तून और कंधार गुट के आतंकियों के बीच रसूख को लेकर तनातनी है. अभी नई नई तालिबानी सरकार बनने वाली है लेकिन हालात फिर से एक बार 1990 के दौर में मुजाहिदीन गुटों के आपसी संघर्ष जैसे बनते देर नहीं लगेगी क्योंकि सबके अपने हित और अपने टकराव हैं.
कल क्या होगा किसने देखा लेकिन आज के इस्लामिक अमीरात ऑफ अफगानिस्तान की राख, बारूद, गोली, खून, लाशें और चीखों में पुराना अफगानिस्तान खुद को खोज रहा है. खोज रहा है वो कारण कि क्यों उसे बार बार मिटाया जाता है ? क्यों उसे बार बार लूटा जाता है ? क्यों उसकी पीठ में बार बार खंजर घोंपा जाता है ? पूछ रहा है पुराना अफगानिस्तान.
मृत देहों के इस दलदल में
घातों के बैरी छलबल में
क्या मेरा दोष रहा हरदम ?
साम्राज्य गढ़े पानी ने मेरे
पर मेरा नसीबा बिखरा रहा
मैं कितनों के लालच का गढ़
पर मेरा घर ही उजड़ा रहा
चोटिल बाहें, ज़ख्मी माथा
मन दर्द से टूटा आंखें नम
क्या मेरा दोष रहा हरदम ?
हां हां ये मेरी मिट्टी है
साम्राज्यों की कितनी मज़ार
रुसी, अमरीकी टैंकों की
देखो यहां कितनी क़तार
पर हार गया अपनों से मैं
अपनों से टूटा मेरा भरम
क्या मेरा दोष रहा हरदम ?
शायद वो दिन फिर से लौटें
जब मेरे बच्चे नाचेंगे
जब मेरी बेटियां गाएंगी
मेरे बेटे मुस्काएंगे
मैं सोच रहा अपमानित सा
ये देख सकूं फिर कम से कम
क्या मेरा दोष रहा हरदम?
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