पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में चल रहे 10 प्रतिशत गरीब स्वर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण के मामले में पांच बेंचों वाली कमेटी के फैसले ने एक बार फिर इसे बहस का मुद्दा बना दिया है. माननीय पांच जजों में तीन ने इसे संविधान के मूल ढांचों से छेड़छाड़ करने की बातों को नकार दिया है. इसके साथ ही उन्होंने बाबा साहब अंबेडकर के कथन को कोट करते हुए कहा है कि हर दस साल में आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए ताकि समाज में एकरूपता कायम हो सके. वहीं दो जजों का मानना था कि गरीब स्वर्णों के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल भावना के खिलाफ है.
साल 2019 में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण की मांगों को देखते हुए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था आर्थिक आधार पर की गई थी. 8 लाख से कम आय तथा एक निश्चित मात्रा में जमीन का स्वामित्व रखने वाले परिवार के लोग इस आरक्षण के लिए पात्र हैं. लेकिन इस आरक्षण की वैधानिकता को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में डाल दी गई थीं. देश में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को सरकारी रोजगार, सरकारी कंपनियों और शैक्षणिक संस्थाओं में नौकरी तथा सीटों में 49.5 फीसदी आरक्षण प्राप्त है.
अब सवाल यह है कि क्या देश में अभी भी आरक्षण की जरूरत है? जब भारत तरक्की की राह पर है तो उसे पीछे धकेलने की कोशिश क्यों की जा रही है. यदि आरक्षण की जरूरत है भी तो जब एक देश एक टैक्स, एक देश एक राशन कार्ड, एक देश एक आधार कार्ड की व्यवस्था हो चुकी है और एक देश एक चुनाव की बात हो रही, तो ऐसे में एक देश एक आरक्षण की व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती है? जो कि आर्थिक आधार पर हो जो इसमें किसी जाति, मजहब, लिंग, समुदाय आदि के साथ भेदभाव से मुक्त होने की व्यवस्था हो, क्योंकि गरीबी किसी भी समुदाय, जाति और लिंग से हो सकता...
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट में चल रहे 10 प्रतिशत गरीब स्वर्णों को आर्थिक आधार पर आरक्षण के मामले में पांच बेंचों वाली कमेटी के फैसले ने एक बार फिर इसे बहस का मुद्दा बना दिया है. माननीय पांच जजों में तीन ने इसे संविधान के मूल ढांचों से छेड़छाड़ करने की बातों को नकार दिया है. इसके साथ ही उन्होंने बाबा साहब अंबेडकर के कथन को कोट करते हुए कहा है कि हर दस साल में आरक्षण की समीक्षा की जानी चाहिए ताकि समाज में एकरूपता कायम हो सके. वहीं दो जजों का मानना था कि गरीब स्वर्णों के लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण संविधान के मूल भावना के खिलाफ है.
साल 2019 में सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े तबकों के लिए आरक्षण की मांगों को देखते हुए 10 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था आर्थिक आधार पर की गई थी. 8 लाख से कम आय तथा एक निश्चित मात्रा में जमीन का स्वामित्व रखने वाले परिवार के लोग इस आरक्षण के लिए पात्र हैं. लेकिन इस आरक्षण की वैधानिकता को चुनौती देने वाली अनेक याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में डाल दी गई थीं. देश में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग को सरकारी रोजगार, सरकारी कंपनियों और शैक्षणिक संस्थाओं में नौकरी तथा सीटों में 49.5 फीसदी आरक्षण प्राप्त है.
अब सवाल यह है कि क्या देश में अभी भी आरक्षण की जरूरत है? जब भारत तरक्की की राह पर है तो उसे पीछे धकेलने की कोशिश क्यों की जा रही है. यदि आरक्षण की जरूरत है भी तो जब एक देश एक टैक्स, एक देश एक राशन कार्ड, एक देश एक आधार कार्ड की व्यवस्था हो चुकी है और एक देश एक चुनाव की बात हो रही, तो ऐसे में एक देश एक आरक्षण की व्यवस्था क्यों नहीं हो सकती है? जो कि आर्थिक आधार पर हो जो इसमें किसी जाति, मजहब, लिंग, समुदाय आदि के साथ भेदभाव से मुक्त होने की व्यवस्था हो, क्योंकि गरीबी किसी भी समुदाय, जाति और लिंग से हो सकता है.
एक तरफ कहा जाता है कि जातिगत आरक्षण से समाज में एकरूपता ला रहें हैं. वहीं दूसरी तरफ इस आरक्षण के जरिए जातिवाद को बढ़ावा दे रहे हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल है कि जातिगत आरक्षण या आर्थिक आधार पर आरक्षण, किसी भी प्रकार के आरक्षण की बात करते हुए यह ध्यान रखना जरूरी हो जाता है कि क्या आरक्षण अपने उद्देश्यों में कितना सफल हो रहा है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि जो आरक्षण अस्थायी व्यवस्था के तौर पर शुरू किया गया था, उसे राजनीतिक हथकंडा तो नहीं बन चुका है? इसका उत्तर आरक्षण की समीक्षा में निहित है. इससे अब तक परहेज किया जाता रहा है.
दरअसल आरक्षण व्यवस्था का मुख्य उद्देश्य भारतीय समाज में समानता को बढ़ावा देना था. इसके साथ ही निम्न और पिछड़े वर्गों को हर क्षेत्र में समान अवसर मिलने की व्यवस्था करना था. जो आजादी के तत्कालीन सामाजिक व शैक्षणिक परिस्थितियों के अनुसार ठीक था. परंतु बाबा साहेब अंबेडकर का मानना था कि आरक्षण के जरिए किसी निश्चित अवधि में समाज की वंचित जातियां समाज के सशक्त वर्गों के समकक्ष आ जाएगी. फिर आरक्षण की आवश्यकता समाप्त हो जाएगी. लेकिन आज कुछ नेताओं, दलितों और पिछड़ों वर्गों को आरक्षण की ऐसी लत लग गई है कि वो छोड़ना नहीं चाहते.
दलित वर्ग आरक्षण को हटाने की पहल करेगा, ऐसा कभी संभव नहीं लगता. क्योंकि जिनको वैसाखी की आदत पड़ गई हो, वो भला उसे हटाने की बात क्यों करेंगे. आरक्षित वर्ग से देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री बन सकते हैं, फिर यह वर्ग पीछे कैसे? आज दलित वर्ग का विकास काफी हो गया है. आज आरक्षण जारी रखने के विरोध में कुछ कहा जाए तो भावनात्मक दलीलें दी जाती हैं कि अनुसूचित जाति–जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के साथ हजारों सालों के भेदभाव को कुछ दशकों में पूरा नहीं किया जा सकता है.
देश में 1960 अनुच्छेद 15 (4) के तहत आरक्षण व्यवस्था शुरू की गई थी तो बाबा साहब ने कहा था कि यह आरक्षण केवल दस वर्षों के लिए होना चाहिए. हर दस साल में इस व्यवस्था की व्यापक समीक्षा होनी जरूरी है. वो चाहते थे कि सही व्यक्ति को इसका सही लाभ मिले. आरक्षण से किसी वर्ग का विकास होता है तो इसके आगे की पीढ़ी को इस व्यवस्था का लाभ नहीं मिलना चाहिए. ऐसे ही लोगों के लिए 1992 में सुप्रीम कोर्ट ने क्रिमिलेयर शब्द का प्रयोग करते हुए कहा था कि क्रिमिलेयर यानी संवैधानिक पदों पर आसीन पिछड़े तबके के व्यक्ति के परिवार एवं बच्चों को आरक्षण का लाभ नहीं मिलना चाहिए. लेकिन आज भी राजनीतिक महकमा सुप्रीम कोर्ट का क्रिमिलेयर का परिभाषा को मानने से इंकार करता है. सुप्रीम कोर्ट इस पर कोई सवाल न उठाए इसके लिए आय में भारी मात्रा में इजाफा कर इसकी परिभाषा ही बदल दी गई. देश में आरक्षण के नाम पर जिस तरह से राजनीति की जा रही है, वो बेहद ही चिंताजनक है, जिस पर विचार होना चाहिए.
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.