लोकतंत्र में विरोध जताने के तमाम तरीके होते हैं. बहिष्कार भी विरोध जताने का बेहद महत्वपूर्ण तरीका है - और संविधान दिवस (Constitution Day) समारोह के साथ ऐसा ही करके विपक्ष (Opposition Parties) ने मोदी सरकार के प्रति अपना विरोध प्रकट करने का फैसला किया था, लेकिन दांव उलटा पड़ गया.
कांग्रेस सहित विपक्ष के 15 राजनीतिक दलों के बहिष्कार के बावजूद कार्यक्रम तो होना ही था. हुआ भी तय तरीके से ही - और वहां जो कुछ हुआ भी वही हुआ जो किसी खुले मैदान में हो सकता था. समारोह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू और प्रधानमंत्री मोदी के अलावा वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, तेलुगु देशम पार्टी, बीजू जनता दल और बहुजन समाज पार्टी के नेता कार्यक्रम में शामिल हुए.
चुनावी सीजन में मिले मौके का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) भला फायदा कैसे न उठाते? जो इल्जाम लगा कर विपक्ष ने संविधान दिवस समारोह का बहिष्कार किया था, प्रधानमंत्री मोदी ने उसी में सबको लपेट लिया. वैसे भी संसद के सेंट्रल हाल में ये खुला राजनीतिक मैदान भी सत्ता पक्ष को विपक्ष ने ही मुहैया कराया था.
मौके पर कोई होता तो शायद माकूल जवाब भी दे सकता था, लेकिन वहां तो सिर्फ सत्ताधारी बीजेपी, सहयोगी दलों और सत्ता पक्ष से इत्तेफाक रखने वाले नेता ही मौजूद रहे - उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में होने जा रहे चुनाव से पहले इससे बढ़िया मौका क्या हो सकता था, तभी तो प्रधानमंत्री मोदी बोलना शुरू किये तो जैसे भूल गये कि संसद में हैं या कहीं बाहर - भाषण देने लगे तो ऐसा लगा जैसे कोई चुनावी रैली ही चल रही हो.
29 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है जिसमें तीन कृषि कानूनों की वापसी को औपचारिक शक्ल दी जानी है. पहले की सारी औपचारिकताएं पूरी की जा चुकी...
लोकतंत्र में विरोध जताने के तमाम तरीके होते हैं. बहिष्कार भी विरोध जताने का बेहद महत्वपूर्ण तरीका है - और संविधान दिवस (Constitution Day) समारोह के साथ ऐसा ही करके विपक्ष (Opposition Parties) ने मोदी सरकार के प्रति अपना विरोध प्रकट करने का फैसला किया था, लेकिन दांव उलटा पड़ गया.
कांग्रेस सहित विपक्ष के 15 राजनीतिक दलों के बहिष्कार के बावजूद कार्यक्रम तो होना ही था. हुआ भी तय तरीके से ही - और वहां जो कुछ हुआ भी वही हुआ जो किसी खुले मैदान में हो सकता था. समारोह में राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद, उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू और प्रधानमंत्री मोदी के अलावा वाईएसआर कांग्रेस पार्टी, तेलंगाना राष्ट्र समिति, तेलुगु देशम पार्टी, बीजू जनता दल और बहुजन समाज पार्टी के नेता कार्यक्रम में शामिल हुए.
चुनावी सीजन में मिले मौके का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) भला फायदा कैसे न उठाते? जो इल्जाम लगा कर विपक्ष ने संविधान दिवस समारोह का बहिष्कार किया था, प्रधानमंत्री मोदी ने उसी में सबको लपेट लिया. वैसे भी संसद के सेंट्रल हाल में ये खुला राजनीतिक मैदान भी सत्ता पक्ष को विपक्ष ने ही मुहैया कराया था.
मौके पर कोई होता तो शायद माकूल जवाब भी दे सकता था, लेकिन वहां तो सिर्फ सत्ताधारी बीजेपी, सहयोगी दलों और सत्ता पक्ष से इत्तेफाक रखने वाले नेता ही मौजूद रहे - उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में होने जा रहे चुनाव से पहले इससे बढ़िया मौका क्या हो सकता था, तभी तो प्रधानमंत्री मोदी बोलना शुरू किये तो जैसे भूल गये कि संसद में हैं या कहीं बाहर - भाषण देने लगे तो ऐसा लगा जैसे कोई चुनावी रैली ही चल रही हो.
29 नवंबर से संसद का शीतकालीन सत्र शुरू होने जा रहा है जिसमें तीन कृषि कानूनों की वापसी को औपचारिक शक्ल दी जानी है. पहले की सारी औपचारिकताएं पूरी की जा चुकी हैं.
जो बातें कहने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को किसी चुनावी रैली का इंतजार रहा होगा वे सारी बातें तो संविधान दिवस समारोह में ही कह डाले - नाम किसी का भी नहीं लिया और सोनिया गांधी, राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव तक परिवारवाद की राजनीति के नाम पर कठघरे में खड़ा कर दिया. भ्रष्टाचार के बहाने लालू यादव को भी निशाना बनाया और उनकी राजनीतिक सक्रियता पर भी सवाल खड़े कर दिये.
सवाल ये उठता है कि क्या विपक्षी दलों के नेता संसद में कार्यक्रम के दौरान मौजूद रह कर विरोध नहीं जता सकते थे?
संसद में मोदी की चुनावी रैली के लिए जिम्मेदार कौन?
ये कोई पहला मौका नहीं था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषण में विपक्ष के खिलाफ आरोपों की मूसलाधार बारिश कर रहे थे. जब भी मौका मिला है प्रधानमंत्री का अंदाज ऐसा ही रहा है - खास कर चुनावों से पहले के मौकों पर.
मानते हैं कि बोलने की आजादी है - और न तो सत्ता पक्ष और विपक्ष किसी को बोलने से रोक सकता है, लेकिन जवाब तो दिया ही जा सकता है. काउंटर तो किया ही सकता है. अगर सत्ता पक्ष मनमानी कर रहा है तो उस पर लगाम कसने की जिम्मेदारी तो विपक्ष की ही बनती है. है कि नहीं?
और खुद प्रधानमंत्री भी कह रहे हैं कि ये कोई पहला मौका नहीं हैं. दिलचस्प बात ये है कि विपक्ष के नेता भी कह रहे हैं कि ऐसा पहली बार नहीं हुआ है - फिर तो बड़ा सवाल ये है कि ये सब बार बार होता ही क्यों है?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं, 'जब मैं सदन में 2015 में बोल रहा था, तब भी... विरोध आज नहीं हो रहा है, उस दिन भी हुआ था... ये 26 नवंबर कहां से ले आये? क्यों कर रहे हो? क्या जरूरत थी?'
कहते हैं, 'अब भी बड़ा दिल रखकर खुले मन से बाबा साहब का पुण्य स्मरण के लिए तैयार न होना, चिंता का विषय है' - क्योंकि 'बाबा साहब आंबेडकर का नाम और आपने मन में ये भाव उठे... देश ये सुनने के लिए तैयार नहीं है.'
कांग्रेस नेता आनंद शर्मा की बातें भी जान लीजिये, 'दो साल पहले भी यही स्थिति पैदा हुई थी - और हमने विरोध दर्ज कराया था... हमारी अपेक्षा थी कि सरकार सचेत हो जाएगी और विपक्ष को सम्मान देगी.'
ऐसा क्यों लगता है कि सरकार वही करेगी जो विपक्ष चाहता है और वो भी मोदी-शाह के नेतृत्व वाली सरकार, जो सत्ता में आयी ही हो कांग्रेस मुक्त भारत के स्लोगन के साथ. कांग्रेस के किनारे लगाने के बाद पूरे विपक्ष को नेस्तनाबूद करने में लगी हुई हो.
संविधान और राष्ट्रपति के सम्मान की बात करते हुए आनंद शर्मा कहते हैं, 'अगर विपक्ष के नेताओं को प्रजातंत्र या संविधान के जश्न के आयोजन में शामिल नहीं किया जाएगा और सिर्फ दर्शक की तरह बुलाया जाएगा, तो ये हमें स्वीकार नहीं है.'
आनंद शर्मा के मुताबिक, दो साल भी वही चीज दोहरायी गयी है. फिर तो उनको दोबारा ऐसा ही होने की आशंका निश्चित तौर पर होगी ही. अगर ऐसा था तो काउंटर के उपाय खोजने चाहिये थे, न कि सत्ता पक्ष के लिए खुला मैदान ही छोड़ देना चाहिये था - अगर ऐसी ही परिस्थितियां चुनावी राजनीति में भी आ गयीं तो क्या विपक्ष चुनाव मैदान में भी वॉक ओवर दे देगा? जैसे धारा 370 हटाये जाने के पहले कांग्रेस और उसकी सहयोगी नेशनल कांफ्रेंस बीडीसी चुनावों का बहिष्कार किये थे.
सत्ता पक्ष को तो ऐसे मौके चाहिये ही होते हैं, लेकिन विपक्ष भी तो जरूरत के हिसाब से ही रणनीति तैयार करनी चाहिये. अगर एक रणनीति कारगर नहीं होती तो दूसरे तरीके से तैयार करनी चाहिये - क्योंकि विपक्ष ऐसे ही मैदान छोड़ देगा फिर लोकतंत्र का क्या होगा?
सरकारी समारोह के विपक्षी दलों के बहिष्कार के बीच कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भी लोगों को संविधान दिवस पर शुभकामनाएं दी हैं - जिसमें वो खुद की जिम्मेदारी की भी बात कर रहे हैं.
विपक्ष के बहिष्कार के फैसले को सही ठहराते हुए सीपीएम महासचिव सीताराम येचुरी कह रहे हैं, 'पाखंड की पराकाष्ठा है. जब संविधान की मूल विशेषताओं को कमतर किया जा रहा है तो उस वक्त संविधान दिवस मनाया जा रहा है... संविधान में दिये गये मौलिक अधिकारों का हनन किये जाने के विरोध में विपक्षी दलों ने इसका बहिष्कार किया.'
सारी शिकायतें वाजिब और अपनी जगह हैं, लेकिन संविधान दिवस समारोह को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक महत्वपूर्ण बात भी कही है, 'ये कार्यक्रम सरकार, दल या प्रधानमंत्री का नहीं है... ये कार्यक्रम सदन का है... इस पवित्र जगह का है... स्पीकर और बाबा अंबेडकर की गरिमा है और हम इसे बनाये रखें.'
मोदी के चुनावी भाषण में और क्या क्या रहा?
1. मुलायम और गांधी परिवार निशाने पर: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने परिवारवाद की राजनीति को लोकतंत्र के लिए सबसे खतरनाक बताया, लेकिन लगे हाथ बीजेपी पर लगने वाले तोहमत का बचाव भी कर लिया.
प्रधानमंत्री मोदी का कहना था, 'भारत एक ऐसे संकट की ओर बढ़ रहा है जो संविधान को समर्पित लोगों के लिए चिंता का विषय है... लोकतंत्र के प्रति आस्था रखने वालों के लिए चिंता का विषय है और वो है - पारिवारिक पार्टियां'
सीधे सीधे तो प्रधानमंत्री मोदी के निशाने पर गांधी परिवार और यूपी चुनाव के चलते मुलायम परिवार ही लगता है, लेकिन ये फेहरिस्त बड़ी लंबी है. बिहार में आरजेडी का लालू परिवार, तमिलनाडु में डीएमके का करुणानिधि परिवार, महाराष्ट्र में शिवसेना का ठाकरे परिवार सबके सब इसी दायरे में आते हैं.
बीजेपी फेमिली पार्टी के पैमाने से तो बाहर निकल जाती है, लेकिन टिकटों के बंटवारे या तरक्की में तरजीह दिये जाने को लेकर वंशवाद के तोहमत से नहीं निकल पाती - शायद इसी वजह से प्रधानमंत्री मोदी ने परिवारवाद की राजनीति में से एक क्लॉज अलग कर थोड़ी छूट मिलने की वकालत भी कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री मोदी का कहना है, 'योग्यता के आधार पर एक परिवार से एक से अधिक लोग जायें... इससे पार्टी परिवारवादी नहीं बन जाती है, लेकिन एक पार्टी पीढ़ी दर पीढ़ी राजनीति में है...'
शिवसेना प्रवक्ता अरविंद सावंत ने प्रधानमंत्री मोदी के परिवारवाद की राजनीति पर हमले को लेकर पलटवार किया है. अरविंद सावंत का कहना है कि पारिवारिक राजनीति करने वाली पार्टियों के कंधे पर चढ़ कर ही तो वो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर पहुंचे हैं - और अब ऐसी बातें करते हैं जो उनके लिए सुविधाजनक हैं.
2. लालू यादव की राजनीति खटकने लगी है: लगता है जेल से जमानत पर छूटने के बाद लालू यादव की राजनीतिक गतिविधियां भी बीजेपी नेतृत्व की नजर में चढ़ चुकी हैं. दिल्ली पहुंचने के बाद जब लालू यादव एक्टिव हुए तो जातीय जनगणना को लेकर मुहिम शुरू कर दिये - और हाल के बिहार उपचुनाव में तो रैली करने ही पहुंच गये थे.
तभी तो प्रधानमंत्री मोदी पूछ रहे हैं, 'क्या हमारा संविधान भ्रष्टाचार की अनुमति देता है?''
नाम न लेकर भी प्रधानमंत्री जो कुछ कहते हैं, निशाने पर लालू यादव ही नजर आते हैं, 'चिंता तब होती है... जब न्यायपालिका ने किसी को सजा दे दी हो... राजनीतिक स्वार्थ के कारण उसका भी महिमामंडन चलता है... भ्रष्टाचार को नजरअंदाज कर... सारी मर्यादाओं को तोड़कर उनके साथ लोगों का उठना-बैठना शुरू हो जाता है... ऐसे में देश को नौजवानों को लगता है कि भ्रष्टाचार के रास्ते पर चलना खराब नहीं है... लोग कुछ समय बाद इसे स्वीकार कर लेते हैं.'
आगे भी आगाह करते हैं, 'गुनाह सिद्ध हुआ तो सुधरने का मौका दिया जाये... पर सार्वजनिक जीवन में प्रतिष्ठा देने की प्रतिस्पर्धा चल रही है... ये नये लोगों को लूट के रास्ते पर जाने के लिए प्रेरित करती है.'
ये जातीय जनगणना को लेकर लालू यादव की मुहिम ही रही कि महागठबंधन छोड़ एनडीए में लौटने के बाद पहली बार नीतीश कुमार बिहार के प्रतिनिधिमंडल के साथ प्रधानमंत्री मोदी से आमने सामने टेबल पर बात करने दिल्ली पहुंच गये और वो भी तेजस्वी यादव को लेकर जिनको चुनावों में मोदी 'जंगलराज के युवराज' बुलाया करते थे.
3. जैसे कृषि कानूनों को वापस लेने का दर्द छलक आया हो: नाम तो प्रधानमंत्री मोदी ने किसानों या किसान आंदोलन का भी नहीं लिया, लेकिन अधिकारों के साथ कर्तव्य की याद भी तरीके से दिला रहे थे - और तस्वीर का दूसरा पहलू देखें तो लगता है जैसे तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने का दर्द छलक आया हो.
प्रधानमंत्री का कहना था, 'आज जरूरी है कि हम कर्तव्य के माध्यम से अधिकारों की रक्षा के रास्ते पर चलें... कर्तव्य वो पथ है जो अधिकार को सम्मान के साथ दूसरों को देता है... कर्तव्य को जितनी ज्यादा मात्रा में निष्ठा से मनाएंगे उससे सभी के अधिकारों की रक्षा होगी.'
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