बीस साल बाद देश का विपक्ष एक बार फिर वैसा ही नजर आ रहा है. जैसे 2004 में विपक्ष बिखरा हुआ था, एक बार फिर 2024 के लिए भी वैसे ही आसार नजर आने लगे हैं - 2004 में यूपीए का गठन तो हुआ था, लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद ही.
जब किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला तो मिल जुल कर प्रयास किये गये. कांग्रेस को लेफ्ट का साथ मिला और फिर बीजेपी के साथ न जाने का फैसला करने वाले राजनीतिक दल भी कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार कर लेना ही बेहतर समझे - और 2009 में सत्ता में वापसी के बाद कुल दस साल तक लगातार गठबंधन की सरकार चली भी.
ये ठीक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के मुकाबले देश का कोई भी नेता उनके आस पास नहीं टिकता. बाकी राजनीतिक दलों में ही नहीं बीजेपी में भी अभी कोई ऐसा नहीं है जिसकी लोकप्रियता मोदी के आस पास पहुंच पाती हो. बीजेपी में अगर कोई दूसरे या तीसरे नंबर का दावेदार होता है तो भी वो लोकप्रियता के पैमाने पर काफी दूर नजर आता है.
और 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की भी वैसे ही बेहद लोकप्रिय थे. हालांकि, तब लालकृष्ण आडवाणी का भी अपना जनाधार हुआ करता था, लेकिन वो सर्वस्वीकार्य कैटेगरी वाले नहीं माने जाते रहे.
वाजपेयी युग के शाइनिंग इंडिया मुहिम की झलक ही मोदी-शाह की बीजेपी न्यू इंडिया कंसेप्ट में देखने की कोशिश हो रही है. तब भी बीजेपी की राजनीति हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे वाली ही रही, लेकिन येन केन प्रकारेण जैसी जीत की भूख और कुख्यात ऑपरेशन लोटस जैसे तिकड़मों से परहेज देखने को मिलता रहा.
2019 के आम चुनाव में सोनिया गांधी ने पहली एनडीए सरकार की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि वाजपेयी भी तो तब अजेय ही माने जाते थे. ऐसा कहने के पीछे सोनिया गांधी का आशय यही था कि जैसे वाजपेयी को हार का मुंह देखना पड़ा था, मोदी को भी वैसे ही...
बीस साल बाद देश का विपक्ष एक बार फिर वैसा ही नजर आ रहा है. जैसे 2004 में विपक्ष बिखरा हुआ था, एक बार फिर 2024 के लिए भी वैसे ही आसार नजर आने लगे हैं - 2004 में यूपीए का गठन तो हुआ था, लेकिन चुनाव नतीजे आने के बाद ही.
जब किसी भी राजनीतिक दल को बहुमत नहीं मिला तो मिल जुल कर प्रयास किये गये. कांग्रेस को लेफ्ट का साथ मिला और फिर बीजेपी के साथ न जाने का फैसला करने वाले राजनीतिक दल भी कांग्रेस का नेतृत्व स्वीकार कर लेना ही बेहतर समझे - और 2009 में सत्ता में वापसी के बाद कुल दस साल तक लगातार गठबंधन की सरकार चली भी.
ये ठीक है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता के मुकाबले देश का कोई भी नेता उनके आस पास नहीं टिकता. बाकी राजनीतिक दलों में ही नहीं बीजेपी में भी अभी कोई ऐसा नहीं है जिसकी लोकप्रियता मोदी के आस पास पहुंच पाती हो. बीजेपी में अगर कोई दूसरे या तीसरे नंबर का दावेदार होता है तो भी वो लोकप्रियता के पैमाने पर काफी दूर नजर आता है.
और 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी की भी वैसे ही बेहद लोकप्रिय थे. हालांकि, तब लालकृष्ण आडवाणी का भी अपना जनाधार हुआ करता था, लेकिन वो सर्वस्वीकार्य कैटेगरी वाले नहीं माने जाते रहे.
वाजपेयी युग के शाइनिंग इंडिया मुहिम की झलक ही मोदी-शाह की बीजेपी न्यू इंडिया कंसेप्ट में देखने की कोशिश हो रही है. तब भी बीजेपी की राजनीति हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के एजेंडे वाली ही रही, लेकिन येन केन प्रकारेण जैसी जीत की भूख और कुख्यात ऑपरेशन लोटस जैसे तिकड़मों से परहेज देखने को मिलता रहा.
2019 के आम चुनाव में सोनिया गांधी ने पहली एनडीए सरकार की तरफ इशारा करते हुए कहा था कि वाजपेयी भी तो तब अजेय ही माने जाते थे. ऐसा कहने के पीछे सोनिया गांधी का आशय यही था कि जैसे वाजपेयी को हार का मुंह देखना पड़ा था, मोदी को भी वैसे ही शिकस्त दी जा सकती है. सोनिया गांधी का आत्मविश्वास तब जाता रहा जब गांधी परिवार के गढ़ समझे जाने वाले अमेठी से राहुल गांधी को बीजेपी की स्मृति ईरानी ने चलता कर दिया.
लाख कोशिशों के बावजूद अब तक ऐसा कोई लक्षण नहीं देखने को मिला है जिससे विपक्ष के एकजुट होकर अगला आम चुनाव लड़ने की जरा भी संभावना मालूम पड़ती हो. सोनिया गांधी ने अपने प्रभाव, संपर्क और रणनीति से विपक्ष को कांग्रेस से इतर एकजुट होने से तो रोक दिया है, लेकिन बात उससे आगे नहीं बढ़ पा रही है.
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) की भारत जोड़ो यात्रा से भी कांग्रेस का आत्मविश्वास काफी बढ़ा हुआ लग रहा है, लेकिन अब भी वो विपक्षी खेमे के. चंद्रशेखर राव (K Chandrashekhar Rao) और अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं के प्रति अपना पूर्वाग्रह खत्म नहीं कर पा रही है.
विपक्षी खेमे में एक मुद्दे पर तो एक राय है कि 2024 के आम चुनाव में बीजेपी को सत्ता से बेदखल करना है, लेकिन आम राय इस बात पर नहीं बन पा रही है कि सारे विपक्षी दल एक साथ मिल कर बीजेपी के चैलेंज करें - और अब तो दूर दूर तक ऐसे संकेत भी नहीं दिखायी पड़ रहे हैं.
भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह के बहाने विपक्ष को एक मंच पर लाने की कोशिश तो हो रही है, लेकिन वो अधूरी है. कहने को तो नीतीश कुमार (Nitish Kumar) को राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने से बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को भी कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन वो अलग ही विपक्षी दलों का एक फोरम खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं.
अब अगर सीट शेयरिंग पर दवाब बनाने के लिए ये सब नहीं किया जा रहा है, तो मान कर चलना चाहिये कि 2024 में भी यूपीए या किसी और नाम से सरकार चलाने के लिए कोई गठबंधन बन सकेगा - बशर्ते देश की जनता ऐसा होने देना चाहे.
कांग्रेस की नयी कवायद भी पुराने स्टाइल की है
ये तो कांग्रेस को भी पता होगा ही कि जिस रास्ते पर वो चलने की कोशिश कर रही है, अकेले 2024 की वैतरणी पार करना नामुमकिन है - लेकिन केसीआर और अरविंद केजरीवाल को अपने मंच से दूर रखने के पीछे भला क्या तर्क हो सकता है?
कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे की तरफ से विपक्षी खेमे के करीब दो दर्जन राजनीतिक दलों को चिट्ठियां भेजी गयी हैं. मल्लिकार्जुन खड़गे ने सबसे ये भी कहा है कि पत्र वो व्यक्तिगत तौर पर भेज रहे हैं. ऐसा करने के पीछे ये कहने की कोशिश भी हो सकती है कि आमंत्रण को सिर्फ कांग्रेस पार्टी का एक औपचारिक न्योता भर न समझा जाये.
भावनात्मक अपील लोगों को आपस में ज्यादा जोड़ती है. लेकिन तभी जब मकसद सिर्फ इमोशनल अत्याचार न हो - फिर तो सवाल ये भी उठता है कि आखिर केसीआर और केजरीवाल से मल्लिकार्जुन खड़गे का ऐसा कौन सा व्यक्तिगत दुराव है जो दोनों को भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह में नहीं बुला रहे हैं?
केसीआर और केजरीवाल तो बुलाये ही नहीं गये हैं, लेकिन ऐसे भी कई नेता हैं जो बुलाने के बावजूद नहीं जाने का मन बना चुके हैं. मसलन, समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव. अखिलेश यादव ने केसीआर की रैली में जाने की सार्वजनिक हामी भी भरी है, लेकिन राहुल गांधी के साथ मंच शेयर करने का अब भी मन नहीं बना पा रहे हैं. 2017 के यूपी विधानसभा में 'यूपी को ये साथ पसंद है' स्लोगन के साथ दोनों एक साथ रोड शो और चुनावी रैलियां किया करते थे.
भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होने के सवाल पर तो नीतीश कुमार का कहना रहा कि वो कांग्रेस का अपना कार्यक्रम है और हर किसी को अपने तरीके से कार्यक्रम करने का हक हासिल है. नीतीश कुमार खुद भी समाधान यात्रा पर निकले हुए हैं - लगता नहीं कि समापन समारोह को लेकर भी उनका स्टैंड बदलने वाला है.
तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने हाल फिलहाल भारत जोड़ो यात्रा की तारीफ की है. इसे कांग्रेस के प्रति टीएमसी के रवैये में नरमी के तौर पर भले ही महसूस किया जा रहा है, लेकिन ममता बनर्जी श्रीनगर जाकर कांग्रेस के साथ मंच शेयर करेंगी, ऐसी बहुत ही कम संभावना है. देखना होगा ममता बनर्जी का कोई प्रतिनिधि पहुंचता है या नहीं.
ये पांच नेता ऐसे हैं जिनका अपने इलाके में जबरदस्त प्रभाव है. नीतीश कुमार के पास भले ही बाकियों की तरह जनता सपोर्ट की ताकत न हो, लेकिन उनका राजनीतिक अनुभव जबरदस्त है - और अब तक उसी की बदौलत वो खेल खेलते रहे हैं.
लेकिन अगर कांग्रेस को लगता है कि ऐसे नेताओं के बगैर भी वो 2024 की जंग अकेले जीत लेगी तो अलग बात है. 2019 के लिए भी तो कांग्रेस ने पूरे पांच साल तैयारी की ही थी - अगर अंदर ही अंदर किसी और रणनीति पर काम चल रहा है तो भी बात अलग है.
जनता परिवार को मिलाने की कोशिश
बीजेपी का साथ छोड़ने के बाद नीतीश कुमार एक बार लालू यादव के साथ दिल्ली में सोनिया गांधी से मुलाकात भी कर चुके हैं. पटना पहुंचे मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा भी था कि नीतीश कुमार की पहल पर वो विचार करेंगे, लेकिन अभी तक कोई अपडेट सामने तो नहीं आया है. ये भी है कि वो गुजरात और हिमाचल प्रदेश चुनावों के अलावा भारत जोड़ो यात्रा में भी व्यस्त रहे होंगे.
बीच बीच में ये खबर भी आ रही है कि नीतीश कुमार फिलहाल पुराने जनता परिवार को इकट्ठा करने की कोशिश में जुटे हुए हैं. ये कोशिश हिंदी पट्टी के बीजेपी विरोधी राजनीतिक दलों को एक साथ लाने की है - कहने को तो ममता बनर्जी ये जरूर कह चुकी हैं कि वो नीतीश कुमार और हेमंत सोरेन के साथ मिल कर 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को हराने में सफल होंगी.
ममता बनर्जी भी अरविंद केजरीवाल की ही तरह फिर से 'एकला चलो' व्यवहार करने लगी हैं. हालांकि, जय श्रीराम के नारे उनको अक्सर परेशान भी कर देते हैं और वो बीजेपी से चिढ़ जाती हैं. मुश्किल ये है कि विपक्षी खेमे में भी अब उनको कोई खास तवज्जो नहीं दे रहा है. अब शरद पवार के फोन का जवाब नहीं देंगी तो क्या हाल होगा?
वैसे नीतीश कुमार के मिशन में अखिलेश यादव और हेमंत सोरेन ही नहीं, बल्कि कर्नाटक में कुमारस्वामी और ओडीशा के नवीन पटनायक तक को साथ लाने की है. ये भी है कि नीतीश कुमार और नवीन पटनायक के पुराने व्यक्तिगत संबंध भी रहे हैं - और बीच बीच में एक दूसरे को ओब्लाइज करते भी देखा गया है.
लेकिन एक सवाल ये भी खड़ा हो गया है कि अगर केसीआर और नीतीश कुमार अलग अलग फोरम पर काम कर रहे हैं तो अखिलेश यादव किधर का रुख करेंगे?
केसीआर का साझा विपक्ष प्रयास
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव भी 18 जनवरी को हैदराबाद में विपक्ष की एक बड़ी रैली की तैयारी कर रहे हैं. सुनने में ये आ रहा है कि केसीआर ने भी राहुल गांधी की ही तरह विपक्षी खेमे के दो दिग्गजों से दूरी बना ली है - ये हैं ममता बनर्जी और नीतीश कुमार.
अगर सीधे सीधे इसे ऐसे न लिया जाये तो केसीआर ने सिर्फ चार नेताओं को बुलाया है - अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, भगवंत मान और केरल के मुख्यमंत्री के. विजयन को.
ममता बनर्जी से तो केसीआर की खुन्नस समझ में भी आती है. कोलकाता में ममता बनर्जी ने केसीआर के साथ मीडिया के सामने आने से जरूर इनकार कर दिया था, लेकिन पटना में तो नीतीश कुमार ने साझा प्रेस कांफ्रेंस भी की थी.
अभी तक सिर्फ अखिलेश यादव ने सार्वजनिक तौर पर केसीआर की रैली में हिस्ला लेना कंफर्म किया है. बाकी बुलाये तो दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनके पंजाबी समकक्ष भगवंत मान भी गये - रैली में पहुंचते हैं कि नहीं अभी बताया तो नहीं है.
और सब तो ठीक है, लेकिन केसीआर की रैली में अखिलेश यादव के जाने के फैसले से थोड़ा संदेह पैदा होता है. भारत जोड़ो यात्रा से दूरी बनाना और बात है, लेकिन उस रैली में शामिल होने का फैसला करना जिससे नीतीश कुमार को दूर रखा जा रहा हो, अजीब तो लगता है. तब तो और भी जब अखिलेश यादव को नीतीश कुमार यूपी में महागठबंधन का नेता घोषित कर चुके हों.
एक निर्गुट विपक्षी खेमा भी है
विपक्षी नेताओं की जो अलग अलग खेमेबंदी अभी नजर आ रही है, उसमें एक अघोषित निर्गुट आंदोलन भी पहले से ही चल रहा है - निर्गुट आंदोलन का कोई नेता तो नहीं है, लेकिन सदस्यों की संख्या बढ़ती हुई लग रही है.
अभी तक भारतीय राजनीति के निर्गुट आंदोलन में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री जगनमोहन रेड्डी, नवीन पटनायक और मायावती को तो देखा ही गया है, ऐसा लगता है ममता बनर्जी भी धीरे धीरे मन बना रही हैं.
समझने वाली बात ये है कि ये निर्गुट आंदोलन भी कोई तटस्थ नहीं लगता. कहने को तो ये नेता कांग्रेस और बीजेपी दोनों से दूरी बनाने का दावा करते हैं, लेकिन नवीन पटनायक को छोड़ दें तो लगता है कि जगनमोहन रेड्डी और मायावती तो केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के हितों वाली बातों का ही सपोर्ट करते हैं.
कुल मिला कर अब जो हाल समझ में आ रहा है, ऐसा लगता है 2024 के आम चुनाव से पहले तो विपक्षी दलों के बीच कोई बड़ा गठबंधन होने से रहा - हां, ये हो सकता है कि चुनाव नतीजे आने के बाद जिसकी जितनी आबादी उसकी उतनी हिस्सेदारी की तर्ज पर कोई समझौता हो पाये.
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