कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी चिंता से घिरे हुए हैं. तीन हफ्ते पहले ही उनके शपथ ग्रहण समारोह में विपक्ष की एकता का प्रदर्शन करने के लिए देश भर के सभी बड़े नेता एकत्रित हुए थे. विपक्ष द्वारा एकजुटता का ये प्रदर्शन 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी सरकार को कड़ा मुकाबला देने के मकसद से किया गया था. लेकिन वो प्रयोग तीन हफ्ते में ही डगमगाने लगा है.
विधानसभा में सिर्फ 37 सीटों के बावजूद मुख्य मंत्री पद अपने हिस्से में कर लेने वाला जेडी (एस) इस महागठबंधन के लिए हमेशा ही एक ऐसी कड़ी होगा जिसे पहले तो किसी ने नहीं पूछा लेकिन भविष्य में उसकी जरुरत अब सभी को पड़ेगी. इनका दुर्भाग्य ये है कि कांग्रेस फिर से अपनी पुरानी आदतों को दोहराने लगी है. बीजेपी के कब्जे वाली जयनगर सीट पर कल की जीत के बाद से ये बात और साफ तरीके से सामने आ गई है.
कर्नाटक में मंत्रिपरिषद की सीट के लिए लगभग सारे कांग्रेसी विधायक दावेदार हैं. लिंगायत नेता एमबी पाटिल ने बीएस येदियुरप्पा के लिंगायत वोट को बांटने में पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया में मदद की थी. लेकिन एमबी पाटिक को ही दरकिनार कर दिया गया. सिद्धारमैया ने तो अपनी इज्जत खुद ही गंवा दी. विधानसभा चुनावों में उन्होंने दो सीटों पर चुनाव लड़ा. जिसमें से एक चमुंडेश्वरी सीट पर उन्हें हार मिली और दूसरी बादामी की सीट पर वो हांफते हांफते जीते. कांग्रेस विधायकों के बीच मंत्रालय के बंटवारे को लेकर होने वाली आंतरिक बैठक में भी वो मौजूद नहीं थे.
मंत्री-
22 में से छह पोर्टफोलियो अभी भी खाली हैं. और इन छह मंत्रालयों के लिए 20 से अधिक कांग्रेसी विधायकों के बीच खींचतान जारी है. इस स्थिति का हल निकालने के...
कर्नाटक के मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी चिंता से घिरे हुए हैं. तीन हफ्ते पहले ही उनके शपथ ग्रहण समारोह में विपक्ष की एकता का प्रदर्शन करने के लिए देश भर के सभी बड़े नेता एकत्रित हुए थे. विपक्ष द्वारा एकजुटता का ये प्रदर्शन 2019 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी सरकार को कड़ा मुकाबला देने के मकसद से किया गया था. लेकिन वो प्रयोग तीन हफ्ते में ही डगमगाने लगा है.
विधानसभा में सिर्फ 37 सीटों के बावजूद मुख्य मंत्री पद अपने हिस्से में कर लेने वाला जेडी (एस) इस महागठबंधन के लिए हमेशा ही एक ऐसी कड़ी होगा जिसे पहले तो किसी ने नहीं पूछा लेकिन भविष्य में उसकी जरुरत अब सभी को पड़ेगी. इनका दुर्भाग्य ये है कि कांग्रेस फिर से अपनी पुरानी आदतों को दोहराने लगी है. बीजेपी के कब्जे वाली जयनगर सीट पर कल की जीत के बाद से ये बात और साफ तरीके से सामने आ गई है.
कर्नाटक में मंत्रिपरिषद की सीट के लिए लगभग सारे कांग्रेसी विधायक दावेदार हैं. लिंगायत नेता एमबी पाटिल ने बीएस येदियुरप्पा के लिंगायत वोट को बांटने में पूर्व मुख्यमंत्री सिद्धारमैया में मदद की थी. लेकिन एमबी पाटिक को ही दरकिनार कर दिया गया. सिद्धारमैया ने तो अपनी इज्जत खुद ही गंवा दी. विधानसभा चुनावों में उन्होंने दो सीटों पर चुनाव लड़ा. जिसमें से एक चमुंडेश्वरी सीट पर उन्हें हार मिली और दूसरी बादामी की सीट पर वो हांफते हांफते जीते. कांग्रेस विधायकों के बीच मंत्रालय के बंटवारे को लेकर होने वाली आंतरिक बैठक में भी वो मौजूद नहीं थे.
मंत्री-
22 में से छह पोर्टफोलियो अभी भी खाली हैं. और इन छह मंत्रालयों के लिए 20 से अधिक कांग्रेसी विधायकों के बीच खींचतान जारी है. इस स्थिति का हल निकालने के लिए हाई कमान (राहुल और सोनिया गांधी) ने पारंपरिक भारतीय जुगाड़ पद्धति का इस्तेमाल किया: छह- छह महीने के लिए मंत्री बनाना.
कांग्रेस विधायकों के बीच की ये म्यूजिकल चेयर सेटिंग विचित्र है. इसमें होगा ये कि हर कांग्रेसी विधायक, अपने साथी विधायक पर छह महीने होते ही अपनी कुर्सी छोड़ने के लिए दबाव बनाने लगेगा. पारसी शादियों में मेहमानों को खाना खिलाने के लिए एक परंपरा है. पहले बैच के खाना खत्म करने से पहले ही उनकी कुर्सियों के पीछे भूखे लोग आकर खड़े हो जाते हैं. ये खाने वाले लोगों के लिए एक इशारा होता है कि अब उनका समय खत्म हो गया है और वो जितना खा चुके काफी है. अब उन्हें कुर्सी छोड़कर उठ जाना चाहिए और दूसरे लोगों को बैठने की जगह देनी चाहिए. कर्नाटक में भी अब ठीक यही होने वाला है.
विपक्ष के इस महागठबंधन की मुख्य समस्या है अपना एक नेता चुनने पर सर्वसम्मति बनाना. 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी के बाद कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर सकती है. हालांकि फिर भी राहुल गांधी इस राष्ट्रीय महागठबंधन के नेता स्वीकार नहीं किए जाएंगे. मोदी के खिलाफ आमने सामने की लड़ाई में विपक्ष का वोट प्रतिशत बढ़ने के बजाए उन्हें हार का सामना करना पड़ सकता है.
मायावती दलित वोटों के बल पर अपना दावा पेश करेंगी. ममता बनर्जी ने पहले ही गठबंधन के नेतृत्व की अपनी इच्छा जाहिर की है. उन्होंने 400 सीटों पर संयुक्त विपक्ष और बीजेपी के बीच आमने सामने की लड़ाई का प्रस्ताव दिया है. लेकिन पश्चिम बंगाल को सांप्रदायिक हिंसा का केन्द्र बना देना उनकी दावेदारी को कमजोर कर सकता है.
हमेशा की तरह अभी भी शिवसेना हवा में तीर चला रही है. उन्होंने प्रणब मुखर्जी को सर्वसम्मति से प्रधान मंत्री के रुप में पेश करने का सुझाव दिया है. हालांकि मुखर्जी के कार्यालय ने प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया है. बेटी शर्मिष्ठा ने भी इस बात से साफ इंकार किया है कि उनके पिता अब दोबारा राजनीति में प्रवेश करेंगे. हालांकि परंपरा के मुताबिक पूर्व राष्ट्रपति पद से हटने के बाद पूरी तरह से राजनीति से दूर हो जाते हैं. लेकिन भारतीय राजनीति में कुछ भी हो सकता है. और इस बात में भी कोई शक नहीं कि नागपुर में आरएसएस मुख्यालय की यात्रा के बाद अब कांग्रेस हाई कमान मुखर्जी को प्रधान मंत्री के रूप में स्वीकार नहीं करेगी.
मुख्य समस्या-
इस बीच बीजेपी की मुख्य समस्या उसके अपने सहयोगियों में ही निहित है. 2014 में ये 24 सहयोगियों के साथ शुरू हुआ था. इनमें से ज्यादातर छोटे दल हैं. सिर्फ शिवसेना (18 सांसद) और टीडीपी (14 सांसद) ही ऐसे दल हैं जिनके सांसदों की संख्या दो अंकों में थी.
टीडीपी ने गठबंधन से नाता तोड़ लिया है, लेकिन राजनीतिक हस्तक्षेप से इसे वापस लाया जा सकता है. शिव सेना ने एनडीए छोड़ने की गीदड़भभकी इतनी बार दे दी है कि अब उसकी बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता. वैसे शिव सेना का असली मकसद 2019 के लोकसभा चुनाव में ज्यादा से ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़ना है. शायद महाराष्ट्र के 48 में से 24 सीटों पर वो दावा करेगी और हो सकता है कि वो इसे पा भी लें. लेकिन शिव सेना को ये भी बहुत अच्छे से पता है कि एनडीए के बाहर उनका कोई अस्तित्व नहीं है. लेकिन इतने के बाद भी बीजेपी की समस्याएं गंभीर हैं.
अगर उत्तर प्रदेश में एसपी-बीएसपी-कांग्रेस का गठबंधन औपचारिक हो जाता है, तो राज्य में भाजपा बड़ी संख्या में सीटें गंवा सकती है. मध्य प्रदेश में, कांग्रेस-बीएसपी गठबंधन भी इसे चोट पहुंचा सकता है. वहीं बेचैन जेडी (यू) को भी ध्यान से रखने की जरुरत है.
गठबंधन धर्म-
इनकी अब प्रमुख रणनीति अनौपचारिक गठबंधनों की होगी. खासकर ओडिशा में जहां 2019 में लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ ही होने वाले हैं. तेलंगाना में टीआरएस को अपने साथ लाना होगा और आंध्र प्रदेश में टीडीपी और वाईएसआर कांग्रेस के साथ एक गुट बनाना होगा.
इन सभी के लिए प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह को अपने अहंकार को छोड़ना होगा और गठबंधन धर्म को गले लगाना होगा. अगर 2019 में मोदी की सरकार दोबारा सत्ता में आती है तो फिर संभवतः वो यूपीए-2 सरकार की तरह ही होगी. जब कांग्रेस ने 206 सीटें जीती थीं और इसके सहयोगियों ने अपने सहयोग से इसे 272 सीटों पर पहुंचा दिया था. 2009 में उन 206 सीटों के लिए कांग्रेस को सिर्फ 28.55 प्रतिशत वोट मिले थे. उस समय बहुत से लोगों ने कहा था कि 72 प्रतिशत भारत ने कांग्रेस के खिलाफ मतदान किया है. लेकिन भारतीय मीडिया और राजनीति में, दोहरे मानकों और पाखंड हाथ में हाथ मिलाकर चलते हैं और स्थायी हैं.
2019 में मोदी सरकार को पछाड़ने के मकसद से गठबंधन को साकार करने के मकसद से पूरा विपक्ष बेंगलुरु में एकजुट हुआ था. लेकिन अब कांग्रेस और जेडीएस के बीच की खींचतान को देखकर वो परेशान ही होंगे और भविष्य अधर में लटका होगा.
ये भविष्य की भविष्यवाणी कर सकता है.
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