गुजरात के चुनाव नतीजे को तो ऐसे ही समझा जा रहा है जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के सामने 2024 (General Election 2024) में 'कोई नहीं है टक्कर मेंट टाइप का मामला होने वाला है, लेकिन 'सावधानी हटी, दुर्घटना घटी' का स्कोप भी तो कभी खत्म नहीं होता - ये जो हिमाचल मॉडल सामने आया है, असल में बीजेपी के सामने आने वाली बड़ी चुनौतियों में से एक है.
पश्चिम बंगाल की हार के बाद बीजेपी के लिए उत्तर प्रदेश और फिर गुजरात चुनाव जीतना बेहद जरूरी था. बीजेपी नेतृत्व से लेकर जमीनी कार्यकर्ता तक, हर कोई जी जान से शुरू से आखिर तक जुटा रहा. ऐसा सभी ने देखा.
यूपी और गुजरात दोनों ही चुनावों की अहमियत ऐसे समझी जा सकती है कि मोदी-शाह ने बहुत कुछ दांव पर लगा दिया था, और काफी कुछ गवांया भी. थोड़ा हट कर देखें तो क्या ऐसा नहीं लगता कि गुजरात के लिए बीजेपी ने एमसीडी गवांने का जोखिम काफी सोच समझ कर पहले से उठा लिया था? और हिमाचल को भी जेपी नड्डा और अनुराग ठाकुर के हवाले कर मोदी-शाह गुजरात में ही जमे रहे?
अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी को दिल्ली में उलझा कर बीजेपी गुजरात में अपना काम करती रही. ऊपर से तो लगता है कि लाख कोशिशों के बावजूद अरविंद केजरीवाल महज 5 सीटें ही जीत पाये, लेकिन ये भी तो सवाल है कि वो मोदी-शाह के सामने चैलेंज करते हुए गुजरात में घुस कर ऐसा कर डाले. आखिर गुजरात चुनाव की बदौलत ही तो आम आदमी पार्टी को राष्ट्रीय दर्जा भी मिल रहा है.
एमसीडी पर बीजेपी का दांव भी तो करीब करीब वैसा ही है जैसा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का तीनों कृषि कानूनों को 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों से पहले वापस लेने की घोषणा कर देना - और उसके बाद यूपी की तरह अब गुजरात की जंग भी जीत लेना. है कि नहीं?
देखा जाये तो मोदी के चेहरे का जादू और अमित शाह की परदे के पीछे की रणनीति ने बीजेपी के यूपी और गुजरात दोनों ही मिशन को अंजाम तक पहुंचा दिया है - ये भी मान कर चलना चाहिये कि 2023 के आखिर तक होने वाले सारे ही विधानसभा चुनाव बीजेपी 'गुजरात मॉडल' को आधार बना कर ही लड़ने जा रही है. 2022 का गुजरात मॉडल, 2014 से काफी अलग है, ये भी ध्यान देना जरूरी है.
थोड़ी देर के लिए ये भी मान सकते हैं कि अब आगे की लड़ाई बीजेपी के लिए काफी आसान हो गयी है, लेकिन विपक्ष की तरकश में अब भी कुछ ऐसे तीर बचे हुए हैं जो बीजेपी के लिए 2024 में बहुत बड़ी मुश्किल खड़ी कर सकते हैं - और बीजेपी नेतृत्व की एक छोटी सी चूक होने से लेने के देने पड़ सकते हैं.
आप इसे ऐसे भी समझने की कोशिश कर सकते हैं कि 2024 आते आते ये लड़ाई गुजरात मॉडल और हिमाचल प्रदेश मॉडल के रूप में भी सामने आ सकती है. निश्चित तौर पर हिमाचल प्रदेश के एक छोटा राज्य है, जहां से सिर्फ चार लोक सभा सांसद दिल्ली पहुंचते है और उसके मुकाबले देखें तो गुजरात अपने यहां से 26 सांसद भेजता है - लेकिन हिमाचल प्रदेश का चुनाव एक केस स्टडी के तौर पर तो देखा ही जा सकता है. और कुछ नहीं तो हिमाचल प्रदेश में कामयाब रणनीति को ही कांग्रेस नेतृत्व आगे भी जारी रख सकता है.
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) जिस तरह से भारत जोड़ो यात्रा पर पूरी तरह फोकस किये हुए हैं. और जिस तरह कांग्रेस अध्यक्ष खुद न बनने की जिद पूरी किये है, या कहें कि गैर-गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का कमिटमेंट पूरा किया है - ये बीजेपी के लिए एक बुरा सपना और विपक्षी दलों के लिए लंबे वक्त तक खुश रहने का सुंदर ख्याल भी हो सकता है.
हिमाचल मॉडल और एमसीडी चुनाव की रणनीति के साथ विपक्ष आगे बढ़े तो 2024 के चुनाव में भी फायदे में रहेगा.
विपक्ष को एकजुट करने के मिशन में जिस तरह से नीतीश कुमार शिद्दत से लगे हुए हैं, मल्लिकार्जुन खड़गे भी उत्साह और रिजल्ट दिखाने लगे हैं - मुमकिन है कि 2024 के लिए बीजेपी को अपनी रणनीति पर फिर से विचार करने के लिए मजबूर कर रहा हो.
बेशक गुजरात की बेहद शानदार जीत के बाद बीजेपी का जोश हाई हो रखा है, लेकिन एक छोटी सी भी चूक बहुत भारी पड़ सकती है, ये तो कतई नहीं भूलना चाहिये -
जरा भी चूक हुई तो विपक्ष के पास अब भी जो बचे खुचे उपाय हैं 2024 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने बहुत बड़ी मुसीबत बन कर खड़े हो सकते हैं!
गुजरात बनाम हिमाचल मॉडल में दम तो है
2014 के चुनाव कैंपेन से पहले ही बीजेपी ने गुजरात मॉडल को बड़े ही जोर शोर से प्रोजेक्ट किया था. और गुजरात मॉडल की ही बदौलत बीजेपी देश भर में छा गयी. चुनाव की तारीख आने से पहले ही गुजरात मॉडल के जरिये देश भर में मोदी लहर उठ चुकी थी - और प्रशांत किशोर ने अपनी रणनीति से उसकी धार तेज कर दी थी.
फिर भी प्रशांत किशोर की अमित शाह के आगे एक न चली और आखिर में वो चलते बने, आठ साल बाद अमित शाह ने उसी गुजरात मॉडल को नयी पैकेजिंग में पेश किया है. नयी पैकेजिंग में चुनावी जीत का रिकॉर्ड कायम करने का तरीका भी देखा जा सकता है. अब तक की सबसे बड़ी जीत के रिकॉर्ड को 149 सीटों से बढ़ा कर अमित शाह ने 156 तक पहुंचा दिया है - ध्यान रहे बीजेपी ने घोषित तौर पर 150 सीटें जीतने का टारगेट रखा था.
ऐसा भी नहीं कह सकते कि बीजेपी ने हिमाचल प्रदेश में पूरा मैदान छोड़ दिया था. ये जरूर है कि मोदी-शाह गुजरात की तरह हिमाचल प्रदेश चुनाव में नहीं लगे थे - और ये भी नहीं भूलना चाहिये कि कांग्रेस की सत्ता में वापसी के बावजूद हिमाचल प्रदेश में उसकी जीत से ज्यादा बीजेपी की हार ध्यान खींच रही है.
और सबसे बड़ा सबूत है कांग्रेस और बीजेपी के वोट शेयर में महज 0.9 फीसदी का फर्क, लेकिन यही फर्क सीटों के मामले में 40 के मुकाबले 25 का हो जाता है, लेकिन ये भी नहीं भूलना चाहिये कि FPTP चुनाव प्रणाली में नतीजे तो ऐसे ही आते हैं - और एक एक उम्मीदवार की जीत से लेकर बहुमत और सरकार बनाने तक का फैसला एक ही चीज पर निर्भर करता है.
ये दोनों ही मॉडल बीजेपी के लिए भी महत्वपूर्ण हैं, और कांग्रेस के लिए भी. अगर गुजरात मॉडल दुनिया का कोई भी चुनाव जीत लेने का भरोसा दिलाता है, तो हिमाचल मॉडल एक छोटी सी भी चूक होने पर कितनी भी ताकतवर पार्टी की शिकस्त की कहानी भी कह रहा है.
ये ठीक है कि गुजरात मॉडल बीजेपी को अगले आम चुनाव में जीत पक्की मान लेने का भरोसा दिलाता है, तो हिमाचल मॉडल कांग्रेस के साथ साथ पूरे विपक्ष को ये यकीन दिलाने के लिए काफी है कि अगर सही तौर तरीके अपनाये जायें और मुद्दों पर फोकस रहा जाये तो बीजेपी को शिकस्त देना संभव भी हो सकता है - भले ही वोट शेयर का फर्क 0.9 की जगह 0.1 ही क्यों न हो जाये.
मुद्दों पर चुनाव लड़ने की कोशिश हो सकती है
थोड़ी देर के लिए गुजरात चुनाव के नतीजों को अलग रख कर देखें, और हिमाचल प्रदेश विधानसभा और एमसीडी चुनाव के नतीजों पर गौर करें - गौर इस बात पर कि चुनावी मुद्दे क्या रहे? चुनावी माहौल कैसा रहा? और चुनाव कैसे लड़े गये?
जैसे बीजेपी के लिए दोनों ही चुनाव एक जैसे लगते हैं, विपक्ष के लिए भी बराबर अहमियत रखते हैं. जैसे बीजेपी के लिए आने वाले चुनावों में रणनीति पर बार बार विचार करने की जरूरत बताते हैं, विपक्ष के लिए आगे भी बिलकुल वैसी ही रणनीति पर बने रहने का संदेश देते हैं.
दोनों ही चुनाव नतीजों का एक पक्ष ये भी है कि दोनों ही मामलों में बीजेपी सत्ता विरोधी लहर की शिकार हुई है, लेकिन वो लहर ऐसी भी नहीं कि थोड़ी मेहनत से मैनेज न की जा सके. ये भी तो हो सकता है कि जैसे बीजेपी अपने खिलाफ नाराजगी को खत्म करने के उपाय कर सकती है, तो उसके सारे राजनीतिक विरोधी एक साथ पूरी ताकत झोंक कर आगे भी शिकस्त देने की कोशिश कर सकते हैं.
ध्यान दें तो मालूम होता है कि कांग्रेस ने भी हिमाचल प्रदेश में आम जनता से जुड़े वे ही मुद्दे उठाये, जिन मुद्दों पर अरविंद केजरीवाल और उनके साथी ने एमसीडी चुनाव के मैदान में शुरू से आखिर तक डटे रहे.
मतलब, ये कि लोगों के लिए नौकरी, पेंशन और महंगाई जैसे मुद्दे अब भी महत्वपूर्ण हैं. और बीजेपी सरकार के ड्रीम प्रोजेक्ट में से एक अग्निवीर योजना पर भी लोगों ने अपने मन की बात वोटों के जरिये कह डाली है. मतलब, ये कि पाकिस्तान, हिंदू-मुस्लिम और ऐसे बाकी मुद्दे जरूरी नहीं की बार बार वोट दिला पायें - और गुजरात चुनाव के नतीजों को अलग समझने के लिए चाहें तो उसे मोदी के मान से जोड़ कर भी देख सकते हैं.
कहने का मतलब ये है कि अगर विपक्षी दल 2019 में जिन कोशिशों में फेल रहे, 2024 में आजमा सकते हैं - बशर्ते वे मुद्दों पर ही फोकस रहें और थोड़ी देर के लिए सब के सब प्रधानमंत्री बनने का ख्वाब किनारे रख दें.
विपक्ष के लिए अभी तो प्रधानमंत्री पद पर काबिज होना पहाड़ तोड़ने जैसा ही लगता है, लेकिन एक बार मजबूत विपक्ष तो खड़ा किया ही जा सकता है - और विपक्षी दल कांग्रेस के ही नेता कमलनाथ कहते भी हैं, आज के बाद कल आता है, और कल के बाद परसों भी. ध्यान रहे, खास कर विपक्षी दलों को, बीजेपी के रणनीतिकार विरोधियों की छोटी छोटी बातों पर भी बराबर ध्यान देते हैं.
अगर जनता परिवार साथ आ जाये.
शीतकालीन सत्र के पहले दिन मल्लिकार्जुन खड़गे के साथ आम आदमी पार्टी और तृणमूल कांग्रेस के नेताओं को बैठे हुए तो आपने देखा ही, लेकिन क्या बिहार से बार बार सूत्रों के हवाले से आ रही एक खबर पर भी आपने वैसे ही ध्यान दिया? ये खबर लालू यादव के किडनी ट्रांसप्लांट से थोड़े दिन पहले की है, जब राष्ट्रीय जनता दल का चुनाव हुआ था और लालू यादव ने हालात की गंभीरता को भांप कर कमान अपने पास ही रखने का फैसला लिया.
तभी से नीतीश कुमार और लालू यादव के राजनीतिक तौर पर और भी करीब आने की चर्चा रही है. ये करीबी ऐसे पेश की जाती है जैसे जेडीयू का राष्ट्रीय जनता दल में विलय हो सकता है. हालात भी कुछ ऐसे बने हुए हैं कि कई बार ये बात पूरी तरह सच भी लगती है - लेकिन ये सच आधा ही है. और बाकी बचे आधे हिस्से में भी अभी जेडीयू के विलय जैसी संभावना भी कम ही लगती है.
अंदरूनी सच को छोड़ दें और बिहार की राजनीति में अरसे से जो बात गंभीरता के साथ सुनी और समझी जाती है, उसकी नींव 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव से पहले पड़ी थी. यानी 2014 के आम चुनाव के साल भर बाद. यानी 2019 के संसदीय चुनाव से काफी पहले.
और उसी का नतीजा है कि अब अंदर ही अंदर नीतीश कुमार पुराने जनता परिवार को एकजुट करने की कोशिश में जी जान से जुटे हुए हैं. नीतीश कुमार का लालू यादव से हाथ मिलाना मंजिल की पहली सीढ़ी है. दूसरी सीढ़ी अखिलेश यादव को यूपी में महागठबंधन का नेता घोषित करना है - और उसकी एक झलक आपने मैनपुरी उपचुनाव में भी देखी होगी जब जेडीयू नेता केसी त्यागी, डिंपल यादव के लिए वोट मांगने पहुंचे थे. एकबारगी तो कह ही सकते हैं, कोशिश रंग भी लाने लगी है.
नीतीश कुमार की कोशिश जेडीयू से जेडीएस तक को जोड़ डालने की है - और उसी क्रम में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा से लेकर ओडिशा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक तक से लगातार बातचीत जारी है.
नवीन पटनायक अब भी न तो कांग्रेस के खेमे में खड़े होते हैं, न ही बीजेपी के साथ औपचारिक रूप से जुड़े हैं. हां, मौजूदा राजनीतिक माहौल में अपनी इज्जत अपने हाथ में रख कर मजबूती के साथ मैदान में खड़े रहने के लिए अक्सर केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी के साथ खड़े होते देखे जाते हैं. कुछ न कुछ मजबूरियां तो हर किसी की होती ही हैं. हालांकि, जरूरी नहीं कि सबकी मजबूरी मायावती जैसी ही हो.
आप चाहें तो ये सब नीतीश कुमार के लिए भारत जोड़ो यात्रा जैसी ही समझ सकते हैं. मैदान में हर कोई अपने अपने मोर्चे पर खूंटा गाड़ने की कवायद में जुटा हुआ है. नीतीश कुमार को भी लगता होगा कि विपक्ष के एक बड़े गुट के नेता भी बन जायें तो कांग्रेस नेतृत्व से डील में आसानी हो सकती है - और राहुल गांधी को मनाना भी कोई मुश्किल काम नहीं लगता.
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