अबतक ये साफ हो चुका है कि विपक्ष की एकता सिर्फ एक तमाशा थी और निराशा में उठाया गया कदम थी. विपक्ष अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए इस कदर बेताब है कि स्वघोषित सेक्युलर-सोशलिस्ट ब्रिगेड, सरकार को बदनाम करने के लिए हर पैंतरा अपनाने को तैयार है. और अगर कोई पीछे पड़ जाए तो फिर सरकार को बदनाम करने के लिए मौकों की कमी नहीं होती. यहां तक की बिना किसी बात के भी मुद्दा बनाया जा सकता है.
सालों तक रोजाना न्यूज रुम में खबरें बनाने के बाद अक्सर हम किसी भी घटना के प्रति अपनी संवेदना को खो देते हैं. किसी खबर को देखकर दुख, शोक, डर, सहानुभूति जताना हम भूल जाते हैं. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम में बदलाव के फैसले का लोगों ने जिस तरह से विरोध किया, वो दुखद था. ये स्पष्ट है कि प्रदर्शन को आक्रामक बनाने के लिए व्यावसायिक गुंडों का सहारा लिया गया.
ये क्यों हुआ इसे समझने के लिए बहुत दूर जाने की जरुरत नहीं है. विपक्ष ने हमेशा से ही फूट डालो और शासन करो की नीति अपनाई है. लिंगायतों को हिंदु धर्म से अलग कर दो फिर वीरशैव से लिंगायत को अलग कर दिया. ऐसा लगता है कि विपक्ष की रणनीति भारत के समाजिक ताने बाने को इस हद तक बिगाड़ देने की है कि फिर उसे ठीक किया ही न जा सके. आखिर चुनाव जीतने से ज्यादा जरुरी कुछ और हो ही नहीं सकता.
विपक्ष में से कोई भी राजकोषीय घाटे और गिरती अर्थव्यवस्था के बारे में बात नहीं कर रहा. जो लोग बेरोजगारी की समस्या के बारे में बढ़ चढ़कर बोल रहे थे उन्हें भी ये बहुत अच्छे से पता है कि अगर वो सत्ता में किसी तरीके से आ भी गए, तो उनके लिए भी रोजगार...
अबतक ये साफ हो चुका है कि विपक्ष की एकता सिर्फ एक तमाशा थी और निराशा में उठाया गया कदम थी. विपक्ष अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए इस कदर बेताब है कि स्वघोषित सेक्युलर-सोशलिस्ट ब्रिगेड, सरकार को बदनाम करने के लिए हर पैंतरा अपनाने को तैयार है. और अगर कोई पीछे पड़ जाए तो फिर सरकार को बदनाम करने के लिए मौकों की कमी नहीं होती. यहां तक की बिना किसी बात के भी मुद्दा बनाया जा सकता है.
सालों तक रोजाना न्यूज रुम में खबरें बनाने के बाद अक्सर हम किसी भी घटना के प्रति अपनी संवेदना को खो देते हैं. किसी खबर को देखकर दुख, शोक, डर, सहानुभूति जताना हम भूल जाते हैं. हालांकि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम में बदलाव के फैसले का लोगों ने जिस तरह से विरोध किया, वो दुखद था. ये स्पष्ट है कि प्रदर्शन को आक्रामक बनाने के लिए व्यावसायिक गुंडों का सहारा लिया गया.
ये क्यों हुआ इसे समझने के लिए बहुत दूर जाने की जरुरत नहीं है. विपक्ष ने हमेशा से ही फूट डालो और शासन करो की नीति अपनाई है. लिंगायतों को हिंदु धर्म से अलग कर दो फिर वीरशैव से लिंगायत को अलग कर दिया. ऐसा लगता है कि विपक्ष की रणनीति भारत के समाजिक ताने बाने को इस हद तक बिगाड़ देने की है कि फिर उसे ठीक किया ही न जा सके. आखिर चुनाव जीतने से ज्यादा जरुरी कुछ और हो ही नहीं सकता.
विपक्ष में से कोई भी राजकोषीय घाटे और गिरती अर्थव्यवस्था के बारे में बात नहीं कर रहा. जो लोग बेरोजगारी की समस्या के बारे में बढ़ चढ़कर बोल रहे थे उन्हें भी ये बहुत अच्छे से पता है कि अगर वो सत्ता में किसी तरीके से आ भी गए, तो उनके लिए भी रोजगार पैदा करना नामुमकिन है. स्वस्थ लोकतंत्र के लिए एक मजबूत विपक्ष बहुत महत्वपूर्ण है. इसलिए अगर क्षेत्रीय पार्टियां अपने मतभेदों को किनारे कर एक संयुक्त मोर्चा बना लेती हैं, तो ये सत्ता पर सही ढंग से काम करने का दबाव बनाने में सफल होती है. इस लिहाज से विपक्ष के इस कदम का स्वागत किया जाना चाहिए.
क्योंकि कांग्रेस एक के बाद एक विधानसभा चुनावों में हार का मुंह देख रही है, ऐसे में क्षेत्रीय पार्टियों का एकसाथ आना अच्छी निशानी है. वे सभी पार्टियां मिलकर काम कर सकती हैं और कांग्रेस की जगह ले सकती हैं. हालांकि ये तो समय ही बताएगा कि इस संयुक्त मोर्चे का नेतृत्व कौन करेगा.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता इस पद के लिए पुरजोर कोशिश कर रही हैं और अपने राज्य में उनका दबदबा भी है. लेकिन अपने राज्य के बाहर निकलकर उन्हें पूरे भारत के लोगों का वैसा ही सम्मान मिलेगा इसमें संदेह है. आनेवाले पंचायत चुनावों में खड़े होने वाले भाजपा प्रत्याशियों की तृणमूल पार्टी के समर्थकों द्वारा पिटाई जैसी घटनाएं ममता बनर्जी के ईमेज के लिए सही नहीं है.
हाल ही में भाजपा से अपने रास्ते अलग करने वाले आंध्रप्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू भी विपक्ष के नेता के पद के लिए मजबूत दावेदार हो सकते हैं. लेकिन उनके सामने भी यही सबसे बड़ा सवाल खड़ा होता है कि क्या बाकी सारी पार्टियां उन्हें अपनाएंगी?
इसके बाद नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी के नेता शरद यादव और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव भी हैं. अगर साफ शब्दों में कहूं तो विपक्ष के पास नेताओं की कमी नहीं है, लेकिन सभी पार्टी के लोग उन्हें अपनाएंगे या नहीं ये सवाल है. तो क्या जनता दक्षिणपंथी उन्मादी लोगों की जगह तृणमुल कांग्रेस के गुंडों को चुनेगी? क्या वे उन पार्टियों को चुनेंगे जिनका कोई विजन नहीं है और न ही कोई स्पष्ट विचारधारा है? ये इंतजार बहुत लंबा नहीं होने जा रहा है क्योंकि 2019 के चुनाव अब दूर नहीं हैं.
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