उप-चुनाव आगामी आम चुनावों के नतीजे तय नहीं करते. न ही इनके नतीजों को आने वाले चुनावों के लिए एक ट्रेंड के रूप में लिया जा सकता है. वास्तव में उप-चुनाव भविष्य में राजनीतिक समीकरणों के बारे में बताते हैं. जैसे उत्तर प्रदेश के गोरखपुर और फूलपुर उप चुनावों में समाजवादी पार्टी-बहुजन समाज पार्टी गठबंधन का रास्ता खुला. इसी तरह महाराष्ट्र के भंडारा-गोंडिया और पालघर उप-चुनाव, 2019 में होने वाले आम चुनाव के लिए गठजोड़ या राजनीतिक भविष्य का फैसला करेंगे. दोनों निर्वाचन क्षेत्रों में से पालघर क्षेत्र भविष्य निर्धारित करने के हिसाब से अधिक महत्वपूर्ण होगा.
पालघर ही क्यों?
मुंबई के उत्तर में स्थित ये सीट अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित है. इस सीट के भाग्य का फैसला न केवल ग्रामीण एसटी मतदाताओं द्वारा तय किया जाता है बल्कि मुंबई के बाहरी इलाके में रहने वाले शहरी मतदाताओं का एक बड़ा हिस्सा भी करता है. ये मतदाता आजीविका की तलाश में मुंबई आए हैं. इनमें मराठियों, उत्तर भारतीयों और ईसाइयों का एक बड़ा हिस्सा शामिल है. 2009 में परिसीमन प्रक्रिया के दौरान इस निर्वाचन क्षेत्र को बनाया गया था. तब से लेकर अभी तक यहां से कभी भी कांग्रेस ने जीत हासिल नहीं की है. 2009 में बहुजन विकास आघाड़ी (बीवीए) के हितेन्द्र ठाकुर को जीत मिली थी. हितेन्द्र, दाऊद इब्राहिम के पूर्व सहयोगी भाई ठाकुर का भाई था.
हालांकि 2014 में बीवीए को बीजेपी के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा. भाजपा के चिंतामन वनगा ने हितेन्द्र को 2,30,000 से ज्यादा मतों से बुरी तरह हराया. लेकिन उसी साल हुए विधानसभा चुनावों में शिवसेना और बीजेपी अलग अलग चुनाव लड़ी. तब छह विधानसभा क्षेत्रों में से भाजपा ने दो, शिवसेना ने एक और बीवीए ने तीन सीटों पर जीत दर्ज की. वोटों की गिनती गिरकर बीजेपी - 1,23,295, शिवसेना - 2,03,330, बीवीए - 3,12,178, हो गई. इससे साफ हो गया कि बढ़त बीवीए को मिल रही है.
हालांकि, यहां मुद्दा बीवीए नहीं है.
पालघर में जीत के बाद भाजपा शिवसेना के रास्ते अलग हो जाएंगे?
पालघर इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि शिवसेना ने पहली बार किसी भी लोकसभा चुनाव या उपचुनाव में भाजपा के खिलाफ अपना उम्मीदवार खड़ा किया है. शिवसेना का उम्मीदवार और कोई नहीं बल्कि स्वर्गीय बीजेपी सांसद चिंतामन वनगा के बेटे श्रीनिवास वानगा हैं. ये एक ऐसा कदम जिसके लिए बीजेपी, शिवसेना पर विश्वासघात का आरोप लगा सकती है. दूसरी तरफ शिवसेना, बीजेपी को अपनी ताकत दिखाना चाहती है. साथ ही ये भी बताना चाहती है कि बीजेपी के वोटों को अपनी तरफ खींचकर वो पार्टी को कितना नुकसान पहुंचा सकती है.
ऐसा लगता है जैसे इस उपचुनाव में शिवसेना के लिए सिर्फ और सिर्फ भाजपा की हार ही मायने रखती है. फिर चाहे जीत बीवीए की ही क्यों न हो. शिव सेना, भाजपा को हराकर तीसरे नंबर पर लाने से ज्यादा खुशी किसी और बात की नहीं होगी. और अगर गलती से शिवसेना इस सीट को जीतने में कामयाब हो जाती है तो ये महाराष्ट्र में बीजेपी सरकार के लिए पार्टी के समर्थन का अंत होगा.
भाजपा का साम दाम दंड भेद
ऊपर बताए गए सभी कारणों की वजह से ही बीजेपी इस चुनाव को किसी भी कीमत पर जीतना चाहती है. प्रदेश के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने अपने कार्यकर्ताओं को "साम दाम दंड भेद" सभी का उपयोग करने की स्पष्ट सलाह दी. हालांकि फड़णवीस ने बाद में ये जरुर स्पष्ट किया कि इसे शाब्दिक तौर पर नहीं बल्कि भावनात्मक तौर पर समझना चाहिए. भाजपा ने इस उपचुनाव में अपने उम्मीदवार को जीताने में पूरी ताकत झोंक दी है. बीजेपी ने न केवल कांग्रेस छोड़कर आए उम्मीदवार राजेंद्र गावित को अपना उम्मीदवार चुना है, बल्कि फड़णवीस भी व्यक्तिगत रूप से इस अभियान की निगरानी कर रहे हैं.
फड़णवीस ने साफ साफ कहा साम दाम दंड भेद सभी का इस्तेमाल करें
भाजपा ने उत्तर प्रदेश के मतदाताओं को नजर में रखते हुए यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से भी चुनाव प्रचार कराया. यही नहीं स्टार प्रचारकों को मैदान उतारने के अलावा, पार्टी ने जमीनी स्तर पर भी अपना ध्यान केंद्रित किया है. मुंबई और ठाणे से नगर निगम के कई काउंसिलरों को पालघर निर्वाचन क्षेत्र में तैनात किया गया है. लगभग तीन-चार काउंसिलर्स को 10 बूथ (10,000 वोट) की ज़िम्मेदारी दी गई है. और हर विधायक को लगभग 100 बूथों की ज़िम्मेदारी दी गई है. शिवसेना और बीजेपी के बीच की ये हाई वोलटेज लड़ाई अपने निम्नतम स्तर पर पहुंच गई.
चुनाव के नतीजे भविष्य की रणनीति तय करेंगे
अगर बीजेपी जीतती है तो शिवसेना को हर स्तर पर भाजपा का विरोध करने की अपनी नीति पर पुनर्विचार करना होगा. साथ ही 2019 के चुनावों के लिए गठबंधन का प्रस्ताव भी स्वीकार करना पड़ सकता है. लेकिन यदि बीजेपी हार जाती है और बुरी तरह हार जाती है, तो ये साफ है कि 2019 के लिए सेना-भाजपा गठबंधन नहीं रहेगा.
शिवसेना के सूत्रों का कहना है कि अगर उनकी पार्टी इन चुनावों में जीत हासिल करती है, तो उद्धव ठाकरे देवेंद्र फड़णविस सरकार से समर्थन वापस लेने की तारीख पर विचार कर सकती है. क्योंकि सरकार को समर्थन जारी रखते हुए भी भाजपा के खिलाफ बोलने पर शिवसेना को आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है.
(DailyO से साभार)
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