कहते हैं मॉब (Mob) की कोई मानसिकता नहीं होती. वो आंख नाक बंद करकेएक दिशा में बढ़ते चले जाते हैं और वो दशा और दिशा उनकी विक्षिप्त मनःस्थिति की परिचायक है. चला तो ये अनंत काल से आ रहा है जब भीड़ ने कानून अपने हाथ में लिया हो. लेकिन ये शब्द 'मॉब लिंचिंग' (Mob Lynching) एकदम से हैशटैग हुआ और हमारे अन्तश्चेतना में इंगित हो गया. जब कुछ साल पहले अख़लाक़ खान (Akhlaq Khan) की दादरी (Dadri ) में और पहलु खान (Pehlu Khan) की अलवर (Alwar) में निर्मम हत्या की गयी सांप्रदायिक गिरोह द्वारा. केस तारिख दर तारिख चल रहे हैं लेकिन आज भी जब सोचो कि ऐसा क्या भीड़ के मन में उठता है की वो किसी को मौत के घाट उतार देते हैं तो मन उद्विग्न हो उठता है. हमारे अचेतन मन में ये शब्द कहीं दबा कुचला ही था कि अचानक से सोशल मीडिया स्क्रॉल करते हुए एक वीडियो देखा जिसे देखकर खून जम गया. गढ़चिंचले गांव, पालघर डिस्ट्रिक्ट, महाराष्ट के पास हत्यारी भीड़ (Palghar Lynching ) ने दो साधुओं (Sadhu ) और एक कार चालक को कार से खींचकर मार डाला. इनमें से एक 70-वर्षीय महाराज कल्पवृक्षगिरी थे. उनके साथी सुशील गिरी महाराज और कार चालक निलेश तेलग्ने भी भीड़ की चपेट में आ गए. तीनों अपने परिचित के अंतिम संस्कार में सूरत जा रहे थे.
कोरोना वायरस की वजह से हुए लॉकडाउन के कारण नेशनल हाईवे बंद था. अतः उन्हें गांव से होते हुए जाना पड़ा. व्हाट्सएप ने जहां दुनिया को एक वैश्विक गांव बना दिया है वहीं इसे भयानक अफवाहों और कारनामों को अंजाम देने वाली फैक्ट्री में भी तब्दील कर दिया और इस खबर को हम तक आते आते पूरे तीन दिन लगे.
सवाल ये उठता है कई क्या पल पल पर न्यूज़ बिट्स और ब्रेकिंग न्यूज़ देने वालों ने इस खबर को दबाया? तीन लोगों, जिनके ऊपर बच्चा चोरी और डकैती का आरोप है उन्हे खुद वीडियो के अनुसार पुलिस वाला निर्मोही भीड़ के हवाले कर देता है और वो साधू गिड़गिड़ा कर पुलिस के पैर पकड़ता है. इस आस में कि शायद उसकी जान बचा ली जाए. लेकिन...
कहते हैं मॉब (Mob) की कोई मानसिकता नहीं होती. वो आंख नाक बंद करकेएक दिशा में बढ़ते चले जाते हैं और वो दशा और दिशा उनकी विक्षिप्त मनःस्थिति की परिचायक है. चला तो ये अनंत काल से आ रहा है जब भीड़ ने कानून अपने हाथ में लिया हो. लेकिन ये शब्द 'मॉब लिंचिंग' (Mob Lynching) एकदम से हैशटैग हुआ और हमारे अन्तश्चेतना में इंगित हो गया. जब कुछ साल पहले अख़लाक़ खान (Akhlaq Khan) की दादरी (Dadri ) में और पहलु खान (Pehlu Khan) की अलवर (Alwar) में निर्मम हत्या की गयी सांप्रदायिक गिरोह द्वारा. केस तारिख दर तारिख चल रहे हैं लेकिन आज भी जब सोचो कि ऐसा क्या भीड़ के मन में उठता है की वो किसी को मौत के घाट उतार देते हैं तो मन उद्विग्न हो उठता है. हमारे अचेतन मन में ये शब्द कहीं दबा कुचला ही था कि अचानक से सोशल मीडिया स्क्रॉल करते हुए एक वीडियो देखा जिसे देखकर खून जम गया. गढ़चिंचले गांव, पालघर डिस्ट्रिक्ट, महाराष्ट के पास हत्यारी भीड़ (Palghar Lynching ) ने दो साधुओं (Sadhu ) और एक कार चालक को कार से खींचकर मार डाला. इनमें से एक 70-वर्षीय महाराज कल्पवृक्षगिरी थे. उनके साथी सुशील गिरी महाराज और कार चालक निलेश तेलग्ने भी भीड़ की चपेट में आ गए. तीनों अपने परिचित के अंतिम संस्कार में सूरत जा रहे थे.
कोरोना वायरस की वजह से हुए लॉकडाउन के कारण नेशनल हाईवे बंद था. अतः उन्हें गांव से होते हुए जाना पड़ा. व्हाट्सएप ने जहां दुनिया को एक वैश्विक गांव बना दिया है वहीं इसे भयानक अफवाहों और कारनामों को अंजाम देने वाली फैक्ट्री में भी तब्दील कर दिया और इस खबर को हम तक आते आते पूरे तीन दिन लगे.
सवाल ये उठता है कई क्या पल पल पर न्यूज़ बिट्स और ब्रेकिंग न्यूज़ देने वालों ने इस खबर को दबाया? तीन लोगों, जिनके ऊपर बच्चा चोरी और डकैती का आरोप है उन्हे खुद वीडियो के अनुसार पुलिस वाला निर्मोही भीड़ के हवाले कर देता है और वो साधू गिड़गिड़ा कर पुलिस के पैर पकड़ता है. इस आस में कि शायद उसकी जान बचा ली जाए. लेकिन नहीं. पुलिस कुछ नहीं करती है और वहीँ होता है आंखों के सामने खून का नंगा नाच. वीडियो देख कर सिहर उठें आप ऐसा भयावह मंजर रहा होगा वहां.
इस समय सच्चाई क्या है वकील होने के नाते मैं कुछ नहीं कह सकती लेकिन कानून की नज़र में प्रथम दृष्ट्या मोब लिंचिंग से पहले मुझे ये हिरासत में हुई मौत यानि कस्टोडियल डेथ लगती है. मौलिक अधिकार उन अधिकारों को कहा जाता है जो व्यक्ति के जीवन के लिये मौलिक होने के कारण संविधान द्वारा नागरिकों को प्रदान किये जाते हैं और जिनमें राज्य द्वार हस्तक्षेप नही किया जा सकता.
ये ऐसे अधिकार हैं जो व्यक्ति के व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के लिये आवश्यक हैं और जिनके बिना मनुष्य अपना पूर्ण विकास नही कर सकता. समय की ज़रुरत के हिसाब से संविधान में संशोधन हुआ और अनुच्छेद 22 (Article 22) लाया गया जहाँ पुलिस हिरासत में हुए टार्चर या मृत्यु के खिलाफ इंसाफ पाने के प्रावधान हैं. देश की सबसे बड़ी अदालत सुप्रीम कोर्ट के प्रसिद्ध व वरिष्ठ न्यायाधीश वी.आर. कृष्णा अय्यर ने पुलिस हिरासत में टॉर्चर को आतंकवाद से भी भयानक अपराध क़रार दिया था, क्योंकि टॉर्चर में हमेशा सरकार व पुलिस प्रशासन का अपना हित छिपा होता है.
हिरासत में मौतों की मौजूदा स्थिति और उसकी गंभीरता का अनुमान लगाने के लिए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के इन आंकड़ों को देखा जा सकता है. जिसके अनुसार पिछले दशक यानी 2001 से 2010 के दौरान हमारे देश में कुल 14231 मौत पुलिस हिरासत में हुई हैं. यानी प्रतिदिन हिरासत में होने वाली मौतों की दर 4।33 फीसदी है. जबकि सुप्रीम कोर्ट ने मानवाधिकार संरक्षण के पक्ष में बहुत सी बातें अपने फैसलों में दर्ज की हैं.
जैसे 2010 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा 'अगर रक्षक ही भक्षक बन जाए तो सभ्य समाज का गला घुट जाएगा… पुलिस अगर आपराधिक कार्रवाईयों में शामिल पाई जाए तो उस अपराध के मामले में आम लोगों को दी जाने वाली सज़ाओं से ज्यादा कठोर सज़ा के हक़दार यह पुलिस वाले होने चाहिए, क्योंकि पुलिस का कर्तव्य लोगों की रक्षा करना है न कि स्वयं कानून की धज्जियां उड़ाना…'
क्या है कानूनी प्रावधान?
इंडियन पुलिस एक्ट की धारा 7 और 29 के तहत अगर पुलिस अधिकारी अपनी ड्यूटी और दायित्वों की अदायगी में कोताही या असफल साबित होता है, या ईमानदारी बरतने में नाकाम होता है तो उक्त धाराओं में बरखास्तगी, जुर्माना और निलंबन का प्रावधान हैं.
इसी तरह आपराधिक मामलों की कार्रवाईयों के संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट के डी.के. बसु बनाम स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल और भाई जसबिर सिंह बनाम स्टेट ऑफ पंजाब और शीला बरसे बनाम स्टेट ऑफ महाराष्ट्र के फैसले में देख सकते हैं. इस फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने गिरफ्तारी से पहले और बाद की कार्रवाईयों के संदर्भ में अहम निर्देश जारी किए हैं.
इस निर्देश का बोर्ड सभी ही पुलिस स्टेशनों में दिवारों की शोभा बढ़ाने के लिए लगाया गया है. मुद्दा ये है की ये निर्देश आज भी सिर्फ दीवारों की शोभा बढ़ा रहे हैं. आजतक मॉब- लिंचिंग पर कोई कानून नहीं बना है और इसी कारणवश समाज के ठेकेदार कानून को ताक पर रख कर उसकी धज्जियां उड़ा रहे हैं.
कुछ अछूते सवाल ज़रूर हैं जिनका समय ही जवाब दे पायेगा?
जहां लॉक डाउन के कारण पूरा देश बंद है वहां इतनी भीड़ पुलिस ने कैसे इकठ्ठा होने दी?
पुलिस हिरासत में होने के बावजूद भीड़ के हवाले क्यों छोड़ा गया इनको?
यदि भीड़ बेकाबू हो रही थी तो बल का उपयोग क्यों नहीं किया गया? क्या ऊपर से दबाव था?
गुरुवार रात हुई हत्या को सबके सामने आने में 3 दिन क्यों लग गए? क्या इस बात को दबाया जा रहा था?
रही बात कुछ अखबारों और न्यूज़ चैनल की जो अपनी सहूलियत के हिसाब से खबर छापते हैं और मन करे तो सांप्रदायिक और मन करे तो धर्म-निरपेक्ष टाइटल दे देते हैं उनके ऊपर सख्त कार्यवाही करने की ज़रुरत है. मानव से पहले मानवता का नाश होता है. ये सुना था लेकिन यही हाल रहा तो दिन दूर नहीं जहां मानवता की त्रासदी हमे शर्मसार कर देगी.
कानून से भरोसा जाता रहा तो भारत भाग्यविधाता बनना सिर्फ एक स्वप्न मात्र है. हिन्दू मुस्लमान, राजनीतिक षड़यंत्र, आईटी सेल, उद्धव ठाकरे का आक्रांता होना आदि क्या सत्य है, क्या गलत वो तो समय बताएगा। लेकिन इस शर्मसार कर देने वाली घटना ने इंसानियत के ऊपर एक काला धब्बा लगा दिया है. साधु की मौत पर जो रोटी सेंके वो हत्यारा ही है. इस गेरुए पर पड़े लाल छीटें बहुतों के हाथ रंग देते हैं जो वहां उस भीड़ का हिस्सा न होकर भी मौजूद थे.
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