अटल जी के निधन के बाद बीजेपी ने जो चाल, चरित्र और चेहरा दिखाया है वो शायद नयी बीजेपी की पहचान है. एक के बाद एक कई तरह की चीज़ें सामने आईं, जिनसे वो लोग कतई आहत नहीं होंगे और प्रभावित भी नहीं होंगे जो यूथ कांग्रेस के भगवा संस्करण की तरह दिखाई देने वाली नयी बीजेपी से ही परिचित हैं. लेकिन जो बीजेपी आज की बीजेपी की जड़ में है. जिस बीजेपी ने आज की परम शक्तिशाली पार्टी को पोषित किया है, वो बीजेपी कुछ और थी. अडवाणी ने उस पार्टी को चाल, चरित्र और चेहरे के तीन पैमानों पर अलग ठहराने की कोशिश की थी. जिन गुणों के कारण बीजेपी समर्थकों की एक पूरी पीढ़ी उससे जुड़ी और उसकी हो गई वो अटल जी की पुरानी यादें और उनके अभिव्यक्ति के अंदाज़ से या अडवाणी और अटल जी की पुरानी यादों से जोड़कर देखी जा सकती है. जिनकी उम्र 40 के आसपास है उन्होंने पुरानी बीजेपी को भी देखा है. जिनकी 50 से ज्यादा है वो जानते हैं कि संजय गांधी की युवा कांग्रेस कैसी होती थी.
बात करते हैं अटल जी की मृत्यु को राजनीतिक रूप से भुनाने और उसका लाभ लेने की कोशिशों से. अटल जी की अस्थियां हरिद्वार में गंगा में प्रवाहित की जानी हैं. लेकिन जैसे इंदिरा जी की अस्थियां प्रवाहित कर दी गई थीं वैसा नहीं होगा. उनके अंतिम अवशेषों को लेकर जुलूस निकलेगा. नगर के प्रमुख मार्गों से गुजरेगा. फिर अस्थियां विसर्जित होंगी. यहां तक भी सामान्य मानकर भुलाया जा सकता था, लेकिन यात्रा कहां से शुरू होगी इस पर लगातार झगड़ा चल रहा है. पत्रकार निशीथ जोशी ने लिखा है- सबसे पहले तय कर लिया गया कि अटल जी के अस्थि कलश श्री प्रेम आश्रम से रवाना होंगे. इसके बाद मैडम कौशिक ने पता नहीं क्या मंत्र फूंका जगह बदल गई और तय हुआ कि शांति कुंज हरिद्वार से अस्थिकलश को...
अटल जी के निधन के बाद बीजेपी ने जो चाल, चरित्र और चेहरा दिखाया है वो शायद नयी बीजेपी की पहचान है. एक के बाद एक कई तरह की चीज़ें सामने आईं, जिनसे वो लोग कतई आहत नहीं होंगे और प्रभावित भी नहीं होंगे जो यूथ कांग्रेस के भगवा संस्करण की तरह दिखाई देने वाली नयी बीजेपी से ही परिचित हैं. लेकिन जो बीजेपी आज की बीजेपी की जड़ में है. जिस बीजेपी ने आज की परम शक्तिशाली पार्टी को पोषित किया है, वो बीजेपी कुछ और थी. अडवाणी ने उस पार्टी को चाल, चरित्र और चेहरे के तीन पैमानों पर अलग ठहराने की कोशिश की थी. जिन गुणों के कारण बीजेपी समर्थकों की एक पूरी पीढ़ी उससे जुड़ी और उसकी हो गई वो अटल जी की पुरानी यादें और उनके अभिव्यक्ति के अंदाज़ से या अडवाणी और अटल जी की पुरानी यादों से जोड़कर देखी जा सकती है. जिनकी उम्र 40 के आसपास है उन्होंने पुरानी बीजेपी को भी देखा है. जिनकी 50 से ज्यादा है वो जानते हैं कि संजय गांधी की युवा कांग्रेस कैसी होती थी.
बात करते हैं अटल जी की मृत्यु को राजनीतिक रूप से भुनाने और उसका लाभ लेने की कोशिशों से. अटल जी की अस्थियां हरिद्वार में गंगा में प्रवाहित की जानी हैं. लेकिन जैसे इंदिरा जी की अस्थियां प्रवाहित कर दी गई थीं वैसा नहीं होगा. उनके अंतिम अवशेषों को लेकर जुलूस निकलेगा. नगर के प्रमुख मार्गों से गुजरेगा. फिर अस्थियां विसर्जित होंगी. यहां तक भी सामान्य मानकर भुलाया जा सकता था, लेकिन यात्रा कहां से शुरू होगी इस पर लगातार झगड़ा चल रहा है. पत्रकार निशीथ जोशी ने लिखा है- सबसे पहले तय कर लिया गया कि अटल जी के अस्थि कलश श्री प्रेम आश्रम से रवाना होंगे. इसके बाद मैडम कौशिक ने पता नहीं क्या मंत्र फूंका जगह बदल गई और तय हुआ कि शांति कुंज हरिद्वार से अस्थिकलश को लेकर यात्रा निकाली जाए. सरकार और शांतिकुंज ने इसे लेकर सूचना भी जारी कर दी. लेकिन रात तक कैबिनेट मंत्री सतपाल महाराज अड़े रहे कि वो ऐसा नहीं होने देंगे. इसके पीछे कोई भावनात्मक कारण नहीं है. यही सतपाल महाराज तिवारी कांग्रेस के साथ अटल जी पर पचासों हमले भी कर चुके हैं. बात सिर्फ इतनी है कि प्रचार और माइलेज कैसे मिले.
माइलेज की बात चली है तो अटल जी कि अंतिम यात्रा पर आते हैं. एक बड़े तबके का मानना है कि अटल जी की अंतिम यात्रा को एक रोडशो की तरह भुनाने की कोशिश हुई. देश भर का मीडिया लागातार उनकी अंतिम यात्रा को देख रहा था. लगातार 24 घंटे से ज्यादा सीधा प्रसारण चल रहा था. ऐसे में अटल जी अंतिम यात्रा के साथ पैदल चलने से जबरदस्त कैमरा अटेंशन खींची जा सकती थी, इसलिए मोदी और अमित शाह पैदल साथ में चले. अटल जी के सबसे अच्छे और नज़दीकी दोस्त रहे अडवाणी पर शायद यही वजह थी कि कैमरे अड़े रहे. बहरहाल, पैदल चलना एक भावुक कारण भी हो सकता था और ये परंपरा का भी हिस्सा है. लोग शवयात्रा में पैदल और नंगे पैर जाते हैं.
अगर हम बीजेपी मुख्यालय के बाहर के वातावरण पर गौर करें तो स्वामी अग्निवेश पर हुए हमले को बीजेपी की नयी संस्कति से अलग करके नहीं देख सकते. इस बार उनकी पगड़ी और कपड़े बच गए किसी तरह. 80 साल का एक बुजुर्ग सड़क पर बचने के लिए दौड़ रहा था और उसके पीछे पीछे एक उग्र भीड़ थी, ठीक संजय गांधी के गुंडों की तरह.
लेकिन अगर अटल जी के अंतिम संस्कार से जुड़े मामलों का ही जिक्र करते रहे तो मामला छूट जाएगा. उग्र व्यवहार धीरे-धीरे बीजेपी और उसके अनुषांगिक संगठनों के व्यवहार में जगह बनाता जा रहा है. उग्रवाद इसलिए नहीं कहूंगा, क्योंकि बीजेपी की घोषित विचारधारा उग्र नहीं है. याद कीजिए उज्जैन के विक्रम विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर को किस तरह विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने पीटा था. मोतीहारी में किस तरह प्रोफेसर की पिटाई हुई. एक-एक करके किस्से बयान करते हैं. गुजरात के कच्छ में विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने प्रोफेसर के कपड़े फाड़े. उसे नंगा घुमाया और मुंह पर कालिख पोती. आरोप लगाया चुनावों में धांधली का. मध्यप्रदेश के खंडवा के कृषि विश्वविद्यालय में विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने एक लड़की से छेड़छाड़ को मुद्दा बनाकर डीन के कमरे में प्रोफेसर अशोक चौधरी को बुलाया और वहीं बुरी तरह पीटा.
हैदराबाद विश्वविद्यालय के प्रोफेसर के. लक्षमी नारायण को दलित होने का कारण प्रताड़ित किया गया इतना ही नहीं उन्हें सोशल मीडिया पर भी गालीगलौज की कई. दलित छात्र संगठनों ने सक्रियता दिखाई तब जाकर छात्रों पर एक्शन हुआ.
रोहित वैन्युला को निष्कासित करने के लिए तो पूरी बीजेपी यहां तक कि केन्द्रीय मंत्री स्मृति ईरानी ने भी चिट्ठी लिखी. सबकुछ रिकॉर्ड पर है.
दिल्ली विश्वविद्यालय के सबसे प्रतिष्ठित माने जाने वाले श्री राम कॉलेज ऑफ आर्ट एंड कॉमर्स के एक प्रोफेसर पर थप्पड़ों की बरसात कर दी. बाद में बात बढ़ी को एबीवीपी ने कहा कि हमारा इस छात्र से कोई वास्ता नहीं है.
जेएनयू से लापता हुए छात्र नजीब की उसके गायब होने से पहले विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने पिटाई की थी. हालांकि, ये आरोप है. मामले पर जांच अभी बाकी है.
ये तो युवा सगठन की बात है. अब पार्टी की नेताओं के उग्र रवैये की बात करते है. सबने देखा है कि पटियाला हाऊस कोर्ट के बाहर बीजेपी के विधायक और अरुण जेटली के करीबी माने जाने वाले ओपी शर्मा किस तरह सड़क पर मारपीट कर रहे थे.
बहरहाल, उदाहरण पढ़ते-पढ़ते आप पक जाएंगे, लेकिन यहां मामला सिर्फ संस्कृति का है. बीजेपी का चाल चरित्र और चेहरा और अलग तरह की पार्टी की पहचान कहीं खो गई है. बीजेपी की संस्कृति कांग्रेस की बदनाम गुंडा संस्कृति में जैसे कहीं विलीन हो गई है. पार्टी न तो अटल की रही न अडवाणी की. अब पार्टी वो पार्टी है जिसमें किसी भी पार्टी का कोई भी बाहुबली असामाजिक स्वागतेय है. बस थोड़ा जीत की उम्मीद जेब में लाए. इस तर्क के पक्ष में हाल के कई उदाहरण दिए जा सकते हैं लेकिन लेख लंबा हो जाएगा.
मेरा निष्कर्ष यही है कि जब तक अटल जी सक्रिय थे, पार्टी की चाल, चरित्र और चेहरा बरकरार था, वो स्मृतिलोप के शिकार हुए तो पार्टी भी अपनी संस्कृति भूलने लगी और अटल जी के जाने के साथ बीजेपी की संस्कृति भी गंगा में प्रवाहित हो चुकी है. यहां जो बचा है वो है संजय गांधी की आत्मा.
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