मायावती की उपचुनावों में कभी दिलचस्पी नहीं रही है. न तो उनकी पार्टी चुनाव लड़ती है और न ही किसी के समर्थन के बारे में सोचती है. मायावती का की राय में उपचुनावों के नतीजे अमूमन सूबे के सत्ताधारी दल के पक्ष में ही जाते हैं. मालूम नहीं, इस धारणा के पीछे मायावती सत्ता पक्ष की दखलंदाजी मानती हैं या मतदाताओं का ये सोचना कि सत्ताधारी पार्टी का विरोधी उम्मीदवार जीता तो इलाके में कोई काम तो होने से रहा.
मगर, यूपी के ताजा उपचुनाव में मायावती ने अपनी पॉलिसी में यू टर्न लिया है. मायावती की पार्टी बीएसपी फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार का सपोर्ट कर रही है - और मायावती की मानें तो ये समझौता हालिया है, 2019 के लिए तो कतई नहीं.
नतीजे आने के बाद की बात और है, फिलहाल एक सहज सवाल उठ रहा है कि मायावती फूलपुर से आ रहे रुझानों को किस रूप में ले रही होंगी?
माया को कैसा लग रहा होगा?
मतदान और नतीजों के बीच रुझानों का चुनावी राजनीति में बड़ा रोल होता है. रुझान देख कर माहौल बनने लगता है. हार रहे उम्मीदवार की सांस थम जाती है और जीतने के संकेत मिलते ही बाछें खिलने लगती हैं.
ये तो साफ है कि मायावती उपचुनाव के रुझानों में यूपी में मौजूदा विपक्ष का भविष्य देख रही होंगी. हो सकता है, लगे हाथ टीवी पर स्कोर देखते देखते मायावती और उनके सिपहसालार 2019 की रणनीति में तब्दीली पर भी विचार करने लगे हों.
सबसे बड़ी बात है कि मायावती के मन में क्या चल रहा होगा? क्या मायावती के मन में एक बार भी ये ख्याल नहीं आ रहा होगा कि अच्छा तो यही होता कि वो खुद ही चुनाव लड़ने को तैयार हो गयी होतीं.
मायावती के राज्य सभा से इस्तीफा देने के बाद उन्हें फूलपुर से ही चुनाव लड़ने की...
मायावती की उपचुनावों में कभी दिलचस्पी नहीं रही है. न तो उनकी पार्टी चुनाव लड़ती है और न ही किसी के समर्थन के बारे में सोचती है. मायावती का की राय में उपचुनावों के नतीजे अमूमन सूबे के सत्ताधारी दल के पक्ष में ही जाते हैं. मालूम नहीं, इस धारणा के पीछे मायावती सत्ता पक्ष की दखलंदाजी मानती हैं या मतदाताओं का ये सोचना कि सत्ताधारी पार्टी का विरोधी उम्मीदवार जीता तो इलाके में कोई काम तो होने से रहा.
मगर, यूपी के ताजा उपचुनाव में मायावती ने अपनी पॉलिसी में यू टर्न लिया है. मायावती की पार्टी बीएसपी फूलपुर और गोरखपुर उपचुनावों में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार का सपोर्ट कर रही है - और मायावती की मानें तो ये समझौता हालिया है, 2019 के लिए तो कतई नहीं.
नतीजे आने के बाद की बात और है, फिलहाल एक सहज सवाल उठ रहा है कि मायावती फूलपुर से आ रहे रुझानों को किस रूप में ले रही होंगी?
माया को कैसा लग रहा होगा?
मतदान और नतीजों के बीच रुझानों का चुनावी राजनीति में बड़ा रोल होता है. रुझान देख कर माहौल बनने लगता है. हार रहे उम्मीदवार की सांस थम जाती है और जीतने के संकेत मिलते ही बाछें खिलने लगती हैं.
ये तो साफ है कि मायावती उपचुनाव के रुझानों में यूपी में मौजूदा विपक्ष का भविष्य देख रही होंगी. हो सकता है, लगे हाथ टीवी पर स्कोर देखते देखते मायावती और उनके सिपहसालार 2019 की रणनीति में तब्दीली पर भी विचार करने लगे हों.
सबसे बड़ी बात है कि मायावती के मन में क्या चल रहा होगा? क्या मायावती के मन में एक बार भी ये ख्याल नहीं आ रहा होगा कि अच्छा तो यही होता कि वो खुद ही चुनाव लड़ने को तैयार हो गयी होतीं.
मायावती के राज्य सभा से इस्तीफा देने के बाद उन्हें फूलपुर से ही चुनाव लड़ने की सलाह दी गयी थी. तब चर्चाओं में ही सही, मायावती को संयुक्त विपक्ष का साझा उम्मीदवार बनाये जाने की बात होने लगी थी. जब चर्चा ज्यादा होने लगी तो मायावती ने सतीशचंद्र मिश्रा की ओर से कहलवा दिया कि बीएसपी नेता का ऐसा कोई इरादा नहीं है.
जैसे ही मायावती के विपक्ष का संयुक्त उम्मीदवार बनाये जाने की खबर आयी, अखिलेश यादव ने आगे बढ़ कर सपोर्ट करने की घोषणा कर दी. बाद के दिनों में भी अखिलेश यादव से इस बाबत सवाल पूछे जाते रहे - और हर बार उनका जवाब एक ही होता.
एक सवाल और है कि क्या मायावती उम्मीदवार होतीं तो भी रुझान ऐसे ही होते? ऐसे सवालों के बारे में सिर्फ कयास ही लगाये जा सकते हैं, उससे ज्यादा कुछ नहीं.
वैसे इतना तो तय है कि मायावती मैदान में होतीं तो फूलपुर चुनाव की ताजा तस्वीर और वजनदार होती.
तो रिश्ता पक्का समझें बुआ?
रुझानों ने ये तो साफ कर ही दिया है कि यूपी को साइकल के हैंडल पर हाथ से ज्यादा हाथी का साथ पसंद आ रहा है. 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान अखिलेश यादव कहा करते रहे कि साइकल के हैंडल पर हाथ लग जाने से स्पीड बहुत ज्यादा बढ़ जाएगी, पर ऐसा हुआ नहीं. अब तो ऐसा लग रहा है कि हाथी से हाथ मिलाने के बाद साइकल की रफ्तार ज्यादा तेज हो जा रही है.
समाजवादी पार्टी से बीएसपी के गठबंधन को लेकर कहीं लेने के देने न पड़ जायें, इसलिए मायावती को सफाई देने मीडिया के सामने आना पड़ा था. असल में बीएसपी के स्थानीय नेताओं ने उपचुनाव में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार को सपोर्ट करने की बात कही थी. तभी ये कयास लगाये जाने लगे कि 25 साल बाद मुलायम सिंह यादव की पार्टी के साथ मायावती आ गयीं - और इसे 2019 के विपक्षी गठजोड़ के हिसाब से लिया जाने लगा. फिर मायावती ने साफ किया कि दोनों पार्टियों में सिर्फ उपचुनाव, राज्य सभा चुनाव और विधान परिषद चुनाव को लेकर तात्कालिक समझौता हुआ है - और ये 2019 के लिए कतई नहीं है.
फूलपुर में ये हाल तब है जब फूलपुर में वोटकटवा अतीक अहमद मैदान में डटे हुए हैं. अब अगर मायावती का समाजवादी पार्टी के साथ समझौता सफल रहता है तो क्या अब आगे ये स्थाई स्वरूप ले सकेगा? यूपी विधानसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद विपक्षी खेमे में अखिलेश यादव और मायावती के बीच महागठबंधन न बन पाने का अफसोस भी जताया जा रहा था. तो क्या सच में अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी कांग्रेस की जगह मायावती की बीएसपी के साथ मिल कर चुनाव लड़े होते तो यूपी के नतीजे अलग होते?
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