सवर्ण आरक्षण का आगमन भी नोटबंदी वाले अंदाज में ही हुआ है. नोटबंदी की ही तरह ज्यादातर मंत्रियों को पहले से इसकी कोई जानकारी नहीं थी. आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक का प्रपोजल सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने महज एक दिन में तैयार किया. दरअसल, सवर्ण आरक्षण के लिए ही राज्य सभा के सत्र को एक दिन आगे बढ़ाया गया - और विपक्ष ने इसी बात को हंगामे के लिए बहाना बनाया.
चुनावी जरूरत से कहीं ज्यादा तो सवर्ण आरक्षण जैसे एक बिल की मोदी सरकार को तात्कालिक आवश्यकता थी, ताकि राफेल से इतर भी बहस का कोई टॉपिक हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनावी रैलियों के लिए कुछ नया मसाला चाहिये था - वो खुद भी मिशेल और राफेल पर भाषण दे देकर बोर हो रहे थे.
मोदी सरकार को एक मास्टरस्ट्रोक की सख्त जरूरत थी
विपक्ष के पास सवर्ण आरक्षण बिल को सपोर्ट करने के अलावा कोई चारा भी न था. 'नीति सही है, पर नीयत गलत', भला इससे ज्यादा और कह भी क्या सकते थे. लोक सभा में तो बिल को पास होने दिया, लेकिन राज्य सभा में रंग दिखा ही दिया. बिल का विरोध मुश्किल था, इसलिए सत्र में एक दिन बढ़ाये जाने पर आपत्ति जता डाली. सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत ने भी नब्ज पकड़ी और कहा कि बिल अच्छी नीयत के साथ लाया गया है, जिसे लोकसभा से भी मंजूरी मिल गई है.
विरोध का बिगुल बजाया तृणमूल कांग्रेस सांसद सुखेन्दु शेखर राय ने. सवाल उठाया कि राज्यसभा की कार्यवाही एक दिन के लिए बगैर बताय कैसे बढ़ायी गयी. फिर क्या था हंगामा शुरू हो गया. कई सदस्य अपनी सीट से उठे और उपसभापति के सामने पहुंच कर नारेबाजी करने लगे.
बीजेपी सांसद विजय गोयल ने नियमों का हवाला दिया - 'नियम 266 के तहत सरकार को इसका अधिकार है.' वित्त मंत्री अरुण जेटली बोले - 'सदन की चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि सदन की कार्यवाही बीते 10 दिन से बाधित हो रही है... कार्यवाही एक दिन के लिए बढ़ायी गयी क्योंकि कई सारे महत्वपूर्ण बिल पास होने हैं.'
कांग्रेस...
सवर्ण आरक्षण का आगमन भी नोटबंदी वाले अंदाज में ही हुआ है. नोटबंदी की ही तरह ज्यादातर मंत्रियों को पहले से इसकी कोई जानकारी नहीं थी. आर्थिक रूप से पिछड़े सवर्णों को 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए संविधान संशोधन विधेयक का प्रपोजल सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय ने महज एक दिन में तैयार किया. दरअसल, सवर्ण आरक्षण के लिए ही राज्य सभा के सत्र को एक दिन आगे बढ़ाया गया - और विपक्ष ने इसी बात को हंगामे के लिए बहाना बनाया.
चुनावी जरूरत से कहीं ज्यादा तो सवर्ण आरक्षण जैसे एक बिल की मोदी सरकार को तात्कालिक आवश्यकता थी, ताकि राफेल से इतर भी बहस का कोई टॉपिक हो. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनावी रैलियों के लिए कुछ नया मसाला चाहिये था - वो खुद भी मिशेल और राफेल पर भाषण दे देकर बोर हो रहे थे.
मोदी सरकार को एक मास्टरस्ट्रोक की सख्त जरूरत थी
विपक्ष के पास सवर्ण आरक्षण बिल को सपोर्ट करने के अलावा कोई चारा भी न था. 'नीति सही है, पर नीयत गलत', भला इससे ज्यादा और कह भी क्या सकते थे. लोक सभा में तो बिल को पास होने दिया, लेकिन राज्य सभा में रंग दिखा ही दिया. बिल का विरोध मुश्किल था, इसलिए सत्र में एक दिन बढ़ाये जाने पर आपत्ति जता डाली. सामाजिक न्याय मंत्री थावरचंद गहलोत ने भी नब्ज पकड़ी और कहा कि बिल अच्छी नीयत के साथ लाया गया है, जिसे लोकसभा से भी मंजूरी मिल गई है.
विरोध का बिगुल बजाया तृणमूल कांग्रेस सांसद सुखेन्दु शेखर राय ने. सवाल उठाया कि राज्यसभा की कार्यवाही एक दिन के लिए बगैर बताय कैसे बढ़ायी गयी. फिर क्या था हंगामा शुरू हो गया. कई सदस्य अपनी सीट से उठे और उपसभापति के सामने पहुंच कर नारेबाजी करने लगे.
बीजेपी सांसद विजय गोयल ने नियमों का हवाला दिया - 'नियम 266 के तहत सरकार को इसका अधिकार है.' वित्त मंत्री अरुण जेटली बोले - 'सदन की चिंता इस बात पर होनी चाहिए कि सदन की कार्यवाही बीते 10 दिन से बाधित हो रही है... कार्यवाही एक दिन के लिए बढ़ायी गयी क्योंकि कई सारे महत्वपूर्ण बिल पास होने हैं.'
कांग्रेस सासंद आनंद शर्मा ने सरकार पर आरोप लगाया - 'अपनी मर्जी से बिल को पास कराने के लिए सदन को रबर स्टैम्प की तरह इस्तेमाल कर रही है. सदन को नियमानुसार नहीं चलाया जा रहा है.' लोक सभा में कांग्रेस ने बिल को सेलेक्ट कमेटी को भेजने की मांग की थी, राज्य सभा में डीएमके सांसद कनीमोझी और सीपीआई सांसद डी. राजा ने भी ये मांग दोहरायी.
दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने वैसे तो सवर्ण आरक्षण को चुनावी स्टंट बताते हुए सपोर्ट किया है, लेकिन दलित नेता जिग्नेश मेवाणी के एक ट्वीट को रीट्वीट कर शक भी जता रहे हैं.
सवर्ण आरक्षण बिल का सबसे बड़ा फायदा तो यही है कि जाते जाते संसद सत्र न सिर्फ राफेल विमर्श से राहत दिला रहा है, बल्कि एक ऐसे मोड़ पर खत्म हो रहा है कि सरकार के लिए अपनी बात बढ़ाना आसान हो.
डैमेज कंट्रोल के लिए भी ऐसे बिल की दरकार थी
बहुतों को लगता है कि सामान्य वर्ग के गरीबों के लिए 10 फीसदी आरक्षण महज राजनीतिक फायदे का सौदा होकर रह जाएगा, लेकिन सरकार को भरोसा है कि ऐसा नहीं होगा. अदालत पहुंचने पर भी इसे खारिज करना आसान न होगा.
एससी-एसटी एक्ट पर सवर्णों की नाराजगी बीजेपी को तीन राज्यों से भी ज्यादा आगे पड़ सकती थी, बीजेपी और मोदी सरकार को उम्मीद है ये बिल उनके जख्मों पर मरहम का काम करेगा. सीएसडीएस के सर्वे के मुताबिक हाल में हुए चुनाव वाले राज्यों की बात करें तो मध्य प्रदेश में 22 फीसदी, राजस्थान में 23 फीसदी और छत्तीसगढ़ में 12 फीसदी सवर्ण लोग हैं. इसी तरह यूपी में 25 फीसदी, बिहार में 18 फीसदी, हरियाणा में 40 फीसदी, झारखंड में 20 फीसदी और दिल्ली में 50 फीसदी सवर्ण जातियों का बोलबाला है. देश भर में सवर्ण समुदाय के लोगों की तादाद 20 से 30 फीसदी के बीच है.
वैसे सवर्ण समुदाय की खासियत है कि इनके वोट बंटे होते हैं, दूसरे जाति समूहों की तरह किसी पार्टी विशेष के वोट बैंक नहीं बन पाते. हर चुनाव में अलग अलग प्रयोग भी करते रहते हैं. माना जाता है कि सवर्णों का बड़ा वोट बीजेपी के खाते में जाता है.
2019 के आम चुनाव से पहले बीजेपी के लिए सवर्णों से गिले-शिकवे खत्म करने ही थे. सवर्णों के आंदोलन का सबसे ज्यादा असर यूपी, बिहार और मध्य प्रदेश में खासतौर पर देखा गया था. इस लिहाज से देखें तो यूपी में 35-40 सीटें, बिहार में 20 सीटें और मध्य प्रदेश की 14 सीटों पर सवर्ण वोट निर्णायक माने जाते हैं. इस तरीके से राजस्थान की 14 सीटें, महाराष्ट्र की 25 सीटें, गुजरात की 12 सीटें, झारखंड की 6 सीटों के अलावा हरियाणा, दिल्ली और उत्तराखंड की 5-5 सीटें ऐसी हैं जिन पर जीत-हार के फैसले में सवर्ण वोटों की भूमिका बड़ी होगी.
2014 में जिन 14 राज्यों में बीजेपी को 282 में से 256 सीटें मिली थीं उनमें 180 सीटों पर सवर्ण वोटों का प्रभाव माना जाता है. कांग्रेस की कर्जमाफी के दांव की काट खोज रही बीजेपी सरकार को सवर्णों को अपने पाले में बनाये रखना जरूरी था - और ये बिल उसमें मददगार तो होगा ही.
रैलियों में भाषण देना भी आसान होगा
सवर्ण आरक्षण बिल से पहले हालत ये हो गयी थी कि विपक्ष खासकर राहुल गांधी आगे बढ़ कर एजेंडा सेट कर रहे थे - और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित उनकी सारी टीम का पूरा वक्त मोर्चे पर आकर बचाव करने में ही जाया होता रहा. मोदी सरकार के लिए हाल फिलहाल ये सबसे बड़ा सिरदर्द रहा. कांग्रेस की कर्जमाफी से मोदी सरकार के खिलाफ माहौल बनता जा रहा था, राफेल डील पर बवाल ने भारी मुसीबत खड़ी कर रखी थी. संसद में अरुण जेटली को संकटमोचक बने रहने के लिए मशक्कत करनी पड़ी तो निर्मला सीतारणन को भी काफी देर तक पारी संभालनी पड़ी. स्मृति ईरानी को तो 15 दिन में ही दोबारा अमेठी दौरा करना पड़ा.
सबसे बड़ी मुश्किल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए हो गयी थी. साल के पहले दिन इंटरव्यू तक में कर्जमाफी से लेकर राफेल तक के सवालों के जवाब देने पड़े. देश भर का तूफानी दौरा शुरू किया तो हर जगह 'मिशेल-मामा' का जप करना मजबूरी हो गयी थी. हर कार्यक्रम में राफेल पर सफाई और मिशेल के नाम की मदद लेनी पड़ रही थी.
अब कम से कम प्रधानमंत्री मोदी अपनी बात मजबूती के साथ तो रख ही सकते हैं - सिर्फ चौकीदारी ही मेरा काम नहीं, जिम्मेदारियां और भी हैं. गरीब सवर्णों को आरक्षण देने की मांग तो मायावती की भी रही है - और कांग्रेस की ख्वाहिश भी, लेकिन बैंड बाजे के साथ लाये तो प्रधानमंत्री मोदी ही. अब तो वो चुनाव प्रचार के आखिरी दिन तक ये सब गर्व के साथ सुनाते रहेंगे.
सवर्ण बिल के साथ आगे जो भी हो, फिलहाल राफेल पर विपक्ष की आवाज को तो खामोश कर ही दिया है. कम से कम चर्चा और सुर्खियों में की-वर्ड तो बदल ही गया है. राज्य सभा में बीजेपी सांसद प्रभात झा ने सबूत भी दे डाले. कांग्रेस अध्यक्ष को चैलेंज करते हुए प्रभात झा बोले, "राहुलजी सुबह-शाम राफेल राफेल करते हैं, अगर हिम्मत है तो इस विधेयक पर बोलने आएं." कांग्रेस नेता आनंद शर्मा ने प्रभात झा के बयान पर ये कहते हुए आपत्ति जतायी कि राहुल गांधी सदन के सदस्य नहीं हैं इसलिए इस बयान को सदन की कार्यवाही से निकाला जाये. उपसभापति ने कार्यवाही देखकर बयान के बारे में विचार करने की बात जरूर कही, लेकिन कांग्रेस नेता प्रभात झा के बयान पर हंगामा करते रहे.
10 जनवरी से अयोध्या केस में राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई हो रही है - और 1 फरवरी को आम बजट का इंतजार है. बजट लोक लुभावन न सही वोट दिलाने वाला तो होगा ही, मान कर चलना चाहिये.
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