कांग्रेस को पिछले चार साल से लगातार मलाल रहा है कि यूपीए-2 की ढंग से पब्लिसिटी हुई होती तो विपक्ष का नेता पद न गंवाना पड़ता. सत्ता का क्या? सत्ता तो आती जाती रहती है. सत्ता की कुर्सी और नेता प्रतिपक्ष में वैसा ही रिश्ता है जैसा दिन और रात में. दिन गया तो रात आएगी तय है. तब क्या हो जब दिन भी बीत जाये और रात भी मुंह मोड़ ले.
'बीती ना बिताये रैना...' भला कोई कब तक गुनगुनाते हुए वक्त गुजार सकता है?
सांसदों की संख्या कम होने के कारण ही बीजेपी बैकग्राउंड वाली स्पीकर ने कांग्रेस को लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं बख्शा. हालांकि, दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीतने के बावजूद अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने विधानसभा में तीन विधायकों वाली बीजेपी को नेता प्रतिपक्ष का पद बड़े शौक से दिया था. ये बात अलग है कि बीजेपी विधायक हर बार ऐसा कुछ करते रहते हैं कि स्पीकर के आदेश पर मार्शल अक्सर उन्हें पकड़ कर बाहर निकालते देखे जा सकते हैं.
राज्य सभा में बहुमत के चलते भले ही कांग्रेस का ये दुख कुछ कम हो जाता हो, लेकिन लोकपाल चयन समिति की बैठक में जब कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को बतौर विशेष अतिथि बुलाया गया तो उन्हें इतना बुरा लगा कि न्योता ही ठुकरा दिया.
अब तो लगता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी कांग्रेस जैसी चिंता सताने लगी है. बाद में मलाल महसूस करने की नौबत आये उससे पहले ही मोदी और उनके भरोसेमंद साथियोें की अगुवाई कर रहे अमित शाह एहतियाती उपाय खोजने में जुट गये हैं.
क्या बीजेपी नेताओं के वश की बात नहीं?
एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के बाद दलितों के मुद्दे पर बीजेपी बुरी तरह घिर गयी थी. दलितों ने भारत बंद रखा और राहुल गांधी ने राजघाट पर उपवास किया.
दलितों में बीजेपी के प्रति धारणा बदलने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री मोदी ने मंत्रियों, बीजेपी सांसदों और नेताओं को दलितों के बीच जाकर उनसे कनेक्ट होने का हुक्म दिया. बीजेपी नेताओं द्वारा इस टास्क को अंजाम देने के...
कांग्रेस को पिछले चार साल से लगातार मलाल रहा है कि यूपीए-2 की ढंग से पब्लिसिटी हुई होती तो विपक्ष का नेता पद न गंवाना पड़ता. सत्ता का क्या? सत्ता तो आती जाती रहती है. सत्ता की कुर्सी और नेता प्रतिपक्ष में वैसा ही रिश्ता है जैसा दिन और रात में. दिन गया तो रात आएगी तय है. तब क्या हो जब दिन भी बीत जाये और रात भी मुंह मोड़ ले.
'बीती ना बिताये रैना...' भला कोई कब तक गुनगुनाते हुए वक्त गुजार सकता है?
सांसदों की संख्या कम होने के कारण ही बीजेपी बैकग्राउंड वाली स्पीकर ने कांग्रेस को लोक सभा में नेता प्रतिपक्ष का पद नहीं बख्शा. हालांकि, दिल्ली की 70 में से 67 सीटें जीतने के बावजूद अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने विधानसभा में तीन विधायकों वाली बीजेपी को नेता प्रतिपक्ष का पद बड़े शौक से दिया था. ये बात अलग है कि बीजेपी विधायक हर बार ऐसा कुछ करते रहते हैं कि स्पीकर के आदेश पर मार्शल अक्सर उन्हें पकड़ कर बाहर निकालते देखे जा सकते हैं.
राज्य सभा में बहुमत के चलते भले ही कांग्रेस का ये दुख कुछ कम हो जाता हो, लेकिन लोकपाल चयन समिति की बैठक में जब कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे को बतौर विशेष अतिथि बुलाया गया तो उन्हें इतना बुरा लगा कि न्योता ही ठुकरा दिया.
अब तो लगता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी कांग्रेस जैसी चिंता सताने लगी है. बाद में मलाल महसूस करने की नौबत आये उससे पहले ही मोदी और उनके भरोसेमंद साथियोें की अगुवाई कर रहे अमित शाह एहतियाती उपाय खोजने में जुट गये हैं.
क्या बीजेपी नेताओं के वश की बात नहीं?
एससी-एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के ऑर्डर के बाद दलितों के मुद्दे पर बीजेपी बुरी तरह घिर गयी थी. दलितों ने भारत बंद रखा और राहुल गांधी ने राजघाट पर उपवास किया.
दलितों में बीजेपी के प्रति धारणा बदलने के उद्देश्य से प्रधानमंत्री मोदी ने मंत्रियों, बीजेपी सांसदों और नेताओं को दलितों के बीच जाकर उनसे कनेक्ट होने का हुक्म दिया. बीजेपी नेताओं द्वारा इस टास्क को अंजाम देने के लिए देश के 20 हजार इलाकों को शॉर्टलिस्ट किया गया था. पैमाना ये रहा कि इलाके में दलित समुदाय के लोगों की आबादी 50 फीसदी या उससे ज्यादा होनी चाहिये.
फरमान सीधे प्रधानमंत्री मोदी से मिला था इसलिए नेता गांवों की ओर दौड़ पड़े. मगर, ये रणनीति बैकफायर करने लगी. दलितों के बीच जाने वाले बीजेपी नेता मोदी सरकार के काम की पब्लिसिटी की जगह अपने प्रचार में जुट गये. मकसद पूरा होना तो दूर विवाद कहीं ज्यादा हुए. कोई आधी रात को किसी दलित परिवार के घर पर धावा बोल कर विवाद किया तो कोई बाहर से खाना मंगाकर हड़कंप मचा दिया. कुछ नेताओं ने तो अपनी जोशीली बयानबाजी से ही इस कदर बवाल मचाया कि खुद तो सुर्खियों में छा गये और सरकार की पब्लिसिटी नकारात्मक हो गयी.
लगता है प्रधानमंत्री मोदी आगे से ऐसा कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते इसलिए पेशेवरों की मदद लेने जा रहे हैं. इकनॉमिक टाइम्स की खबर के अनुसार प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 में बीजेपी के पब्लिसिटी कैंपेन को लेकर विशेषज्ञों से मुलाकात की है.
2019 के चुनाव प्रचार में पीयूष पांडे और प्रसून जोशी का रोल नहीं!
अधिकारियों के हवाले से मिली जानकारी पर आधारित रिपोर्ट के मुताबिक करीब दो घंटे चली इस मीटिंग में 15 लोग शामिल बताये जाते हैं. मीटिंग में कौन कौन मौजूद था ये तो नहीं मालूम, लेकिन 2014 के चुनाव प्रचार में अहम रोल निभाने वाले पीयूष पांडे और प्रसून जोशी तो मीटिंग में नहीं थे. जोशी वैसे भी प्रसून जोशी के पास अपने रूटीन के कामों के अलावा सेंसर बोर्ड जैसी अहम संस्था की जिम्मेदारी मिली हुई है. क्या मालूम लंदन के 'भारत की बात, सबके साथ' जैसे शो आने वाले अच्छे दिनों में और भी करने पड़े. पांडे पहले से ही व्यस्त बताये जा रहे हैं.
हां, प्रशांत किशोर के बारे में अभी कोई खबर सामने नहीं आयी है. 2014 में मोदी को अहमदाबाद से दिल्ली पहुंचाने और उसके साल भर बाद पटना से दिल्ली वापस भेजने में प्रशांत किशोर की भूमिका को भला कौन भूल सकता है?
पब्लिसिटी को लेकर पेशेवरों से मोदी की मुलाकात में प्रचार के तमाम आयामों पर चर्चा हुई बतायी जा रही है, मगर, जिस बात पर सबसे ज्यादा जोर लगता है, वो है - बीजेपी के प्रति आम धारणा की अहमियत.
1. 'धारणा' महत्वपूर्ण है: 2019 के चुनाव प्रचार के लिए प्रधानमंत्री मोदी राजनीति में 'धारणा' के महत्व पर खासतौर पर जोर दे रहे हैं. ध्यान देने वाली बात ये है कि बीजेपी का 'संपर्क फॉर समर्थन' अभियान भी धारणा या परसेप्शन मैनेजमेंट पर ही फोकस है. ऐसा लगता है बीजेपी का पूरा जोर वोटों के हिसाब से लोगों की धारणा बदलने या फिर पार्टी के प्रति पहले से बनी हुई धारणा को कायम रखने में रहने वाला है.
2. युवाओं के बीच पैठ बनाना: प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि कैसे सरकार के संदेश के साथ आम लोग, खास तौर पर युवाओं की बीच पैठ बनायी जा सकती है. अपने अति अजीज रेडियो शो 'मन की बात' में भी युवाओं के वोटों के अहमियत की चर्चा कर चुके हैं. ये तो पहले से ही बताया जा चुका है कि बीजेपी उन युवाओं को ग्रिप में लेने के जुगाड़ में है जो 21वीं सदी में पैदा हुए - और 2019 में पहली बार वोट देने का इंतजार कर रहे हैं.
3. सेंटीमेंट के हिसाब से संवाद: प्रधानमंत्री मोदी की ज्यादा दिलचस्पी इस बात में है कि जमीनी स्तर पर क्या सेंटीमेंट है? और सरकार के संवाद को किस तरह बेहतर बनाया जा सकता है? मोदी ये तो जानते हैं कि लोगों से संवाद कायम करने में उनका कोई सानी नहीं, लेकिन उसकी भी तो सीमा है. मोदी रैली, रोड शो या मन की बात के जरिये तो लोगों से कनेक्ट हो सकते हैं, पर आम वोटर के साथ होने वाले रूटीन संवाद का हिस्सा तो अकेले नहीं बन सकते.
4. विरोधियों के मंसूबे न्यूट्रलाइज करना जरूरी: प्रधानमंत्री मोदी चाहते हैं कि विपक्ष के निगेटिव कैंपेन को कैसे न्यूट्रलाइज किया जाये? 'ये सरकार सिर्फ उद्योगपतियों की सुनती है...' मोदी सरकार के सामने ये सबसे बड़ी चुनौती है.
कभी 'सूट बूट की सरकार' तो कभी 'फेयर एंड लवली' गवर्नमेंट - कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी की ओर से ऐसे न जाने कितने नारे गढ़े जाते रहे हैं. ये नारे इतने चुटीले और सीधे सादे होते हैं कि यूं ही जबान पर चढ़ जाते हैं. गुजरात में तो कांग्रेस का ही कैंपेन था - 'विकास गांडो थयो छे'. चुनाव के अरसा पहले से ही कांग्रेस की ये मुहिम इतनी असरदार हुई कि मोदी को खुद मैदान में उतरना पड़ा - 'हूं छू विकास, हूं छू गुजरात'. बीजेपी विकास को गुजराती अस्मिता से जोड़ कर जैसे तैसे कांग्रेस को कैंपेन वापस लेने के लिए मजबूर कर पायी.
बीजेपी ऐसे सारे अभियानों से परेशान लगती है, इसलिए चाहती है कि विरोधी कोई और शिगूफा छोड़ें उसे काउंटर करने का इंतजाम पहले से ही हो.
5. लोगों को समझाया जाये, नोटबंदी और जीएसटी के दूरगामी नतीजे होंगे: प्रधानमंत्री मोदी का मानना है कि लोगों को इस बात का यकीन दिलाना जरूरी है कि नोटबंदी और जीएसटी लागू करने जैसा कदम हड़बड़ी में नहीं उठाये गये थे. वो चाहते हैं कि लोग इस बात को समझें कि ये ऐसे सुधार हैं जिनसे लोगों और देश को लंबी अवधि में फायदा पहुंचेगा.
गुजरात और हिमाचल चुनाव से लेकर कर्नाटक तक राहुल गांधी जीएसटी को गब्बर सिंह टैक्स के तौर पर लोगों को समझाते रहे हैं. जाहिर है इस साल के आखिर में होने जा रहे राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनावों में भी यही रवैया होगा.
प्रधानमंत्री चाहते हैं कि पब्लिसिटी एक्सपर्ट ऐसी मुहिम चलायें जिससे आम जनता विरोधियों की जगह सरकार की बात को सही मानने लगे - ठीक वैसे ही जैसे सर्जिकल स्ट्राइक को लेकर लोग मोदी सरकार पर यकीन करते हैं.
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