कोरोना (Coronavirus Pandemic) जैसी महामारी ने देश और दुनिया के अधिकतर देशों को अपनी चपेट में ले लिया है. उसके असर इन सभी देशों की सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्थिति में भी देखने को मिल रहे हैं. भारत में इसके असर यहां की विविधतता और ग्रामीण शहरी व्यवस्था में रहने वालों नागरिकों के संदर्भ में अन्य देशों से काफ़ी अलग हैं. ऐसे में हमें भारत की विविधता और सांस्कृतिक स्थिति को ध्यान में रखते हुए कोविड 19 से फैली महामारी से लड़ना है. इससे लड़ते हुए लोकल से वोकल होने की जो बात माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी (PM Modi) ने कही है वह भारत की सामाजिक अवधारणा में वर्षों से रही है. उदारीकरण और बढ़ते वैश्विक अर्थव्यवस्था के दवाब में उस पर कभी ध्यान ना सरकारों द्वारा दिया गया न ही नागरिकों ने इसे समझा. अब जब दुनिया के सामने एक संकट खड़ा है तो उसे वह सब अवधारणा याद आने लगी है जिसे कभी वो समझते हुए दरकिनार करता रहा है.
महात्मा गांधी ने गांव में रहकर आत्मनिर्भर रहने का मूल मंत्र अपने सम्पूर्ण जीवन काल में दिया. आज अगर गांधी दर्शन पर ग़ौर किया जाए तो स्वदेशी अपनाओं ले लेकर स्वावलंबी और आत्मनिर्भर बनने पर ज़ोर दिखेगा. वही आज के समय की ज़रूरत है. उदाहरण से समझे तो पाएंगे कि आज जब पूरे देश में पूर्ण बंदी है तब हमें अपने ज़रूरत के समान की चिंता होने लगी है. 24 घंटे में प्रयोग किए जाने वाले हरेक समान की उपयोगिता महसूस होने लगी है.
वहीं समाज के लिए सकारात्मक होने वाले लोगों को सेवा भाव का मौक़ा भी मिला है. हरेक प्रदेश के किसी भी जिले में आप इन समाज सेवियों के निस्वार्थ भाव से किए जा रहे प्रयास को देख सकते हैं. ग़रीब मज़दूरों को खाना खिलाने से लेकर उनके ठहराव की भी सामर्थवश ज़िम्मेदारी लेते दिख रहे हैं. आदरणीय प्रधानमंत्री की आत्मनिर्भर बनो स्कीम की राशि 20 लाख करोड़ ज़रूर है लेकिन ज़मीनी स्तर पर जिस तरह से लोग अपने आस पास के लोगों की मदद कर रहे हैं वह वाक़ई क़ाबिले तारीफ़ है.
पीएम मोदी ने जिस तरह लोकल पर वोकल होने को कहा है यदि उसे अमली जामा पहना दिया गया तो बहुत जल्द ही हमारी अर्थव्यवस्था पटरी पर आ जाएगी
दूसरी तरफ़ यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि इस पूरे संकट काल में जहां हरेक व्यक्ति प्रभावित हुआ है वहीं इसका सबसे ज़्यादा असर मज़दूर और ग़रीब व्यक्तियों पर दिखाई पड़ता है. वो कमाने खाने की जद्दोजहद में एक राज्य से दूसरे राज्य में सालों से टिके हुए थे. लेकिन इस महामारी के काल ने उन्हें फिर उसी गांव में जाने को मजबूर किया जहां साहूकारी और क़र्ज़ के बोझ में वो हमेशा से डूबा हुआ रहता था.
उसको अब इस मौक़े पर महसूस भी होने लगा है कि मज़दूर होने से बेहतर हैं एक किसान होना. क्योंकि किसान के पास अगर ज़मीन है तो वह उसमें कुछ भी उगा कर उसी आत्मनिर्भर सिद्धांत के ज़रिए ज़िंदा रह सकता है जिसका ज़िक्र हमेशा से गांधी किया करते थे और अब प्रधानमंत्री मोदी ने किया है. एक किसान अपने खेत में जिस अनाज को उगाता है वह देखते ही देखते आशीर्वाद, पतंजलि, अनिक, अमूल जैसे बड़े ब्राण्ड बन जाते हैं और उन पर ऐसा यक़ीन एक उपभोक्ता का बनता है कि वह उससे वो निकल नहीं पाते.
आज जब स्थिति सामान्य नहीं है तब उपभोक्ता कुछ भी किसी भी ब्राण्ड का सामान लेने के लिए तैयार है. हमेशा से यह भेद रहा है कि देश में बनने वाले समान की स्थिति को थोड़ा नीची दृष्टि से देखा गया. कपड़े से लेकर खाद्य पदाथों तक में ग्लोबल होने की हमारी सोच अब क्या बदलेगी ? फ़िल्म स्टार्स से लेकर मंत्री, नेता, विधायक, बड़े उद्योगकर्मी भी अब इस मूल मंत्र से जुड़ सकेंगे?
खिलाड़ियों का लाखों रुपए की पानी वाली बोतल से लेकर उनके कुत्ते के बिस्केट तक में उनकी अन्तर्राष्ट्रीय सोच क्या अब दिखना बंद होगी? ऐसे कई सवाल मन में हैं लेकिन उनके उत्तर क्या इस संकट के बाद बदले हुए मिल पायेंगे यह देखना होगा.
हम अपने आस पास में उगाई जा रही सब्ज़ी, या किसी लघु उद्योग, हथकरघा उद्योग को आगे बढ़ाने में सहायता करते हुए इस महामारी के संकट से लड़े तो निश्चित तौर पर देश आत्मनिर्भर बनेगा. लेकिन बयानबाज़ी और सिद्धांतों के सिर्फ़ घोषणा में बदल देने मात्र से कुछ भी होने वाला नही है. देश का मज़दूर इस संकट के बाद अपने गांव की तरफ़ लौट रहा है कोशिश की जानी चाहिए कि अब वे अपने राज्य में रहकर ही ज़्यादा से ज़्यादा आत्मनिर्भर बनें जिससे दोबारा ऐसे संकट आने पर भारत एक क़दम आगे खड़ा दिखाई दे.
स्वास्थ्य सुविधाओं की मार खा रहे भारत के गांव और क़स्बों में हालत कैसे होंगे यह हम सभी बेहतर जानते हैं इसे बोल और लिख कर ख़ुद को निराशा की स्थिति में ले जाने का समय नहीं है. जो है जितना है उसी में इस संकट से लड़िए और सरकार द्वारा जारी नियमों के पालन के साथ उनका सम्मान भी एक सच्चे देशभक्त की पहली कोशिश होनी चाहिए. क्योंकि हम हैं तो राजनीति में पक्ष विपक्ष दोनों की भूमिका निभा लेंगे.
फ़िलहाल वक़्त लोकल से वोकल होने का है तो आस पास के लोगों से समान ख़रीदिए उन्हें सहायता कीजिए और जो आत्म निर्भर हैं वो दूसरों को आत्मनिर्भर बनाने में अपना योगदान दें ना कि उनका ही हिस्सा खाने को लालायित दिखे.
महेंद्र भटनागर की इस कविता से आत्मनिर्भर बनने के क्रम में आत्म निरीक्षण भी करने की ज़रूरत है. कविता के साथ ख़ुद के अंदर झांकिए और लोकल से वोकल होने के क्रम की शुरुआत कीजिए.
जीवन भर
कुछ भी
अच्छा नहीं किया!
ऐसे तो
जी लेते हैं सब,
कुछ भी लोकोत्तर
जीवन नहीं जिया!
अपने में ही
रहा रमा,
हे सृष्टा!
करना सदय क्षमा !
दैनिक
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