आठ महीने पहले तक अगर किसी ने बीजिंग के सबसे अनुभवी रणनीतिकारों के जरिए भी ये कहा होता कि राष्ट्रपति शी जिनपिंग न सिर्फ प्रोटोकॉल तोड़ेंगे बल्कि देश के दूसरे छोर पर जाकर भारत के प्रधानमंत्री मोदी से मिलेंगे तो सभी आप पर हंसते. अभी पिछले अगस्त तक तो चीनी सरकार, भारत की सरकार को 1962 की याद दिला रही थी.
लेकिन यही हैं भारत-चीन संबंध और इनके बीच का उतार चढ़ाव. यही कारण है कि आज हम, दोनों देशों द्वारा फिर से बातचीत की टेबल पर बैठने की बात कर रहे हैं. पिछले साल के 72 दिनों तक चले डोकलाम विवाद के बाद ये सोचना भी असंभव था कि भारत चीन के बीच फिर से बातचीत होगी या फिर दोनों देश आपसी संबंधों पर जमी बर्फ को पिघलाने के लिए पहल करेंगे.
भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की 27 और 28 अप्रैल को चीन यात्रा की घोषणा रविवार शाम को की गई थी. 27, 28 अप्रैल को प्रधानमंत्री मोदी, यांग्त्ज़ी नदी पर बसे वुहान शहर में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन में भाग लेंगे. ये वही जगह है जहां एक बार माओ ने अपने विला में विश्व के नेताओं के साथ बैठक की थी. ये विला टूरिस्ट साइट बन गई है.
जब विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और उनके चीनी समकक्ष वांग यी एक घंटे की लंबी बैठक के बाद बाहर आए, तो मीडिया को इस बात का आभास हो चुका था कि सबकुछ सामान्य नहीं है. खासकर तब जब मीडिया की ब्रीफिंग के लिए इतनी विस्तृत व्यवस्था की गई थी. क्योंकि चीन में मंत्री मीडिया के सवालों का जवाब देने में बहुत दिलचस्पी न तो रखते हैं न ही उन्हें इतनी तत्परता से जवाब देते हैं.
इस दौरे को भारत और चीन दोनों के द्वारा 'बोल्ड' कदम के रुप में देखा जा रहा है. लेकिन इसमें रिस्क नहीं है ऐसा भी नहीं है. पूर्व विदेश सचिव एस जयशंकर ने एएनआई को बताया, "यह निश्चित रूप से बहुत ही साहसिक कदम है. सच्चाई ये है कि एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन पर सहमति व्यक्त करके दोनों ही नेताओं ने इस संबंध के महत्व को समझा है."
मोदी जिनपिंग के बीच अनौपचारिक शिखर सम्मेलन ने सभी को चौंका दिया है
जयशंकर ने कहा, "उन्होंने खुद ही संबंधों को बेहतर करने की जिम्मेदारी ली है. मुझे लगता है कि ये शिखर सम्मेलन इसलिए अलग होगा क्योंकि यह एक अनौपचारिक शिखर सम्मेलन है. और इसलिए बैठक एक अनौपचारिक और आरामदायक माहौल में होगी. एजेंडा साफ है और सभी के सामने है. दो दिनों में वो बहुत ज्यादा समय एक साथ बिताएंगे और विभिन्न मुद्दों पर बातचीत होगी. ये बातचीत औपचारिक बैठकों की तुलना में अधिक व्यक्तिगत और अधिक इंटरैक्टिव होगी."
राष्ट्रपति शी के साथ एक शिखर बैठक में हिस्सा लेने के लिए चीन की यात्रा करना, वो भी जून में होने वाले शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) सुरक्षा शिखर सम्मेलन से एक महीने पहले. निश्चित रूप से प्रधान मंत्री मोदी द्वारा ये एक साहसिक कदम है.
दोनों नेता बैठक में अपने-अपने हितों के साथ पहुंच रहे हैं. वैश्विक असंतुलन वाले दौर में चीन से संबंध मजबूत करना भारत को फायदा पहुंचा सकता है. ये फायदे दो तरीके के हो सकते हैं. एक तो चुनाव वाले साल में भारत को चीन की ओर से किसी संघर्ष का सामना न करना पड़े. और दूसरा दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (चीन) से वह ज्यादा से ज्यादा आर्थिक फायदे ले सके. जो अभी अमेरिका के साथ ट्रेड वॉर में उलझा हुआ है और विकल्प की तलाश कर रहा है.
राष्ट्रपति शी जिनपिंग अपने दूसरे कार्यकाल की शुरुआत में दुनिया को अपनी राजनीतिक कौशल दिखाने के इच्छुक हैं. और ऐसे में अगर अपने सबसे बड़े पड़ोसी के साथ ही उनके संबंध तनावपूर्ण होंगे तो फिर वैश्विक राजनेता कैसे हो सकते हैं?
हालांकि, उनके अलग-अलग उद्देश्यों से कोई खास फर्क नहीं पड़ेगा. खासकर तब जब दोनों ही देश बड़े पैमाने पर एक दुसरे के साथ अपना हित देख लेंगे.
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