कृषि कानूनों की वापसी (Farm Laws Repealed) की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की घोषणा अगर किसान आंदोलन की जीत है, फिर तो ये फैसला चुनावों के ऐन पहले मोदी सरकार के सरेंडर के तौर पर ही देखा और समझा जाना चाहिये.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन दिन के अपने यूपी दौरे के ठीक पहले राष्ट्र के नाम इमोशनल शब्दों से सराबोर संबोधन में संसद के अगले सत्र में कानूनों को वापस लेने की घोषणा की है. तीन दिन के यूपी दौरे की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी बुंदेलखंड से कर रहे हैं. रानी लक्ष्मीबाई की जयंती पर झांसी में वो 'राष्ट्र रक्षा समर्पण पर्व' में हिस्सा लेंगे और कई आधुनिक हथियार सेना को सौंपेंगे. महोबा में प्रधानमंत्री मोदी 'हर घर नल जल योजना' चालू करने वाले हैं - और 20-21 नवंबर को यूपी पुलिस मुख्यालय में होने वाली डीजीपी कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने का उनका कार्यक्रम तय है.
यूपी चुनाव (Assembly Polls 2022) की चल रही तैयारियों के बीच किसान आंदोलन के एक साल पूरे होने से ठीक पहले 22 नवंबर को लखनऊ में किसान महापंचायत बुलायी गयी है - और इसे लेकर किसान नेता राकेश टिकैत ने बीजेपी को बड़ी चेतावनी दे रखी है. गढ़मुक्तेश्वर मेले राकेश टिकैत धमकी दे डाली थी कि अगर लखनऊ में होने वाली पंचायत को सरकार ने रोकने की कोशिश की तो PM और CM को उत्तर प्रदेश में उतरने नहीं दिया जाएगा.
राजनीतिक तौर पर देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी तरफ से किसानों का ये मुद्दा तो खत्म कर ही दिया है - अब तो बस विधानसभा चुनाव के दौरान क्रेडिट की लड़ाई बची है, अब तो जो भी चाहे जितना स्कोर कर ले!
1. यूपी चुनाव 2022
भारतीय जनता पार्टी और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पहला फीडबैक तो पंचायत चुनावों में ही मिल गया था - खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जिस तरह से बीजेपी को 2014 और फिर 2017 में जाटों के साथ साथ गुर्जर, सैनी जैसी जातियों का सपोर्ट मिला था - बीजेपी को अपने कोर वोट बैंक पर...
कृषि कानूनों की वापसी (Farm Laws Repealed) की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) की घोषणा अगर किसान आंदोलन की जीत है, फिर तो ये फैसला चुनावों के ऐन पहले मोदी सरकार के सरेंडर के तौर पर ही देखा और समझा जाना चाहिये.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन दिन के अपने यूपी दौरे के ठीक पहले राष्ट्र के नाम इमोशनल शब्दों से सराबोर संबोधन में संसद के अगले सत्र में कानूनों को वापस लेने की घोषणा की है. तीन दिन के यूपी दौरे की शुरुआत प्रधानमंत्री मोदी बुंदेलखंड से कर रहे हैं. रानी लक्ष्मीबाई की जयंती पर झांसी में वो 'राष्ट्र रक्षा समर्पण पर्व' में हिस्सा लेंगे और कई आधुनिक हथियार सेना को सौंपेंगे. महोबा में प्रधानमंत्री मोदी 'हर घर नल जल योजना' चालू करने वाले हैं - और 20-21 नवंबर को यूपी पुलिस मुख्यालय में होने वाली डीजीपी कॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने का उनका कार्यक्रम तय है.
यूपी चुनाव (Assembly Polls 2022) की चल रही तैयारियों के बीच किसान आंदोलन के एक साल पूरे होने से ठीक पहले 22 नवंबर को लखनऊ में किसान महापंचायत बुलायी गयी है - और इसे लेकर किसान नेता राकेश टिकैत ने बीजेपी को बड़ी चेतावनी दे रखी है. गढ़मुक्तेश्वर मेले राकेश टिकैत धमकी दे डाली थी कि अगर लखनऊ में होने वाली पंचायत को सरकार ने रोकने की कोशिश की तो PM और CM को उत्तर प्रदेश में उतरने नहीं दिया जाएगा.
राजनीतिक तौर पर देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी तरफ से किसानों का ये मुद्दा तो खत्म कर ही दिया है - अब तो बस विधानसभा चुनाव के दौरान क्रेडिट की लड़ाई बची है, अब तो जो भी चाहे जितना स्कोर कर ले!
1. यूपी चुनाव 2022
भारतीय जनता पार्टी और उसके मातृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पहला फीडबैक तो पंचायत चुनावों में ही मिल गया था - खासतौर से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में. 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों के बाद जिस तरह से बीजेपी को 2014 और फिर 2017 में जाटों के साथ साथ गुर्जर, सैनी जैसी जातियों का सपोर्ट मिला था - बीजेपी को अपने कोर वोट बैंक पर खतरे का एहसास हो चुका था.
किसान आंदोलन में एक महत्वपूर्ण मोड़ आया जब राकेश टिकैत की आंखों से आंसू निकल आये और उसके बाद उनको किसानों के साथ साथ जो राजनीतिक सपोर्ट मिला वो जबरदस्त रहा. तब आरएलडी नेता अजीत सिंह ने सबसे पहले राकेश टिकैत से बात की और हर तरह से समर्थक का भरोसा दिलाया. उसके बाद तो आम आदमी पार्टी नेता संजय सिंह से लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा तक कॉल करने लगे. तभी अजीत चौधरी ने बेटे जयंत चौधरी को सीधे मौके पर ही भेज दिया.
फिर मुजफ्फरनगर में किसान महापंचायत हुई और राकेश टिकैत के भाई और भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने सरेआम कहा कि अजीत सिंह का समर्थन न करना किसानों की सबसे बड़ी भूल थी - तब से लेकर अजीत सिंह के निधन के बाद भी जयंत चौधरी किसानों के बीच बने रहने की कोशिश करते आये हैं और समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव के साथ साथ प्रियंका गांधी वाड्रा का भी परदे के पीछे से सपोर्ट मिलता रहा है. किसानों का अहिंसक आंदोलन, उनका अपनी जिद पर डटे रहना और चौतरफा राजनीतिक समर्थन विधानसभा चुनावों से पहले बीजेपी के लिए बहुत बड़ी चिंता की बात थी. यूपी में बड़े राजनीतिक दलों के बीच औपचारिक तौर पर चुनावी गठबंधन न होना भले ही बीजेपी के पक्ष में गया हो, लेकिन किसानों के मुद्दे पर तो सभी एकजुट हो जाते और ये बीजेपी के लिए मुश्किलों का अंबार खड़ा कर देता. गढ़मुक्तेश्वर में पूरे लाव लश्कर के साथ पहुंचे भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत ने तो साफ तौर पर अपने किसान भाइयों अपील ही कर डाली थी कि इस बार कमल के फूल का सफाया करना है, 'भाइयों, सूबे से कमल की सफाई करनी है, कमर कस लो.' और इससे भी बड़ा और चेतावनी भरा ऐलान रहा, 'अगर 22 नवंबर को होने वाली लखनऊ पंचायत को रोकने की कोशिश की गई तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को उतरने नहीं दिया जाएगा.'
2. लखीमपुर खीरी हिंसा का गले की हड्डी बन जाना
ये ठीक है कि लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद यूपी की योगी आदित्यनाथ सरकार के संकट मोचकों ने राकेश टिकैत को काफी हद तक मैनेज कर लिया था, तभी तो वो यूपी पुलिस के एडीजी प्रशांत कुमार के साथ प्रेस कांफ्रेंस किये और किसानों को शांत भी करा दिया. बाद में भी राकेश टिकैत किसानों को शांत कराने हर उस जगह पहुंचे जहां सरकार को दरकार रही. हालांकि, राकेश टिकैत की इससे छवि ही खराब हुई और उनके इरादे पर सवाल भी उठने लगे थे. राकेश टिकैत का नया रूप भी उसी के नतीजे के तौर पर देखने को मिला है.
लखीमपुर खीरी हिंसा तो बीजेपी नेतृत्व के लिए गले की हड्डी बन ही चुका था - न निगलते बन रही थी, न उगलते. ये लखीमपुर खीरी की ही घटना रही जिसे कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा ने प्लेटफॉर्म ही बना लिया - और केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी को हटाये जाने तक न्याय की लड़ाई शुरू कर दीं.
बेशक कांग्रेस की यूपी में मुकाबले में खड़े होने लायक राजनीतिक हैसियत नहीं बन पायी हो, लेकिन प्रियंका गांधी का घूम घूम कर लोगों के बीच बार बार ये दोहराना कि मंत्री के बेटे ने किसानों को कुचल कर मार डाला और मोदी सरकार उसे बचा रही है - ये बीजेपी के लिए अपने खिलाफ लोगों के बीच मैसेज जाने से परेशान करने वाला तो रहा ही.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही अजय मिश्रा टेनी से इस्तीफा नहीं मांगा हो - और अमित शाह के साथ साथ वो सरकारी कामकाज में हिस्सा लेते रहे हों, लेकिन लखनऊ की रैली में तो जो हुआ गलत ही मैसेज दे रहा था.
अमित शाह की लखनऊ रैली में अजय मिश्रा टेनी भले ही एक पल के लिए फ्रंट पर आये हों, लेकिन कैमरे से बच नहीं पाये - और फिर अमित शाह भी डंके की चोट पर उनको अपने साथ आगे के कार्यक्रम में साथ नहीं ही रख पाये - और ये चीजें प्रियंका गांधी के लिए मसाला बन गयी हैं.
बेशक बीजेपी समाजवादी पार्टी को डाउन करने के लिए कांग्रेस को मुकाबले में बताती रहे, लेकिन कांग्रेस को ऐसे प्रदर्शन करते देखना भी तो बर्दाश्त नहीं हो रहा होगा. वैसे भी बीजेपी को कांग्रेस और सपा में लड़ाई की उम्मीद रही होगी, गठबंधन भले नहीं हुआ लेकिन दोनों के कदम एक दूसरे के मददगार ही लगते हैं.
3. मोदी सरकार के पास कोई उपाय भी तो नहीं बचा था
मोदी सरकार ने किसानों के निबटने के लिए हर तरीके से कोशिश की, लेकिन किसान नहीं माने. कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर के साथ 11 दौर की बातचीत हुई और आखिर में केंद्र सरकार की तरफ से बोल दिया गया कि अब उससे ज्यादा कुछ भी संभव नहीं है. सरकार ने तीनों कृषि कानूनों को 18 महीने तक होल्ड करने का प्रस्ताव रखा था.
बाद में प्रधानमंत्री मोदी ने कृषि मंत्री की बाद दोहराते हुए कहा था कि किसानों से बातचीत बस एक फोन कॉल की दूरी पर है. प्रधानमंत्री के बयान के बाद राकेश टिकैत फोन नंबर भी मांगने लगे थे - लेकिन कोई बात आगे बढ़ पायी हो, ऐसा कभी नहीं लगा.
प्रधानमंत्री मोदी ने खुद आगे आकर कई बार किसानों के समझाने की कोशिश की, लेकिन आखिरकार कदम पीछे खींचने पड़े. राष्ट्र के नाम संदेश में सरकार की ये बेबसी भी देखने को मिली जब प्रधानमंत्री बोले, 'हमारी सरकार... किसानों के कल्याण के लिए, खासकर छोटे किसानों के कल्याण के लिए... देश के कृषि जगत के हित में... देश के हित में... गरीब के उज्जवल भविष्य के लिए... पूरी सत्य निष्ठा से... किसानों के प्रति समर्पण भाव से... नेक नीयत से ये कानून लेकर आई थी... लेकिन इतनी पवित्र बात, पूर्ण रूप से शुद्ध, किसानों के हित की बात - हम अपने प्रयासों के बावजूद कुछ किसानों को समझा नहीं पाये.'
लेकिन अगर सिर पर चुनाव नहीं होते तो क्या प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में यही बातें सुनने को मिल पातीं. लंबा भले नहीं चल पाया हो और एक बड़ी वजह कोरोना वायरस रहा हो, लेकिन CAA के खिलाफ भी आंदोलन हुआ ही था, लेकिन सरकार को परवाह करने की जरूरत तक नहीं पड़ी.
किसानों के डटे रहने के चलते और चुनाव की नजदीक आते देख मोदी सरकार के पास कोई कारगर उपाय भी तो नहीं बचा था - ऊपर से यूपी चुनाव में बीजेपी की वापसी पर भी खतरा मंडराने लगा था.
4. पंजाब में पांव जमाने के मौके की तलाश
मोदी सरकार के कानून वापस लेने की घोषणा के बाद बीजेपी के लिए पंजाब में भी बड़ी संभावनाएं तलाशने का मौका मिल सकता है. जिस तरीके से नयी नवेली पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस के नेता कैप्टन अमरिंदर सिंह ने प्रधानमंत्री मोदी के फैसले को हाथोंहाथ लिया है, पंजाब में बीजेपी के लिए राजनीतिक संभावनाएं बढ़ी हुई लग रही हैं.
ये तो बीजेपी को भी मालूम है कि किसान आंदोलन का सपोर्ट कर कैसे कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब के मुख्यमंत्री रहते कांग्रेस को पंचायत चुनावों में सफलता दिलायी थी - अब एक राजनीतिक संभावना ये तो बन ही सकती है जिसमें किसानों को अपने पाले में खींचने में कैप्टन अमरिंदर सिंह और बीजेपी एक दूसरे के मददगार साबित हों.
हाल ही में पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने 26 जनवरी की दिल्ली हिंसा के आरोप में गिरफ्तार पंजाब के लोगों को मुआवजे के तौर पर दो-दो लाख रुपये देने की घोषणा की थी, ताकि आंदोलनकारी किसानों को कांग्रेस से जोड़े रखा जा सके - लेकिन किसानों को अब जो राहत मिली है, उसके आगे तो पंजाब सरकार की मदद काफी छोटी लगती है.
किसान नेताओं खास कर जाट समुदाय से बराबर संपर्क में रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह जहां किसानों के प्रति अपने पुराने सपोर्ट को बरकरार रखने की कोशिश करेंगे, कोशिश ये भी होगी कि कैसे बीजेपी के प्रति उनके गुस्से को खत्म किया जा सके - और विधानसभा चुनावों में फायदा उठाया जा सके.
5. चुनाव तो 2022 के आगे भी होने हैं
2022 के चुनावों से सीधे सीधे तो मोदी सरकार पर कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था, लेकिन जिस तरह से 2024 के आम चुनाव के लिए बीजेपी का यूपी चुनाव जीतना जरूरी है, ठीक उतना ही अहम जल्द से जल्द किसानों का गुस्सा शांत करना जरूरी है.
विपक्ष तो हावी था ही, बीजेपी के ही नेता और मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक बार बार समझाने की कोशिश कर रहे थे कि अगर केंद्र सरकार कृषि कानूनों को रद्द नहीं करती तो बीजेपी को करारी शिकस्त झेलनी पड़ेगी.
ये सत्यपाल मलिक ही हैं जिनकी चेतावनी है कि पश्चिम यूपी में बीजेपी का कोई नेता किसानों के बीच उनके गांव में घुस नहीं पाएगा - और फिर देखा ही गया कि राकेश टिकैत कह रहे हैं कि प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को उतरने नहीं दिया जाएगा.
जाहिर है, सरकार को ग्राउंड रिपोर्ट और बाकी इनपुट तो मिले ही होंगे - और बीजेपी के अंदरूनी सर्वे के जरिये भी तो चीजें निकल कर आ ही रही होंगी. ऐसे ही मोदी सरकार को भूमि अधिग्रहण अध्यादेश भी वापस लेना पड़ा था. बीजेपी के सत्ता में आये कुछ ही दिन हुए होंगे तभी मोदी सरकार ने नया भूमि अधिग्रहण अध्यादेश ला दिया जिसमें जमीनों के अधिग्रहण के लिए किसानों की सहमति का प्रावधान खत्म कर दिया गया था. किसानों के जबरदस्त विरोध और विपक्ष का साथ न मिल पाने की वजह से चार बार अध्यादेश जारी करने के बावजूद सरकार संसद में कानून पास नहीं करा पायी और आखिरकार 31 अगस्त 2015 को ऐसे ही कदम पीछे खींचने पड़े थे.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के तीनों कृषि कानून वापस लेने के फैसले को मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है, लेकिन अभी ये तो नहीं कहा जा सकता कि बीजेपी को जिस नुकसान की आशंका रही वो तत्काल प्रभाव से फायदे में बदल जाएगी, लेकिन राजनीतिक तौर पर देखें तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी तरफ से ये मुद्दा तो खत्म कर ही दिया है - अब तो बस क्रेडिट की लेने की होड़ शुरू होने वाली है.
तभी तो राहुल गांधी ने अपना पुराना वीडियो शेयर करते हुए ट्विटर पर लिखा है, 'देश के अन्नदाता ने सत्याग्रह से अहंकार का सर झुका दिया. अन्याय के खिलाफ़ ये जीत मुबारक हो! जय हिंद, जय हिंद का किसान!'
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