प्रणब मुखर्जी (Pranab Mukharjee) और नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के मुंह से हमेशा ही तारीफ भरे शब्द ही सुनने को मिले हैं. पूर्व राष्ट्रपति के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जो कुछ कहना था वो उनके निधन के बाद ट्विटर पर प्रणब मुखर्जी के पैर छूते तस्वीरों में उकेर ही दिया था. प्रणब मुखर्जी भी मोदी के पास संसदीय कामों का अनुभव न होने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और कूटनीति की बड़े ही कम वक्त में सीख और समझ लेने की तारीफ करते रहे.
प्रधानमंत्री मोदी को लेकर प्रणब मुखर्जी का नजरिया तो उनके संस्मरण ‘द प्रेसिडेंसियल ईयर्स, 2012-2017’ के अंश में देखे जा चुके थे - अब जबकि किताब मार्केट में आ चुकी है, पूरी तस्वीर साफ हो चुकी है.
अपने संस्मरण में प्रणब मुखर्जी ने बातें तो नोटबंदी के फैसले से लेकर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) का भी जिक्र किया है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन को 'निरंकुश' बताने के साथ साथ 'असहमति की आवाज' से परहेज न करने की भी सलाह दी है. प्रणब मुखर्जी का संस्मरण आने के बाद उनकी नागपुर यात्रा के दौरान RSS के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिये राजधर्म से जुड़े संदेश काफी हद तक साफ नजर आने लगे हैं.
व्यावहारिक राजनीति और कुछ किताबी बातें
व्यावहारिक और किताबी बातों में कितना फर्क होता है, प्रणब मुखर्जी का ये संस्मरण भी मिसाल है. अपने संस्मरण में प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, ‘असहमति की आवाज भी सुननी चाहिये और संसद में अक्सर बोलना चाहिये... विपक्ष को समझाने और देश को उसके बारे में अवगत कराने के लिए संसद को एक मंच के रूप में इस्तेमाल करना चाहिये.’
प्रणब मुखर्जी की नजर में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी की ही तरह मनमोहन सिंह ने भी संसद में अपनी मौजूदगी का बराबर अहसास कराया है - और, प्रणब मुखर्जी की सलाह मानें तो, नरेंद्र मोदी को भी अपने पहले के प्रधानमंत्रियों से सबक लेते हुए वैसा ही करना चाहिये. किताब में प्रणब मुखर्जी...
प्रणब मुखर्जी (Pranab Mukharjee) और नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) के मुंह से हमेशा ही तारीफ भरे शब्द ही सुनने को मिले हैं. पूर्व राष्ट्रपति के बारे में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जो कुछ कहना था वो उनके निधन के बाद ट्विटर पर प्रणब मुखर्जी के पैर छूते तस्वीरों में उकेर ही दिया था. प्रणब मुखर्जी भी मोदी के पास संसदीय कामों का अनुभव न होने के बावजूद अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और कूटनीति की बड़े ही कम वक्त में सीख और समझ लेने की तारीफ करते रहे.
प्रधानमंत्री मोदी को लेकर प्रणब मुखर्जी का नजरिया तो उनके संस्मरण ‘द प्रेसिडेंसियल ईयर्स, 2012-2017’ के अंश में देखे जा चुके थे - अब जबकि किताब मार्केट में आ चुकी है, पूरी तस्वीर साफ हो चुकी है.
अपने संस्मरण में प्रणब मुखर्जी ने बातें तो नोटबंदी के फैसले से लेकर सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह (Manmohan Singh) का भी जिक्र किया है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शासन को 'निरंकुश' बताने के साथ साथ 'असहमति की आवाज' से परहेज न करने की भी सलाह दी है. प्रणब मुखर्जी का संस्मरण आने के बाद उनकी नागपुर यात्रा के दौरान RSS के मंच से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिये राजधर्म से जुड़े संदेश काफी हद तक साफ नजर आने लगे हैं.
व्यावहारिक राजनीति और कुछ किताबी बातें
व्यावहारिक और किताबी बातों में कितना फर्क होता है, प्रणब मुखर्जी का ये संस्मरण भी मिसाल है. अपने संस्मरण में प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, ‘असहमति की आवाज भी सुननी चाहिये और संसद में अक्सर बोलना चाहिये... विपक्ष को समझाने और देश को उसके बारे में अवगत कराने के लिए संसद को एक मंच के रूप में इस्तेमाल करना चाहिये.’
प्रणब मुखर्जी की नजर में जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी की ही तरह मनमोहन सिंह ने भी संसद में अपनी मौजूदगी का बराबर अहसास कराया है - और, प्रणब मुखर्जी की सलाह मानें तो, नरेंद्र मोदी को भी अपने पहले के प्रधानमंत्रियों से सबक लेते हुए वैसा ही करना चाहिये. किताब में प्रणब मुखर्जी की 2019 में ज्यादा सीटों के साथ सत्ता में लौटे प्रधानमंत्री मोदी को सलाह है, ‘अपना दूसरा कार्यकाल संभाल रहे प्रधानमंत्री मोदी को अपने पूर्ववर्ती प्रधानमंत्रियों से प्रेरणा लेनी चाहिये - और संसद में मौजूदगी बढ़ाते हुए एक नजर आने वाला नेतृत्व देना चाहिये ताकि वैसी परिस्थितियों से बचा सके जो हमने उनके पहले कार्यकाल में संसदीय संकट के रूप में देखा था.’
पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की प्रदानमंत्री नरेंद्र मोदी से 'एक नजर आने वाला नेतृत्व देना चाहिये' भी करीब करीब वैसा ही लग रहा है जैसा कांग्रेस G-23 नेताओं ने सोनिया गांधी को लिखी चिट्टी में कांग्रेस के पूर्णकालिक नये अध्यक्ष से अपेक्षा रखी है - 'काम करते हुए नजर आने वाला.'
लेकिन ऐन उसी वक्त प्रणब मुखर्जी की बातों में एक विरोधाभास भी देखने को मिलता है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को लेकर वो दो तरह की बातें करते हैं. एक तरफ तो संसद में मौजूदगी का अहसास कराने के लिए वो मनमोहन सिंह को भी नेहरू, इंदिरा और वाजपेयी की कतार में रखने, लेकिन ठीक उसी समय संसद में उनकी गैरमौजूदी को भी कांग्रेस के 2014 में बुरी शिकस्त के लिए जिम्मेदार बताते हैं - फिर कौन सी बात मानी जाये. एक ही व्यक्ति के एक ही व्यक्ति के बारे में ऐसी विपरीत अवधारणा तो असल बात समझना मुश्किल हो जाता है.
प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, 'सोनिया गांधी जहां पार्टी से जुड़े मामलों को हैंडल करने में अक्षम नजर आयीं, वहीं डॉक्टर मनमोहन सिंह की सदन से लंबी अनुपस्थिति और सासंदों से संवाद का अभाव' कांग्रेस के लिए 2014 में सबसे ज्यादा भारी पड़ा था. प्रणब मुखर्जी यहां ये भी जोड़ते हैं कि कांग्रेस में कई लोग मानते थे कि अगर 2004 में वो खुद प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे होते तो कांग्रेस को ये दिन नहीं देखने पड़ते, लेकिन लगे हाथ प्रणब मुखर्जी ने इस बात से इंकार किया है कि वो भी ऐसी बातों से कोई इत्तफाक रखते हैं.
मनमोहन सिंह सरकार में प्रणब मुखर्जी सबसे सीनियर कैबिनेट मिनिस्टर हुआ करते थे और उन दिनों के अपने कामकाज का उल्लेख भी किया है - और वो बातें भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए नसीहत ही नजर आ रही हैं.
प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि यूपीए शासन के दौरान वो एनडीए के साथ साथ यूपीए के भी सीनियर नेताओं के लगातार संपर्क में रहते थे - और जो भी जटिल मुद्दे होते थे - वो उनके समाधान निकालने की कोशिश करते थे. प्रणब मुखर्जी लिखते हैं,‘मेरा काम सुचारू रूप से संसद चलाना था चाहे इसके लिए मुझे बैठकें करनी हो या विपक्षी गठबंधन के नेताओं को समझाना हो... जब भी कभी जटिल मुद्दे सामने आये उसे सुलझाने के लिए मैं हर समय संसद में मौजूद रहता था.’
बिलकुल ठीक. ये तो प्रणब मुखर्जी खुद अपने प्रयासों के बारे में बता रहे हैं. असहमति की बातों को लेकर प्रणब मुखर्जी लिखते हैं, ‘मैं सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच कटुतापूर्ण बहस के लिए सरकार के अहंकार और स्थिति को संभालने में उसकी अकुशलता को जिम्मेदार मानता हूं... विपक्ष भी इसके लिए जिम्मेवार था... उसने भी गैर जिम्मेदाराना व्यवहार किया.’
RSS का 'राष्ट्रवाद' और 'असहिष्णुता'
राष्ट्रपति भवन छोड़ने के करीब साल भर बाद प्रणब मुखर्जी को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की तरफ से नागपुर में स्वयंसेवकों को संबोधित करने का मिला न्योता खूब चर्चित रहा. कांग्रेस की तरफ से भी खूब बयानबाजी हुई थी. कांग्रेस के कुछ नेताओं ने प्रणब मुखर्जी को ऐसा न करने की सलाहियत भी दी, लेकिन वो मान नहीं, गये भी और बोले भी.
जून, 2018 में संघ के संस्थापक डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार के जन्मस्थान पहुंचे प्रणब मुखर्जी ने विजिटर बुक में लिखा, "आज मैं यहां भारत माता के एक महान सपूत के प्रति अपना सम्मान जाहिर करने और श्रद्धांजलि देने आया हूं."
2015 में जब बिहार में विधानसभा के चुनाव चल रहे थे, उसी दौरान असहिष्णुता के खिलाफ आंदोलन काफी लंबा चला था. मोदी सरकार के खिलाफ चलायी गयी मुहिम के दौरान कई साहित्यकारों और कलाकारों ने समय पर मिले सम्मान वापस कर दिये थे. दादरी में अखलाक की हत्या के बाद ये आंदोलन पूरे देश में जोर पकड़े हुए था. अवॉर्ड वापसी अभियान के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुप्पी पर भी सवाल खड़े किये जा रहे थे.
तभी राष्ट्रपति भवन में एक कार्यक्रम में प्रणब मुखर्जी ने कहा था, "हम अपनी सभ्यता के आधारभूत मूल्यों को खोने नहीं दे सकते... हमारे आधारभूत मूल्य हैं कि हमने हमेशा विविधता को स्वीकार किया है, सहनशीलता और अखंडता की वकालत की है..."
तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने आगे कहा, "बहुत-सी प्राचीन सभ्यताएं नष्ट हो गईं... हमलों-दर-हमलों के बावजूद हमारी सभ्यता इन्हीं आधारभूत मूल्यों की वजह से बची रही... अगर हम ये बात याद रखें, कोई भी हमारे लोकतंत्र को आगे बढ़ते रहने से नहीं रोक सकता..."
प्रणब मुखर्जी के इस बयान के बाद बिहार की एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था, ''छोटे-मोटे लोग राजनीतिक फायदा उठाने के लिए उल्टे-सीधे बयान देते रहते हैं. मैं अपील करता हूं कि इनकी बात न सुनें... आप नरेंद्र मोदी की बात भी न सुनें... राष्ट्रपति ने सद्भाव का जो रास्ता दिखाया है हम सबको मिलकर उस पर चलना होगा...''
नागपुर में प्रणब मुखर्जी के भाषण में निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कांग्रेस नेतृत्व ही रहा. तब राहुल गांधी कांग्रेस के अध्यक्ष हुआ करते थे. प्रणब मुखर्जी की तब की बातों पर ध्यान दें तो लगता है जैसे बड़ी ही संजीदगी के साथ वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को राजधर्म की याद भी दिला रहे थे - और कांग्रेस नेतृत्व को भी आगाह कर रहे थे कि संघ की विचारधारा को खारिज करना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन होगा. ये बात अलग है कि राहुल गांधी पर प्रणब मुखर्जी की बातों का कभी भी कोई असर देखने को नहीं मिला.
संघ का राष्ट्रवाद भी हिंदुत्व से शुरू होकर हिंदुत्व पर ही खत्म हो जाता है. हाल ही में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने राहुल गांधी को ये भी समझाने की कोशिश की कि देशभक्त और देशद्रोही के बीच के फर्क को संघ कैसे परिभाषित करता है. वैसे मोहन भागवत महात्मा गांधी के 'सबको संपति दे...' जैसी बातों की मिसाल तो देते हैं, लेकिन ठीक उसी वक्त ऐसा भी लगता है जैसे वो गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त के अलावा कुछ और मानने को तैयार भी नहीं होते!
कुर्ता धोती पहने पहुंचे प्रणब मुखर्जी और मोहन भागवत का संघ के प्रार्थना के वक्त खड़े होने का अंदाज भी संदेशों से भरा था - वो तस्वीर मिसाल है. मंच पर प्रणब मुखर्जी को आमंत्रित करते हुए मोहन भागवत ने कहा था - वो अंग्रेजी भाषा में बोलेंगे और 'कान देकर सुनिये तो समझ में भी आएगा'.
नागपुर में प्रणब मुखर्जी ने मुगलों से लेकर अंग्रेजों तक का जिक्र किया था और ह्वेनसांग-फाह्यांग की बातें भी. समझाने की कोशिश यही रही कि हर किसी ने हिंदू धर्म की तारीफ की है. फिर भी प्रणब मुखर्जी का जोर इसी बात पर रहा कि सहिष्णुता ही हमारी राष्ट्रीय पहचान है - और असहिष्णुता से ये धूमिल हो जाती है.
प्रणब मुखर्जी ने कहा था, '50 साल से ज़्यादा के सार्वजनिक जीवन बिताने के बाद मैं कह रहा हूं कि बहुलतावाद, सहिष्णुता, मिलीजुली संस्कृति, बहुभाषिकता ही हमारे देश की आत्मा है.'
ये तो साफ हो चुका है, प्रधानमंत्री मोदी के बारे में प्रणब मुखर्जी जो कुछ बोला करते रहे, वो सब के सब राजनीतिक बयान हुआ करते थे, मोदी के प्रति मुखर्जी के 'मन की बात' तो अब सामने आ रही है.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दुनिया भर के नेताओं के साथ दोस्ती और निजी रिश्तों के अलावा पाकिस्तान के तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को जन्म दिन की बधायी देने लाहौर जाने के कदम को भी गलत माना है. अपनी बात को सही ठहराने के लिए प्रणब मुखर्जी ने बांग्लादेश की प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना के साथ मित्रता को भी पूरी तरह राजनीतिक रिश्ता माना है.
प्रणब मुखर्जी की राय में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों के संदर्भ में नेताओं के खास रिश्तों का कबूलनामा या इजहार कोई मायने नहीं रखते. 2015 में मोदी की लाहौर यात्रा को लेकर प्रणब मुखर्जी ने लिखा है कि उसकी कोई जरूरत नहीं थी, खासकर बाद के दिनों में भी भारत और पाकिस्तान के संबंधों पर गौर फरमायें तो. प्रधानमंत्री मोदी की वुहान यात्रा और चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ गुजरात और तमिलनाडु यात्राओं को लेकर विपक्ष खेमे की आलोचना का भी आधार यही रहा है.
कितना अच्छा होता अगर ये किताब 31 अगस्त, 2020 से पहले ही आयी होती या फिर अब जबकि किताब प्रकाशित हुई है, प्रणब मुखर्जी भी हमारे बीच होते - और उनकी लिखी बातों पर जिस किसी के मन में जो भी शंकाएं हैं - वो खुद साफ कर देते!
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