आखिरकार पांच प्रदेशों में हुए चुनाव के नतीजे आ गए और इसके साथ ही कुछ पार्टियों के लिए खुशी तो कुछ के लिए गम साथ लाई. कोई होली खेलेंगे तो किसी का रंग में भंग भी हुआ. इसके साथ ही चुनाव नतीजे का विश्लेषण भी अभी से ही चालू हो चूका है. लेकिन आज हम एक ऐसे शख्स की बात कर रहे हैं जिनकी भूमिका चुनावों में अहम मानी जाती रही है. लेकिन इस बार ऐसा प्रतीत होता है कि वो फेल हो चुके हैं और उनका दूकान भी कहीं बंद न हो जाए?
प्रशांत किशोर, पीके के नाम से मशहूर, चुनावी रणनीतिकार, पोल मैनेजमेंट गुरु, चुनावी चाणक्य और पता नहीं कौन-कौन नाम से प्रसिद्ध हो चुके हैं. पीके का मतलब चुनावों में जीत का गारन्टी. हालांकि ये बात और है कि वो मोटी फीस लेते हैं लेकिन एक बार उन्हें अपने साथ जोड़ें बाकी का काम टीम पीके का.
इस बार यानी 2017 के यूपी और उत्तारखंड विधानसभा में प्रशांत किशोर की अग्नि परीक्षा थी. लेकिन, यहां उनकी कार्यशैली पूरी तरह से खत्म नज़र आ रही है. दोनों प्रदेशों में कांग्रेस की मिट्टी पलीद हो गई. उत्तराखंड में तो हालात यह हो गया कि मुख्यमंत्री हरीश रावत, जो दो सीटों से चुनाव लड़ रहे थे वो दोनों जगह से चुनाव हार गए.
यूपी में ऐसे फेल हुए प्रशांत किशोर
जब यूपी चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस जो 2012 के विधानसभा में 28 सीटें जीती थी इस बार मात्र 7 सीटों पर सिमट कर रह गई. लगता है प्रशांत किशोर का नारा दिया हुआ "यूपी को साथ पसन्द है" से 'यूपी को केवल सात पसन्द है' हो गया. या कहें कि प्रशांत किशोर ने राहुल के सपनों को चकनाचूर कर दिया. क्योंकि वहां की सारी ज़िम्मेवारी प्रशांत किशोर के हाथों में ही थी. कांग्रेस यूपी में अपनी वापसी को लेकर कुछ भी करने के लिए जब मज़बूर थी तब उसे पीके की याद आई और उन्हें सर्वसम्मति से ज़िम्मेवारी सौंप दी गई.
पहले उन्होंने ब्राह्मण...
आखिरकार पांच प्रदेशों में हुए चुनाव के नतीजे आ गए और इसके साथ ही कुछ पार्टियों के लिए खुशी तो कुछ के लिए गम साथ लाई. कोई होली खेलेंगे तो किसी का रंग में भंग भी हुआ. इसके साथ ही चुनाव नतीजे का विश्लेषण भी अभी से ही चालू हो चूका है. लेकिन आज हम एक ऐसे शख्स की बात कर रहे हैं जिनकी भूमिका चुनावों में अहम मानी जाती रही है. लेकिन इस बार ऐसा प्रतीत होता है कि वो फेल हो चुके हैं और उनका दूकान भी कहीं बंद न हो जाए?
प्रशांत किशोर, पीके के नाम से मशहूर, चुनावी रणनीतिकार, पोल मैनेजमेंट गुरु, चुनावी चाणक्य और पता नहीं कौन-कौन नाम से प्रसिद्ध हो चुके हैं. पीके का मतलब चुनावों में जीत का गारन्टी. हालांकि ये बात और है कि वो मोटी फीस लेते हैं लेकिन एक बार उन्हें अपने साथ जोड़ें बाकी का काम टीम पीके का.
इस बार यानी 2017 के यूपी और उत्तारखंड विधानसभा में प्रशांत किशोर की अग्नि परीक्षा थी. लेकिन, यहां उनकी कार्यशैली पूरी तरह से खत्म नज़र आ रही है. दोनों प्रदेशों में कांग्रेस की मिट्टी पलीद हो गई. उत्तराखंड में तो हालात यह हो गया कि मुख्यमंत्री हरीश रावत, जो दो सीटों से चुनाव लड़ रहे थे वो दोनों जगह से चुनाव हार गए.
यूपी में ऐसे फेल हुए प्रशांत किशोर
जब यूपी चुनाव के नतीजे आए तो कांग्रेस जो 2012 के विधानसभा में 28 सीटें जीती थी इस बार मात्र 7 सीटों पर सिमट कर रह गई. लगता है प्रशांत किशोर का नारा दिया हुआ "यूपी को साथ पसन्द है" से 'यूपी को केवल सात पसन्द है' हो गया. या कहें कि प्रशांत किशोर ने राहुल के सपनों को चकनाचूर कर दिया. क्योंकि वहां की सारी ज़िम्मेवारी प्रशांत किशोर के हाथों में ही थी. कांग्रेस यूपी में अपनी वापसी को लेकर कुछ भी करने के लिए जब मज़बूर थी तब उसे पीके की याद आई और उन्हें सर्वसम्मति से ज़िम्मेवारी सौंप दी गई.
पहले उन्होंने ब्राह्मण कार्ड खेलते हुए शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री के उम्मीदवार बनवाया. उसके बाद राज बब्बर को प्रदेश अध्यक्ष बनवाया. उसके बाद उन्होंने खाट सभा का आयोजन किया. खाटों की तो लूट हो गई लेकिन उसके बदले जनता ने वोट भी नही दिया. इसी खाट सभा के द्वारा उन्होंने कांग्रेस के लिए "27 साल यूपी बेहाल" का नारा भी दिया, जिसमे खाटों का लूट तो ज़रूर मची लेकिन इसके बाद भी कुछ हासिल नहीं हो पाया.
और अंत में बारी आई गठबंधन की जिसमें उन्होंने कांग्रेस को समाजवादी पार्टी के साथ जोड़ा. रातों रात बैनर पोस्टर को बदल दिया गया जिसमें अखिलेश और राहुल साथ-साथ दिखने लगे थे और नारा दिया गया...'यूपी को ये साथ पसन्द है'. लेकिन शायद तब तक काफी देर हो चूकी थी.
राज बब्बर को भले ही प्रदेश अध्यक्ष बनाया गया था. लेकिन, उनकी एक भी नही चली. सारा काम पीके के हांथ में था. वो जो भी काम किए वो कांग्रेस के नेताओं से पूछकर नहीं बल्कि उन्हें बताकर. हालांकि इसके पहले बिहार में कांग्रेस के लिए प्रशांत किशोर लकी साबित हुए थे जब उन्होंने महागठबंधन में कांग्रेस को शामिल करवाया था. तब कांग्रेस 27 सीटें जितने में कामयाब हुई थी.
लेकिन अगर हम असम की बात करें तो प्रशांत किशोर की अगुआई में ही कांग्रेस को वहां शिकस्त मिली थी. 126 सदस्यीय हरियाणा विधानसभा में भाजपा ने 60 सीटों के साथ बढ़त हासिल की और सरकार बनाने में कामयाब रही थी. भाजपा के सर्वानंद सोनोवाल ने 15 वर्षों से असम में जारी तरूण गोगोई की कांग्रेस सरकार को हराकर भारतीय जनता पार्टी को जीत दिलाई थी.
प्रशांत किशोर का जिताने का दावा खोखला!
इस बार के चुनाव परिणाम आने के बाद ऐसे संकेत आ रहें हैं जिससे लगता है कि प्रशांत किशोर का जिताने का दावा खोखला होता है. जब हम 2014 के लोकसभा की बात करें तो उस समय बीजेपी की लहर थी. सारे लोग जानते थे कि भाजपा की सरकार आने वाली है. जब 2015 के बिहार विधानसभा की बात होती है तो वहां भी नीतीश कुमार राजद के साथ गठबंधन करने के बाद मजबूत स्थिति में थे. जहां तक पंजाब की बात है तो तो यहां अकाली दल और बीजेपी के लिए खतरे की घण्टी पहले ही बज चुकी थी. इसलिए यहां भी जीत का सेहरा प्रशांत किशोर के सिर बांधना पूरी तरह सही नहीं होगा.
प्रशांत किशोर का सफर
सबसे पहले भाजपा के लिए 2012 के गुजरात विधानसभा के चुनाव का कमान प्रशांत किशोर के हाथों में थी और उन्होंने इसे बखूबी निभाया भी था. 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के लिए वो लकी साबित हुए. उसले बाद से उनका ग्राफ बढ़ता ही चला गया. किसी कारणवश लोकसभा के परिणामों के बाद उन्हें 'कमल' का साथ छोड़ना पड़ा था.
इसके तुरन्त बाद ही उन्होंने मोदी के घोर विरोधी रहे बिहार के मुख्यमंत्री का दामन थाम कर दूसरी पारी आरम्भ की और उसमें भी सफलता प्राप्त की. उन्होंने नीतीश कुमार के साथ बिहार में व्यापक प्रचार अभियान चलाया और उन्हें विजय दिलवाने में अहम भूमिका अदा की थी. बिहार में उनका नारा "बिहार में बहार है, नीतिश की सरकार है" काफी प्रचलित भी हुआ था.
लेकिन जब प्रशांत किशोर ने असम में कांग्रेस को जीत दिलवाने का जिम्मा लिया तो वहां आरएसएस की रणनीति और राजनीति के सामने प्रशांत किशोर का एक भी नहीं चली और उनके हर दांव फेल हो गए और वहां से कांग्रेस की 15 साल पुरानी सरकार धराशायी हो गई.
खैर, प्रशांत किशोर का चुनावी रणनीतिकार के रूप में सफर खट्टा-मीठा ही रहा लेकिन हाल के चुनावी नतीजों ने उनके कार्यशैली पर प्रश्नचिन्ह तो लगा ही दिया है. अब देखना ये होगा कि आने वाले समय में चुनावों में उनकी महारत बनी रहती है या फिर उनका दूकान बंद हो जाएगी.
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