प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) को किसी भी राजनीतिक दल का नेतृत्व तो साथ रखना चाहता है, लेकिन बाकी नेताओं को उनके नाम से ही चिढ़ मच जाती है. पिछले सात साल से तो बिलकुल ऐसा ही देखने को मिल रहा है - 2014 में बीजेपी से लेकर 2021 में कांग्रेस तक.
वैसे तो किसी के लिए भी हर टास्क मुश्किल होता है, लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव में प्रशांत किशोर के लिए ममता बनर्जी को चुनावी वैतरणी पार कराना कुछ ज्यादा ही मुश्किल हो चला था. सिर्फ मोदी-शाह ही नहीं, बीजेपी ने बड़े बड़े नेताओं की पूरी फौज ही बंगाल में उतार दी थी - और सभी से एक साथ जूझने के लिए तृणमूल कांग्रेस के पास ममता बनर्जी के अलावा एक भी मजबूत नेता नहीं था.
ममता बनर्जी के करण-अर्जुन मुकुल रॉय और फिर शुभेंदु अधिकारी को भी बीजेपी के तोड़ लेने के बाद जितने भी नेता बचे थे, ज्यादा से ज्यादा प्रवक्ताओं की भूमिका में ही नजर आते थे - ले देकर महुआ मोइत्रा और डेरेक-ओ-ब्रायन इर्द गिर्द नजर आते थे और उनको ही बारी बारी से पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर वाले सभी किरदारों में सामने आना पड़ता था.
तृणमूल कांग्रेस में भी ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी को छोड़ कर शायद ही ऐसा कोई नेता होगा जिसे प्रशांत किशोर से कोई दिक्कत न रही हो. माना गया कि शुभेंदु अधिकारी के टीएमसी छोड़ने में बीजेपी में जाने के लालच के साथ साथ प्रशांत किशोर से ही सबसे ज्यादा दिक्कत रही.
ये हाल तब रहा जब प्रशांत किशोर तृणमूल कांग्रेस के लिए महज एक प्रोफेशनल चुनावी रणनीतिकार के तौर पर काम कर रहे थे, लेकिन अब उनके कांग्रेस ज्वाइन करने की बात चल रही है. आखिरी अपडेट ये है कि कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) को ही प्रशांत किशोर के मामले में फाइनल फैसला लेने वाली हैं.
मुश्किल ये है कि कांग्रेस में एक धड़ा प्रशांत किशोर...
प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) को किसी भी राजनीतिक दल का नेतृत्व तो साथ रखना चाहता है, लेकिन बाकी नेताओं को उनके नाम से ही चिढ़ मच जाती है. पिछले सात साल से तो बिलकुल ऐसा ही देखने को मिल रहा है - 2014 में बीजेपी से लेकर 2021 में कांग्रेस तक.
वैसे तो किसी के लिए भी हर टास्क मुश्किल होता है, लेकिन पश्चिम बंगाल चुनाव में प्रशांत किशोर के लिए ममता बनर्जी को चुनावी वैतरणी पार कराना कुछ ज्यादा ही मुश्किल हो चला था. सिर्फ मोदी-शाह ही नहीं, बीजेपी ने बड़े बड़े नेताओं की पूरी फौज ही बंगाल में उतार दी थी - और सभी से एक साथ जूझने के लिए तृणमूल कांग्रेस के पास ममता बनर्जी के अलावा एक भी मजबूत नेता नहीं था.
ममता बनर्जी के करण-अर्जुन मुकुल रॉय और फिर शुभेंदु अधिकारी को भी बीजेपी के तोड़ लेने के बाद जितने भी नेता बचे थे, ज्यादा से ज्यादा प्रवक्ताओं की भूमिका में ही नजर आते थे - ले देकर महुआ मोइत्रा और डेरेक-ओ-ब्रायन इर्द गिर्द नजर आते थे और उनको ही बारी बारी से पीर, बावर्ची, भिश्ती, खर वाले सभी किरदारों में सामने आना पड़ता था.
तृणमूल कांग्रेस में भी ममता बनर्जी और उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी को छोड़ कर शायद ही ऐसा कोई नेता होगा जिसे प्रशांत किशोर से कोई दिक्कत न रही हो. माना गया कि शुभेंदु अधिकारी के टीएमसी छोड़ने में बीजेपी में जाने के लालच के साथ साथ प्रशांत किशोर से ही सबसे ज्यादा दिक्कत रही.
ये हाल तब रहा जब प्रशांत किशोर तृणमूल कांग्रेस के लिए महज एक प्रोफेशनल चुनावी रणनीतिकार के तौर पर काम कर रहे थे, लेकिन अब उनके कांग्रेस ज्वाइन करने की बात चल रही है. आखिरी अपडेट ये है कि कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) को ही प्रशांत किशोर के मामले में फाइनल फैसला लेने वाली हैं.
मुश्किल ये है कि कांग्रेस में एक धड़ा प्रशांत किशोर के नाम पर नो एंट्री का बोर्ड बन कर खड़ा हो गया है - और ऐसा माहौल बनाने की कोशिश चल पड़ी है कि प्रशांत किशोर के पास कोई जादुई छड़ी नहीं है. हालांकि, कांग्रेस नेता बहुत गलत भी नहीं सोच रहे हैं.
प्रशांत किशोर कांग्रेस (Congress) ज्वाइन करने का मामला डिरेल तो नहीं लेकिन लटका हुआ ही लगता है - और वो भी तब जबकि सबसे पहले राहुल गांधी ने करीबी और सीनियर नेताओं की मीटिंग बुलाकर फीडबैक लेने की कोशिश की थी. नेताओं का रिएक्शन भी काफी हद तक पॉजिटिव ही रहा - 'आइडिया बुरा नहीं है.'
प्रशांत किशोर का इतना विरोध होता क्यों है
प्रशांत किशोर को चुनाव कैंपेन का काम करते करीब 10 साल हो चुके हैं. 2011 में वो गुजरात के मुख्यमंत्री रहते नरेंद्र मोदी के संपर्क में आये थे और 2012 के गुजरात विधानसभा के लिए बीजेपी की चुनाव मुहिम का ठेका एक पायलट प्रोजेक्ट के तौर पर दिया गया था. प्रशांत किशोर का पहला असाइनमेंट सफल रहा तो 2014 के आम चुनाव के लिए भी विस्तार से चर्चा हुई और वो भी फाइनल हो गया.
2014 में बीजेपी के इलेक्शन कैंपेन के सफल संचालन के बाद ही प्रशांत किशोर मुख्यधारा की राजनीति में शामिल होना चाहते थे. कायदे से तो प्रशांत किशोर अपनी काबिलियत साबित कर चुके थे, इसलिए बहुत हद तक निश्चिंत भी हो गये थे कि बीजेपी में कोई ढंग का पद मिल जाएगा और प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करना होगा तो करिअर सेटल हो जाएगा.
कुदरत की व्यवस्था भी अजीब होती है, इंसान जो चाहता है वो अपनी मेहनत और काबिलियत से कर लेता है, लेकिन जो सोचता है उसमें उसकी किस्मत आड़े आ जाती है और होने नहीं देती - प्रशांत किशोर के साथ तो बिलकुल ऐसा ही हुआ. अपने पेशेवर हुनर की मदद से वो मोदी को प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे, बना भी दिये - लेकिन जब एक जगह ठहर कर काम करने की सोचे तो किस्मत आड़े आ ही गयी.
प्रशांत किशोर की बातों से लगता है कि आज भी प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनका संपर्क टूटा नहीं है, लेकिन खबरें तो यही आयीं कि अमित शाह को वो पंसद नहीं आये, लिहाजा बीजेपी में उनके आने का रास्ता बंद कर दिया गया. हालांकि, 2014 में हुए आम चुनाव के वक्त अमित शाह के पास महज यूपी का जिम्मा था, बीजेपी की कमान तो वो बाद में संभाले, लेकिन ऐसी स्थिति तो काफी पहले से रही कि मोदी तो उनकी बात टालने से रहे.
बीजेपी में बात नहीं बनी तो प्रशांत किशोर नये क्लाइंट की तलाश में निकले और मन मांगी मुराद की तरह नीतीश कुमार ही मिल गये. असल में प्रशांत किशोर बिहार के बक्सर के रहने वाले हैं और इसी नाते अपने राज्य के लिए काम करने की अलग खुशी थी. जब बिहार प्रोजेक्ट भी कामयाब रहा तो नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को साथ रखने का मन बना लिया. हालांकि, बाद में बताया था कि वो प्रशांत किशोर को अमित शाह के ही कहने पर बीजेपी में लिये - ये बात नीतीश कुमार ने खुद ही बतायी थी, लेकिन सुन कर ये शुद्ध राजनीतिक बयान ही लगा. नीतीश कुमार के ऐसा बयान देने की भी कोई खास वजह ही रही होगी.
नीतीश कुमार ने जब प्रशांत किशोर को जेडीयू में उपाध्यक्ष का पद गठित कर ज्वाइन कराया तो प्रशांत किशोर को पार्टी का भविष्य बताया था, लेकिन विरोध की बुनियाद शायद पहले ही पड़ चुकी थी. प्रशांत किशोर को पार्टी का यूथ विंग खड़ा करने का काम दिया गया. वहां भी प्रशांत किशोर ने पहली बार पटना यूनिवर्सिटी में जेडीयू का छात्रसंघ अध्यक्ष बनवा दिया.
फिर भी कोई फायदा नहीं हुआ. जेडीयू में आरसीपी सिंह और ललन सिंह के विरोध के चलते नीतीश कुमार के मामले में चुप्पी साध लेनी पड़ी. जिस प्रशांत किशोर को वो 2015 की जीत का आर्किटेक्ट मानते थे, 2019 में उनको पार्टी के चुनाव अभियान से ही किनारे कर दिया गया - और एक दिन वो भी आया जब प्रशांत किशोर को निकाल भी दिया गया.
मुद्दे की बात ये थी कि आरसीपी सिंह और ललन सिंह खुद जेडीयू का भविष्य बनना चाहते थे, ऐसे में भला प्रशांत किशोर को कैसे टिकने देते. प्रशांत किशोर के पास वो सब है जिसकी कमी आज देश का हर नेता अपने आसपास महसूस करता है, लेकिन प्रशांत किशोर के पास वो चीज जीरो बैलेंस है जो हर नेता के पास होती है.
प्रशांत किशोर अब तक एक ही मामले में पिछड़ जाते हैं, मुख्यधारा की दलगत राजनीति में खुद को केंद्र में बनाये रखने में - और इसमें एक ही चीज उनके लिए घातक साबित होती है, वो काबिलियत जो उनको देश की राजनीति में प्रशांत किशोर जैसा ब्रांड बना चुकी है.
बीजेपी से लेकर जेडीयू और अभी जो कांग्रेस ज्वाइन करने की बात चल रही है, प्रशांत किशोर को लेकर नेताओं में बैठ जाने वाली असुरक्षा की भावना ही वो महत्वपूर्ण फैक्टर है जो उनके लिए आगे का हर रास्ता रोक देता है.
जैसे जेडीयू नेताओं को डर रहा होगा कि अगर प्रशांत किशोर ही हर मर्ज की दवा बन जाएंगे, फिर उनको कौन पूछेगा और क्यों? सत्ता की राजनीति में तो चुनावी जीत ही सबसे अहम चीज होती है - और किसी भी चुनाव में जीत की गारंटी बन जाये, उससे तो हर कोई खौफ खाएगा ही.
मान कर चलना होगा, बीजेपी में भी प्रशांत किशोर के विरोध की यही वजह रही होगी, जो जेडीयू ज्वाइन करने से लेकर पार्टी से बेदखल किये जाने तक हर कदम पर अपनी भूमिका निभाती रही.
कांग्रेस में कौन कौन है प्रशांत किशोर के खिलाफ
कांग्रेस की दहलीज पर खड़े प्रशांत किशोर के मामले में एक बार फिर काबिलयत ही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी साबित हो रही है. जब सीधे सीधे पूछा जाता है तो कांग्रेस नेता एक बार आजमा लेने की बात करते हैं, लेकिन बाद में वे किसी न किसी बहाने संदेह पैदा करने की कोशिश करते हैं - जैसे वो कांग्रेस के लिए आउटसाडर हैं. जैसे वो कांग्रेस के कल्चर में नहीं पले बढ़े हैं इसलिए वो हमेशा पार्टी को एक क्लाइंट की निगाह से देखेंगे.
लेकिन जब कांग्रेस पार्टी अपनी टीम के बूते एक भी चुनाव नहीं जीत पा रही तो उस कल्चर को ढोने और उसके प्रति श्रद्धा भाव के लिए अस्तित्व तक का खतरा मोल लेने से क्या फायदा होगा?
सबसे बड़ा सच तो ये है कि प्रशांत किशोर की कांग्रेस नेतृत्व को हद से भी ज्यादा जरूरत है. राहुल गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष बनने के दौरान अहमद पटेल को कोषाध्यक्ष बना दिया गया था, लेकिन जो उनका पहले वाला काम रहा वो करते रहे. सोनिया गांधी को सबसे ज्यादा भरोसा अहमद पटेल पर ही हुआ करता था. अहमद पटेल के चले जाने के बाद अब तक कोई भी नेता उनकी जगह नहीं ले पाया है. कोशिश तो कमलनाथ जैसे कई नेता कर रहे हैं, लेकिन वे सोनिया गांधी की उम्मीदों पर खरे नहीं उतर पा रहे हैं. ऐसा भी नहीं कि सब के सब निकम्मा और नकारे हैं, लेकिन हर जगह अहमद पटेल की तरह फिट हो जायें, ऐसे भी नहीं हैं.
ये अहमद पटेल और राजीव सातव की कमी ही है जो राहुल गांधी को प्रशांत किशोर से मिलने और कांग्रेस में लाये जाने के फैसले तक ले आयी है. बताते हैं कि प्रशांत किशोर ने कांग्रेस के रिवाइवल को लेकर एक एक्शन प्लान भी सुझाया है और वो कांग्रेस नेतृत्व को पसंद भी आया है, लेकिन दिक्कत एक ही बात पर है - प्रशांत किशोर के स्वागत के नाम पर आम राय नहीं बन पा रही है.
कांग्रेस के कुछ नेता जिनमें कपिल सिब्बल और गुलाम नबी आजाद के नेतृत्व में एक्टिव G-23 गुट के बागी भी शामिल हो गये हैं, प्रचारित करने लगे हैं कि प्रशांत किशोर की वाइल्ड कार्ड एंट्री से कांग्रेस को कुछ भी फायदा नहीं होने वाला है.
प्रशांत किशोर का विरोध करने वाले नेताओं का सुझाव है कि सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा को ही कमान अपने हाथ में रखनी चाहिये और अपने नेताओं की समस्याएं सुननी और सुलझाने की कोशिश करनी चाहिये.
असल में जो नेता जैसे तैसे अहमद पटेल की जगह लेने की कोशिश में हैं, प्रशांत किशोर के आने से उनका रास्ता बंद हो जाएगा - और फिर आगे भी दुकान चलानी मुश्किल हो जाएगी.
गांधी परिवार के सामने जिद कर कमलनाथ और अशोक गहलोत जैसे नेता अपनी बात मनवा लेते हैं, लेकिन प्रशांत किशोर के सामने उनको यकीन नहीं होगा कि वे टिक पाएंगे - क्योंकि प्रशांत किशोर तो आंकड़ों के खेल में यकीन रखते हैं, जिससे गांधी परिवार का दूर दूर तक कोई नाता नहीं है. गांधी परिवार तो ऐसी हर चीज के लिए सहयोगियों का मोहताज बन चुका है और वे इसी बात का फायदा उठाते हैं.
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