प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) की सोनिया गांधी और राहुल गांधी सहित सीनियर कांग्रेस (Congress) नेताओं के साथ हुई मीटिंग का पहला असर विपक्ष का साझा बयान लगता है. हाल फिलहाल कांग्रेस नेतृत्व और ममता बनर्जी के बीच काफी अनबन महसूस की जा रही थी, लेकिन हिंसा और नफरत के खिलाफ आये साझा बयान पर सोनिया गांधी के साथ साथ ममता बनर्जी ने भी हस्ताक्षर किया है.
साझा बयान पर सोनिया और ममता के अलावा शरद पवार, एमके स्टालिन, सीताराम येचुरी, हेमंत सोरेन और फारूक अब्दुल्ला सहित 13 नेताओं की तरफ से जारी किया गया है. नेताओं ने हिंसा और हेट स्पीच की हाल की घटनाओं पर गहरी चिंता जतायी है और आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री की चुप्पी इस बात का सबूत है कि ऐसी घटनाओं को आधिकारिक संरक्षण हासिल है. बयान के जरिये लोगों से शांति और सौहार्द्र बनाये रखने की अपील की गयी है.
ये ठीक है कि प्रशांत किशोर की बदौलत कांग्रेस नेतृत्व को बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके कैबिनेट साथी अमित शाह को चैलेंज कर पाने की उम्मीद जगी है - लेकिन ये तो अच्छी तरह मालूम है कि ये सब अकेले असंभव है. मीटिंग से आयी खबरों से ये भी मालूम होता है कि प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को अलग अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की सलाह दी गयी है, लेकिन ऐसे राज्यों में बिहार और उत्तर प्रदेश नहीं शामिल हैं.
साझा बयान पर सोनिया गांधी, शरद पवार और ममता बनर्जी की मंजूरी भी बता रही है कि एनसीपी नेता की बात से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी इत्तेफाक रखने लगी हैं. शरद पवार ने कहा था कि विपक्ष का कोई भी एकजुट फोरम कांग्रेस के बगैर नहीं बन सकता. कुछ दिन पहले ही सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की एक मीटिंग बुलायी थी, जिसमें ममता बनर्जी तो नहीं लेकिन शरद पवार जरूर शामिल हुए थे. मीटिंग में जब ममता की बात...
प्रशांत किशोर (Prashant Kishor) की सोनिया गांधी और राहुल गांधी सहित सीनियर कांग्रेस (Congress) नेताओं के साथ हुई मीटिंग का पहला असर विपक्ष का साझा बयान लगता है. हाल फिलहाल कांग्रेस नेतृत्व और ममता बनर्जी के बीच काफी अनबन महसूस की जा रही थी, लेकिन हिंसा और नफरत के खिलाफ आये साझा बयान पर सोनिया गांधी के साथ साथ ममता बनर्जी ने भी हस्ताक्षर किया है.
साझा बयान पर सोनिया और ममता के अलावा शरद पवार, एमके स्टालिन, सीताराम येचुरी, हेमंत सोरेन और फारूक अब्दुल्ला सहित 13 नेताओं की तरफ से जारी किया गया है. नेताओं ने हिंसा और हेट स्पीच की हाल की घटनाओं पर गहरी चिंता जतायी है और आरोप लगाया है कि प्रधानमंत्री की चुप्पी इस बात का सबूत है कि ऐसी घटनाओं को आधिकारिक संरक्षण हासिल है. बयान के जरिये लोगों से शांति और सौहार्द्र बनाये रखने की अपील की गयी है.
ये ठीक है कि प्रशांत किशोर की बदौलत कांग्रेस नेतृत्व को बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके कैबिनेट साथी अमित शाह को चैलेंज कर पाने की उम्मीद जगी है - लेकिन ये तो अच्छी तरह मालूम है कि ये सब अकेले असंभव है. मीटिंग से आयी खबरों से ये भी मालूम होता है कि प्रशांत किशोर ने कांग्रेस को अलग अलग राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन की सलाह दी गयी है, लेकिन ऐसे राज्यों में बिहार और उत्तर प्रदेश नहीं शामिल हैं.
साझा बयान पर सोनिया गांधी, शरद पवार और ममता बनर्जी की मंजूरी भी बता रही है कि एनसीपी नेता की बात से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री भी इत्तेफाक रखने लगी हैं. शरद पवार ने कहा था कि विपक्ष का कोई भी एकजुट फोरम कांग्रेस के बगैर नहीं बन सकता. कुछ दिन पहले ही सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की एक मीटिंग बुलायी थी, जिसमें ममता बनर्जी तो नहीं लेकिन शरद पवार जरूर शामिल हुए थे. मीटिंग में जब ममता की बात चली तो मजाकिया तौर पर किसी ने सलाह दी कि उसके लिए प्रशांत किशोर से बात कर लेंगे. अब तो ऐसा ही लग रहा है, जबकि बीच में प्रशांत किशोर और ममता बनर्जी का भी कॉन्ट्रैक्ट टूट जाने की काफी चर्चा रही.
अब जबकि नये सिरे से प्रशांत किशोर के कांग्रेस ज्वाइन करने की बात शुरू हुई है, स्वाभाविक सवाल तो यही है कि क्या प्रशांत किशोर नयी व्यवस्था में भी अब तक के प्रदर्शनों की तरह सफल हो पाएंगे?
जब राहुल गांधी बेबस हो जाते हैं तो प्रशांत किशोर क्या कर लेंगे: प्रशांत किशोर के कांग्रेस नेता बन जाने के बाद सफल होने के कम चांस इसलिए नहीं है कि वो जेडीयू ज्वाइन कर के फेल हो चुके हैं. किसी भी राजनीतिक दल का हिस्सा बन जाने के बाद कोई भी नेतृत्व का हुक्म मानने के लिए गुलामों जैसा ही बाध्य हो जाता है - और अगर ऐसी नौबत आती है तो प्रशांत किशोर के पास पेशेवर तरीके से काम करने के कम ही मौके मिल पाएंगे.
ऐसी आशंका इसलिए भी हो रही है क्योंकि कांग्रेस में अब कई पावर सेंटर बन चुके हैं. पहले सोनिया गांधी और राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ही नेतृत्व का हिस्सा हुआ करते थे, अब प्रियंका गांधी भी शामिल हो गयी हैं. प्रियंका गांधी की हर बात मानी ही जाये, जरूरी भले न हो, लेकिन क्या नजरअंदाज की जा सकती है. लगता तो नहीं है.
अपनी तरफ से ये नेता पावर सेंटर न भी बनायें तो कुछ करीबी समर्थकों का छोटा छोटा गुट तो पनप ही जाता है - और वे अपने अपने स्वार्थ के हिसाब से चीजों को मैनिपुलेट करने में लग जाते हैं.
राहुल गांधी ने भले ही साफ कर दिया हो कि सत्ता और राजनीति में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है, लेकिन उनको काम न करने देने के लिए जिम्मेदार तो ऐसे ही नेता होते हैं. ये ठीक है कि असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा कांग्रेस के जमाने के किस्से सुनाते हुए कहते हैं कि राहुल गांधी नेताओं से ज्यादा अपने पालतू पिडी में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं.
हर बार मामला एक जैसा ही नहीं होता, नवजोत सिंह सिद्धू का मामला हो या अशोक गहलोत और कमलनाथ का, दबाव बनाने पर राहुल गांधी कमजोर पड़ जाते हैं और मजबूरन हां भी बोल देते हैं. तभी तो राहुल गांधी के वादा कर देने के बावजूद छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर भूपेश बघेल अब तक काबिज हैं.
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प्रशांत किशोर के साथ सोनिया गांधी की मीटिंग में राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा तो थे ही, केसी वेणुगोपाल, अंबिका सोनी, मल्लिकार्जुन खड़्गे, अजय माकन और यहां तक कि दिग्विजय सिंह भी शामिल हुए. बड़े दिनों बाद किसी अति महत्वपूर्ण बैठक में शुमार नेताओं में दिग्विजय सिंह का नाम सुनायी दिया है, लेकिन अशोक गहलोत और कमलनाथ के नाम का जिक्र न होना काफी अजीब लगता है.
सुनने में तो यहां तक आया कि मल्लिकार्जुन खड़्गे के दिल्ली से बाहर होने के बावजूद मीटिंग के लिए बुलाया गया था. अगर ऐसी बात थी तो जयपुर से अशोक गहलोत क्यों नहीं आ सकते थे. हाल ही में खबर आयी थी कि गुजरात को लेकर अशोक गहलोत खासे एक्टिव रहे - और नरेश पटेल को कांग्रेस में लाने के लिए प्रयासरत रहे. अगर गुजरात के पाटीदार समाज में मजबूत पकड़ रखने वाले नरेश पटेल को कांग्रेस में लाने की सलाहियत के पीछे कहीं न कहीं प्रशांत किशोर ही हैं, तो अशोक गहलोत को मीटिंग से बाहर रखे जाने को क्या समझा जाये - और वैसे ही कमलनाथ का भी केस लगता है. अहमद पटेल के बाद कमलनाथ काफी सक्रिय देखे जाते थे - कहीं राहुल गांधी दोनों नेताओं से लोक सभा चुनाव का खुन्नस तो नहीं निकालने लगे?
बाकी बातें अपनी जगह हैं, लेकिन प्रशांत किशोर की कांग्रेस में संभावित एंट्री तो इस बार 'चट मंगनी पट ब्याह' जैसी लगती है - क्या ये कांग्रेस नेताओं के सामने प्रशांत किशोर के प्रजेंटेशन का ही प्रभाव है?
प्रशांत किशोर तो अपने लिए एक क्लाइंट खोज रहे थे और कांग्रेस की तरफ से ऑफर दे दिया गया कि ज्वाइन ही कर लीजिये - आखिर इसके पीछे क्या वजह लगती है?
कहीं ये गांधी परिवार के करीबी नेताओं का प्रशांत किशोर के जरिये अपना हित साधने का कोई नया पैंतरा तो नहीं है?
ये सवाल इसलिए भी खड़े होते हैं क्योंकि प्रशांत किशोर की राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के साथ हुई मुलाकात को औपचारिक दर्जा नहीं दिया गया था. बस सूत्रों के हवाले से खबरें आती रहीं. फिर कुछ नेताओं की तरफ से प्रशांत किशोर को कांग्रेस में लिये जाने का विरोध किये जाने की भी खबरें आयीं.
चर्चाएं तो खूब हुईं लेकिन मुलाकात को लेकर पहली दफा प्रशांत किशोर ने एक इंटरव्यू में जिक्र आने पर जवाब भी दिया. बाद में एक इंटरव्यू में ही प्रियंका गांधी ने भी कुछ कुछ वैसी ही बातें बतायीं. हालांकि, तब कुछ कांग्रेस नेताओं के हवाले से मीडिया की कुछ रिपोर्ट में पांच विधानसभा चुनावों के बाद संभावनाओं के कयास लगाये गये थे.
बताते हैं कि प्रशांत किशोर के साथ ये मीटिंग करीब तीन घंटे चली और चुनावी राजनीति के तकरीबन सभी पहलुओं पर विस्तार से चर्चा हुई. इस मीटिंग से कुछ दिन पहले प्रशांत किशोर ने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी एक अलग से मुलाकात की थी, लेकिन उसकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई.
लगता है राहुल और प्रियंका के साथ हुई मीटिंग के बाद ही बात यहां तक पहुंची होगी, वरना विधानसभा चुनावों के दौरान तो कांग्रेस नेतृत्व को लेकर प्रशांत किशोर के बयान और ट्वीट बड़े ही आक्रामक लगते रहे. राहुल-प्रियंका के लखीमपुर खीरी जाने की कोशिशों को लेकर भी प्रशांत किशोर की टिप्पणी पॉजिटिव नहीं रही, जबकि प्रियंका गांधी ने उसका भरपूर फायदा उठाया.
बीच में प्रशांत किशोर और तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव और नीतीश कुमार के साथ हुई मुलाकात भी काफी चर्चित रही. मुलाकात के दौरान प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार को विपक्षी खेमे की तरफ से राष्ट्रपति पद का ऑफर भी दिया था. फिर बीजेपी की तरफ से उपराष्ट्रपति पद की चर्चा चला कर काउंटर करने की भी कोशिश की गयी.
प्रशांत किशोर का पहला परीक्षण तो गुजरात में ही होगा: मीटिंग के बाद तो यही बताया गया है कि प्रशांत किशोर ने कांग्रेस नेतृत्व के सामने 2024 के आम चुनाव का एक्शन प्लान पेश किया है, लेकिन पहले सुनने में आया था कि वो सिर्फ गुजरात चुनाव में कैंपेन का ठेका लेना चाहते हैं. तो क्या प्रशांत किशोर आम चुनाव से पहले किसी भी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के लिए कैंपेन नहीं करेंगे? लेकिन ज्वाइन कर लेते हैं तो करना ही पड़ेगा और गुजरात चुनाव प्रशांत किशोर के लिए पहला टेस्ट होगा - वही गुजरात जहां से प्रशांत किशोर ने ये काम शुरू किया था जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे.
कामकाज में मुश्किल क्यों हो सकती है?
प्रशांत किशोर के मामले में इस बार भी कमेटी बनाने की बात है. इससे पहले राहुल गांधी ने कुछ नेताओं से बातचीत के लिए मीटिंग बुलायी थी और उसके बाद से ही प्रशांत किशोर के नाम पर कांग्रेस नेता पक्ष और विपक्ष में बंट गये थे. बहरहाल, प्रशांत किशोर को लेकर सोनिया गांधी एक कमेटी बनाने वाली हैं जो हफ्ते भर के भीतर अपनी रिपोर्ट सौंपेगी, इस सलाह के साथ कि प्रशांत किशोर को कांग्रेस में शामिल करना ठीक रहेगा या नहीं.
मीटिंग के बाद कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने मीडिया से कहा, 'प्रशांत किशोर ने कांग्रेस अध्यक्ष को 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति को लेकर डीटेल प्रजेंटेशन दिया है. जो प्लान सामने रखा गया है, उस पर पार्टी की एक कमेटी विचार करेगी और उसकी रिपोर्ट के बाद ही अंतिम फैसला होगा.'
प्रजेंटेशन में क्या खास रहा: प्रजेंटेशन को लेकर जो बात सामने आ रही है, उसमें प्रशांत किशोर का गठबंधन पर काफी जोर दिखायी देता है - लेकिन ये गठबंधन न करने को लेकर भी है, न कि सिर्फ अन्य दलों से हाथ मिला लेने का ही पक्षधर है.
बताते हैं कि प्रशांत किशोर की कई बातों पर राहुल गांधी भी बीच बीच में पूरे इत्तेफाक के साथ सहमति जताते रहे - मसलन, उत्तर प्रदेश में किसी के भी साथ चुनावी गठबंधन न करने को लेकर.
सूत्रों के हवाले से आयी खबर से मालूम होता है कि प्रशांत किशोर ने उत्तर प्रदेश के अलावा बिहार और ओडिशा जैसे कई राज्यों में कांग्रेस को गठबंधन से परहेज करने की सलाह दी है. प्रशांत किशोर की सलाह है कि कांग्रेस को ऐसे राज्यों के लिए नये सिरे से रणनीति तैयार करनी चाहिये.
महाराष्ट्र, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में तो प्रशांत किशोर कांग्रेस को गठबंधन करने की सलाह दे रहे हैं, लेकिन हैरानी की बात ये है कि यूपी के साथ साथ बिहार में भी वो किसी के साथ भी गठबंधन के पक्ष में नहीं हैं. प्रशांत किशोर की तरफ से दलील दी गयी है कि अगर कांग्रेस तेजस्वी यादव की आरजेडी के साथ गठबंधन जारी रखते हैं तो ऐसा भी हो सकता है कि गैर यादव ओबीसी वोट कांग्रेस से दूर हो जाये. बात में दम भी लगता है, अभी अभी खत्म हुए यूपी चुनाव में तो ऐसा ही हुआ है.
जब कांग्रेस के कई नेताओं ने बीजेपी की जीत के पीछे सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की बात की तो प्रशांत किशोर ने उस थ्योरी को ही खारिज कर दिया - बीजेपी के चुनाव जीतने और अगले कई साल तक प्रासंगिक बने रहने की बात तो प्रशांत किशोर पहले भी कह चुके हैं.
कांग्रेस ज्वाइन करने के नफा नुकसान: असल बात तो ये है कि प्रशांत किशोर को भी एक मजबूत सहारे की जरूरत है. प्रशांत किशोर को कांग्रेस इसलिए भी पंसद आती होगी क्योंकि उसके पास इंफ्रास्ट्रक्चर लंबा चौड़ा है. मानते हैं कि कांग्रेस खंडहर हो चुकी है, लेकिन अच्छा आर्किटेक्ट हो तो इमारत फिर से बनायी भी तो जा सकती है.
प्रशांत किशोर ने ठीक ठाक संसाधन जुटा लिया है. उनके पास बड़ी ही मजबूत और पूरी तरफ प्रोफेशनल टीम है. और जब भी जरूरत होती है, प्रशांत किशोर के एक ट्वीट पर लोग भर्ती के लिए टूट पड़ते हैं. पटना में कई दिनों तक प्रशांत किशोर के दफ्तर के बाहर नौजवानों की भीड़ देखी गयी थी. बिहार चुनाव से पहले प्रशांत किशोर ने एक मुहिम शुरू की थी - बात बिहार की. तभी लॉकडाउन लग गया और सारा कामधाम बंद हो गया.
प्रशांत किशोर ज्यादातर छोटे दलों के लिए काम कर चुके हैं और बीजेपी के यहां तो दाल गलने वाली है नहीं. वरना, अभी की कांग्रेस तो उनके पुराने पैमाने पर कहीं टिकती ही नहीं. 2016 में तो खबर आयी थी कि प्रशांत किशोर ने ममता बनर्जी के लिए कैंपेन का ठेका लेने से भी मना कर दिया था. अब जब ममता बनर्जी के लिए भी काम कर लिया तो कांग्रेस में भी दिलचस्पी लेने लगे हैं.
प्रशांत किशोर अब तक एक ही काम में फेल हुए हैं - 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के कैंपेन में. जैसा की तब खबरें भी आयी थीं और बाद में प्रशांत किशोर ने खुद बताया भी था, कांग्रेस नेताओं ने काम करने की खुली छूट नहीं दी थी. वे चाहते थे कि प्रशांत किशोर सिर्फ मीडिया मैनेजमेंट का ही काम करें, बाकी कांग्रेस की कोर टीम पर छोड़ दें. हाल ये हुआ कि यूपी में कांग्रेस महज सात सीटें जीत सकी और पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह ने सरकार ही बना ली.
कांग्रेस ज्वाइन कर लेने की स्थिति में प्रशांत किशोर का वर्क प्रोफाइल बिलकुल बदल जाएगा. सलाहकार के रूप में प्रशांत किशोर हर आदेश मानने को बाध्य नहीं होते होंगे. उनकी सलाह जरूर मान ली जाती होगी कि कहीं वैसा न करने से नुकसान न हो जाये. लेकिन ज्वाइन कर लेने के बाद तो ये सब खत्म ही हो जाएगा. फिर तो आलाकमान की हर बात माननी पड़ेगी - और उसका असर नतीजों पर भी पड़ेगा.
कांग्रेस में भी पीके के सफल होने की गुंजाइश है
ऐसा भी नहीं है कि प्रशांत किशोर के कांग्रेस ज्वाइन कर लेने की सूरत में सफल होने की संभावना बिलकुल ही खत्म हो जाएगी. अगर प्रशांत किशोर को कुछ शर्तों के साथ छूट दी जाये तो बिगड़ा काम भी बन सकता है - जैसे पश्चिम बंगाल चुनाव कैंपेन में प्रशांत किशोर को अपने मन से काम करन का पूरा मौका मिला.
ये प्रशांत किशोर ही थे जिनको लेकर ज्यादातर सीनियर नेताओं ने उनके काम करने के तरीके को लेकर नाराजगी जतायी थी. बीजेपी ज्वाइन करने से पहले तृणमूल कांग्रेस में रहते हुए शुभेंदु अधिकारी भी प्रशांत किशोर से ही ज्यादा खफा बताये जा रहे थे, न कि ममता बनर्जी से.
चूंकि ममता बनर्जी बीजेपी नेतृत्व से चौतरफा घिरी हुई महसूस कर रही थीं और उनके सबसे भरोसेमंद सहयोगी और भतीजे अभिषेक बनर्जी ने समझाया तो प्रशांत किशोर को अपने तरीके से काम करने की छूट दे दी गयी. असल में अभिषेक बनर्जी ने ही प्रशांत किशोर से बात की थी और तृणमूल कांग्रेस के लिए काम करने के लिए राजी किया था.
फिर तो एक रास्ता है - अगर राहुल गांधी भी अभिषेक बनर्जी की तरह प्रशांत किशोर का साथ दें. अगर कोई कांग्रेस नेता नाराज होता है तो होने दें, पार्टी छोड़ता है तो छोड़ने दें या और भी किसी तरह के नुकसान का अंदेशा हो तो भी होने दें. प्रशांत किशोर को बेरहमी से सर्जरी करने दें और वैसे ही ओटी के बाहर खड़े रहें जैसे किसी मरीज का अटेंडेंट सर्जन का इंतजार करता है - वैसे भी कांग्रेस ऐसी मरीज तो बन ही चुकी है जिसे सर्जरी की सख्त जरूरत है.
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इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.