सफेद पजामे कुर्ते में गले में मटमैला रंग का शॉल लपेटे, बालों में कंघी के अंदाज सहित हल्की पकी दाढ़ी में चश्मा लगाए हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करने पटना पहुंचे प्रशांत किशोर की कैफियत 90 के दशक के नीतीश कुमार का शहरी संस्करण जैसा या कहें एक संभ्रांत संस्करण दिख रहा था. मौजूदा राजनीति के चाणक्य बने प्रशांत किशोर की भाषा और बोलचाल का तरीका भी 90 के दशक में चाणक्य के नाम से मशहूर हुए नीतीश कुमार से मिलता जुलता दिखाई दे रहा था. तब नीतीश कुमार कर्पूरी ठाकुर के विरासत से होते हुए वी. पी. सिंह की विचारधारा तक एक चाणक्य की भूमिका में जी रहे थे. अचानक से लालू के अराजक बिहार में एक राजनीतिक शून्यता उभर आई थी जिसे भरने के लिए नीतीश कुमार चाणक्य की भूमिका छोड़कर चंद्रगुप्त बने. तो क्या फिर बिहार उसी दोराहे पर खड़ा है जहां से मौजूदा राजनीति का एक और चाणक्य बिहार की राजनीतिक शून्यता भरने के लिए चंद्रगुप्त की भूमिका के लिए खुद को तैयार कर रहा है.
प्रेस कॉन्फ्रेंस से ठीक पहले प्रशांत किशोर का माइक खराब हो गया. माइक पर तबला बजा-बजा कर प्रशांत किशोर पूछते रहे कि आवाज आई- आवाज आई. महज संयोग भरा यह वाकया प्रशांत किशोर की राजनीति के लिए यह इंगित करने के लिए काफी है कि आसान नहीं है डगर पटना के पनघट की.
नीतीश कुमार की राजनीति उस अवस्था में पहुंच गई है जहां से कहा जा सकता है कि उनमें कुछ नयापन नहीं बचा है. तेजस्वी का तेज बिहार की राजनीति को उजाला दे नहीं पा रहा है. इसलिए कहा जा सकता है कि परिस्थितियां ऐसी बनी है कि बिहार में एक राजनीतिक नीरसता दिख रही है जिसे भरने की गुंजाइश है.
तो क्या यह समझा...
सफेद पजामे कुर्ते में गले में मटमैला रंग का शॉल लपेटे, बालों में कंघी के अंदाज सहित हल्की पकी दाढ़ी में चश्मा लगाए हुए प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करने पटना पहुंचे प्रशांत किशोर की कैफियत 90 के दशक के नीतीश कुमार का शहरी संस्करण जैसा या कहें एक संभ्रांत संस्करण दिख रहा था. मौजूदा राजनीति के चाणक्य बने प्रशांत किशोर की भाषा और बोलचाल का तरीका भी 90 के दशक में चाणक्य के नाम से मशहूर हुए नीतीश कुमार से मिलता जुलता दिखाई दे रहा था. तब नीतीश कुमार कर्पूरी ठाकुर के विरासत से होते हुए वी. पी. सिंह की विचारधारा तक एक चाणक्य की भूमिका में जी रहे थे. अचानक से लालू के अराजक बिहार में एक राजनीतिक शून्यता उभर आई थी जिसे भरने के लिए नीतीश कुमार चाणक्य की भूमिका छोड़कर चंद्रगुप्त बने. तो क्या फिर बिहार उसी दोराहे पर खड़ा है जहां से मौजूदा राजनीति का एक और चाणक्य बिहार की राजनीतिक शून्यता भरने के लिए चंद्रगुप्त की भूमिका के लिए खुद को तैयार कर रहा है.
प्रेस कॉन्फ्रेंस से ठीक पहले प्रशांत किशोर का माइक खराब हो गया. माइक पर तबला बजा-बजा कर प्रशांत किशोर पूछते रहे कि आवाज आई- आवाज आई. महज संयोग भरा यह वाकया प्रशांत किशोर की राजनीति के लिए यह इंगित करने के लिए काफी है कि आसान नहीं है डगर पटना के पनघट की.
नीतीश कुमार की राजनीति उस अवस्था में पहुंच गई है जहां से कहा जा सकता है कि उनमें कुछ नयापन नहीं बचा है. तेजस्वी का तेज बिहार की राजनीति को उजाला दे नहीं पा रहा है. इसलिए कहा जा सकता है कि परिस्थितियां ऐसी बनी है कि बिहार में एक राजनीतिक नीरसता दिख रही है जिसे भरने की गुंजाइश है.
तो क्या यह समझा जाना चाहिए कि बिहार का राजनीतिक सामाजिक आंदोलन अपनी उम्र जी चुका है और बिहार एक बार फिर से किसी ब्राह्मण को अपना नेता मानने के लिए तैयार है. या ये कहें कि आजादी के बाद सत्ता के शीर्ष पर काबिज रही अगड़ी जातियों को लगता है कि मजबूरी में बहुत दिन तक नीतीश कुमार के सिर पर ताज रखकर राज चला लिया अब वक्त आ गया है सत्ता फिर से हासिल की जाए. यह अजीब संयोग है कि लालू यादव के आने के बाद से बिहार का हर अगड़ा जातिवाद से नफरत करता है और लालू यादव के आने से पहले बिहार का हर पिछड़ा जातिवाद से नफरत करता था. दोनों के मजे लेने की स्थितियों में अदला बदली हो गई है. आजकल बिहार की राजनीति बेहद दिलचस्प दिख रही है. बिहार को दो नए नेता अपनी तरफ से समझाने में लगे हैं कि बेहतर बिहार के लिए वह विकल्प हो सकते हैं.
प्रशांत किशोर के अलावा कुछ दिन पहले बिहार के राजनीति में सक्रिय हुए कन्हैया कुमार भी खुद को विकल्प मानने लगे है. प्रशांत किशोर ब्राह्मण हैं और कन्हैया कुमार भूमिहार हैं. आजादी के बाद बिहार के पहले मुख्यमंत्री श्री कृष्ण सिंह भूमिहार जाति से थे. उस वक्त बिहार में जो सामाजिक बदलाव होना चाहिए वह हो नहीं पाया जिसकी परिणति 90 के दशक में लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के उदय के रूप में हुई. उसके बाद बिहार की पूरी राजनीति जाति के आसपास ही घूमती रही. बिहार का एक अजीब मिजाज है कि यहां धर्म तब भी मुद्दा नहीं बना जब जिन्ना ने पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान बनाया था. उस वक्त के इतिहास को आप देखें तो यह बिहार ही था जहां के मुसलमानों ने पाकिस्तान बनने का जमकर विरोध किया था. मगर जाति के मामले में तो बिहार के बारे में कहा जाता है कि हां पढ़ा लिखा इंजीनियर, डॉक्टर भी अपनी पैंट के नीचे जाति का लंगोट बांधकर घूमता है.
बिहार के अगड़ी जातियों के लोग आज भी ललूआ (लालू यादव) से बेहद नफरत करते हैं. अगर उनके दिल में लालू प्रसाद यादव के बारे में नफरत कम नहीं हुई है तो यह मानना बेमानी होगा कि पिछड़े वर्गों के दिल में किसी ब्राह्मण या भूमिहार के लिए प्रेम उमड़े. प्रशांत किशोर अगर यह कर पाते हैं तो जाति से अभिशप्त बिहार के लिए इससे बड़ा कोई वरदान हो नहीं सकता. प्रशांत किशोर से उम्मीद की जा रही है क्योंकि पिछले विधानसभा चुनाव में उन्होंने जाति की राजनीति को बेहद नजदीक से देखा है पिछले विधानसभा चुनाव में प्रशांत किशोर की सारी रणनीति अगड़ा बनाम पिछड़ा की ही रही थी. इसलिए हो सकता है कि प्रशांत किशोर के पास कोई ऐसा प्लान हो जिसमें जाति के ऊपर प्रदेश को रखने का प्लान हो जिसे बिहार की जनता अपनाएं.
बड़ा सवाल है कि बिहार में पिछड़ी और दलित जातियों का बेटा एक ब्राह्मण के बेटे पर भरोसा कर ले यह हालात बिहार में बन चुके हैं क्या? प्रशांत किशोर के बारे में निजी तौर पर मैं यह कह सकता हूं वह एक साहसी परिवार से आते हैं. जब भी और जितनी बार भी हम अपने गांव मझरिया से बक्सर के लिए एक्का (तांगा) से आते थे, एक मकान को देखकर हर बार यही कहते थे कि देखो यह डाक्टर श्रीकांत पांडे का मकान है. पररी रोड पर एक बड़ा सा मकान बक्सर शहर से काफी दूर सुनसान खेत में बना हुआ था.
बिहार में वह दौर था जब नक्सलवाद अपने चरम पर था, उस वक्त घर की भाभियां और चाचियां दो नाली बंदूक चलाना सीख रही थी, तब प्रशांत किशोर के पिता श्रीकांत पांडे ने गांव और शहर से दूर खेतों में बड़ा सा मकान बनाया था. उस वक्त में किसी पैसे वाले डॉक्टर के लिए इससे बड़ा खतरा दूसरा कुछ और नहीं हो सकता था. इसलिए कहा जा सकता है कि प्रशांत किशोर को चुनौतियों से खेलना विरासत में मिला है. प्रशांत किशोर कुएं के मेंढक नहीं हैं. बक्सर से निकलकर इन्होंने पूरा देश और पूरी दुनिया देखी है.
मगर प्रशांत किशोर को समझना होगा कि बिहार दिल्ली नहीं है. दिल्ली के पास अपना कुछ भी नहीं है, हिमाचल में बर्फबारी हुई तो दिल्ली के लोग ठिठुरने लगते हैं. राजस्थान में धूल भरी आंधी चलती है तो भरी दुपहरी में दिल्ली में अंधेरा हो जाता है. पर बिहार अलहदा है. कुछ तो हिस्टोरिकल फाल्ट था बिहार के साथ कि बुद्ध, महावीर से लेकर गांधी तक को इसे ठीक करने के लिए बिहार आने की जरूरत महसूस हुई. लोग कहते हैं कि बिहार राजनीतिक रूप से जागृत है लेकिन इसके बदले यह भी कहा जा सकता है कि बिहार के लोग राजनीतिक रूप से बेहद चालू हैं. यहां आज भी उत्तर प्रदेश की सीमा से लगते बिहार के आसपास के इलाकों में चमार बहुजन समाज पार्टी को वोट देते हैं तो पासवान रामविलास पासवान के कहने पर वोट देते हैं. कुर्मियों के नेता निर्विवाद रूप से नीतीश कुमार है तो कोईरी वोट बैंक में उपेंद्र कुशवाहा ने भी सेंध लगाई है. यहां तक कि सामाजिक न्याय के अगुआ रहे लालू यादव को छोड़कर महा दलितों ने भी अपना अपना नेता जाति के आधार पर चुन लिया है. इसलिए जिस तरह से बिहार में गन्ने की फसल डिस्टर्ब हो जाने से सारी की सारी शुगर फैक्ट्रियां बंद हो गईं, उसी तरह से जाति का मैदान इतना डिस्टर्ब हो गया है कि नई पार्टी के लिए रास्ता आसान नहीं है.
चाहे ललित नारायण मिश्रा हों या जगन्नाथ मिश्रा, चाहे बिंदेश्वरी दुबे हों या भागवत झा आजाद- यह सब बिहार के मुख्यमंत्री भले ही रहे लेकिन नेता ब्राह्मणों के ही रहे. श्री कृष्ण बाबू को न भूमिहार भुला पाते हैं और ना सत्येंद्र सिंह और अनुग्रह नारायण सिंह को राजपूत भुला पाते हैं. लालू यादव पिछड़ा नेता बनकर उभरे लेकिन धीरे-धीरे यादव नेता बनकर आ गए. और नीतीश कुमार के बिहार के नेता बनने के पीछे वजह यही रही. नाराज नीतीश कुमार ने जब खुद को बिहार में लांच किया तो विकास के पैकेजिंग में जाति आधार बनाने के लिए लव कुश रैली ही की थी. पटना के गांधी मैदान में कुर्मी और कोईरी वोटरों की बड़ी रैली हुई थी जिसमें पहली बार नीतीश कुमार ने लालू यादव के सामने खुद को स्थापित किया था और चुनौती दी थी. यानी नीतीश कुमार ने भी नेता बनने के लिए उसी रास्ते को अपनाया जिसे अब तक के बिहार के दूसरे नेता अपनाते रहे. तो फिर प्रशांत किशोर और कन्हैया कुमार के लिए बिहार में क्या भविष्य है? अगर प्रशांत किशोर खुद को बिहार में लांच करते हैं इनकी इनकी रैली में कौन आएगा?
प्रशांत किशोर के लिए सबसे आसान वोट बैंक ब्राह्मण हैं और कन्हैया कुमार के लिए दलित और मुसलमान हैं. मगर पिछले कुछ चुनाव को देखें तो चुनाव को लेकर जातियां बेहद सजग हो गई हैं. बीजेपी और कांग्रेस के यादव उम्मीदवारों को बिहार में यह कहकर यादव वोट नहीं करते हैं कि हमें इन तारों को नहीं देखना है, हमें तो लालू यादव नाम के चांद को देखना है. लालू यादव के दल से जो खड़ा हो उसी को वोट देंगे. अगर हालात इस तरह के बनते हैं तो ब्राह्मण बड़ी संख्या में प्रशांत किशोर के साथ नहीं जा सकते हैं और अगर कुछ ब्राह्मण गए तो इसका नुकसान बीजेपी को ही होगा.
बिहार में फिलहाल ब्राह्मण कांग्रेस को छोड़कर बीजेपी में जा चुके हैं मगर बिहार के ब्राह्मण आज भी बीजेपी को भूमिहारों की पार्टी मानते हैं. कैलाशपति मिश्र के जमाने से बिहार के भूमिहारों को लगता है यह हमारी एकमात्र पार्टी है. इसलिए कहा जा सकता है कि कांग्रेस से छटके ब्राह्मणों के वोट बैंक पर प्रशांत किशोर अपना कब्जा जमा सकते हैं, मगर क्या नुकसान कांग्रेस के लिए नहीं होगा क्योंकि कांग्रेस इन्हें बहुत पहले खो चुकी है. कन्हैया कुमार के साथ समस्या यह है कि कम्युनिस्ट पार्टियों के पास कैडर नहीं बचा है और यह इसलिए नहीं बचा है कि बिहार में कम्युनिस्ट पार्टियों के नेता सवर्ण जाति के रहे हैं और इनके वोटर पिछड़े और दलित जातियों के हैं. इनके वोटर इनके नेताओं के साथ अपनापन का रिश्ता जोड़ नहीं पाते हैं.
मगर कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि प्रशांत किशोर अगर बिहार के पढ़े-लिखे तबके और ब्राह्मणों का वोट लेकर जाते हैं तो बीजेपी को बड़ा नुकसान हो सकता है. कन्हैया कुमार भले ही बड़ी-बड़ी सभाएं कर रहे हैं हों मगर वह राष्ट्रीय जनता दल के वोट बैंक में सेंध लगा पाएं, ऐसा दिखाई नहीं दे रहा है. अगर लगा पाते हैं तो इसका नुकसान राष्ट्रीय जनता दल और दूसरी पार्टियों को होगा. कांग्रेस के लिए वहां अजीब समस्या है. जो ब्राह्मण, भूमिहार, राजपूत यानी उच्च जाति के वोट बैंक थे वह सारा का सारा बीजेपी को ट्रांसफर हो गया है और कांग्रेस के पास जो जगजीवन राम जैसे नेताओं के दलितों की विरासत बची थी वह काफी पहले डिस्टर्ब हो चुकी है. इसलिए बिहार में कांग्रेस किसी फायदे या नुकसान की स्थिति में है ही नहीं.
नीतीश कुमार के बारे में लालू प्रसाद यादव हमेशा कहा करते थे कि नीतीश के पेट में भी दांत है, बिहार की जनता को इंतजार रहेगा कि प्रशांत किशोर के दांत नीतीश कुमार कहां देखते हैं.
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