कांग्रेस उत्तर प्रदेश भी में अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है, सत्ता के लिए हरगिज नहीं. ये चीज सबको मालूम है, कांग्रेस नेताओं से लेकर राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) को भी, लेकिन सीमित अवसर और संसाधनों के बीच जो असर नजर आ रहा है, वो उम्मीद कहीं बढ़ कर है.
ये तो नहीं कह सकते कि महिला वोट बैंक को लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा ने कोई ऐसा काम किया है, जिस पर पहले किसी का ध्यान न गया हो, लेकिन जिस तरीके से प्रोजेक्ट किया है - एक्ट्रा अटेंशन बीजेपी सहित सभी राजनीतिक दलों के लिए मजबूरी का सबब बन गया है.
कोई भी राजनीतिक दल कांग्रेस की तरह ये तो ऐलान नहीं करने वाला है कि वो महिलाओं को कितने फीसदी टिकट देने वाला है, लेकिन ये भी तय है कि कई सीटें ऐसी भी होंगी जिन पर उम्मीदवारों के चयन पहले से ज्यादा माथापच्ची करनी होगी और किसी भी मजबूत महिला फेस के सामने पुरुष उम्मीदवार को खड़ा करना काफी जोखिमभरा होगा.
ये ठीक है कि विपक्ष के तीन राजनीतिक दलों में ऊपरी तौर पर कोई चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं है, लेकिन फिर भी बीजेपी के लिए खुला मैदान भी नजर नहीं आ रहा है - और ये प्रियंका गांधी वाड्रा का ही असर है कि अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) भी रेस में ऐसे मोड़ पर पहुंच गये हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) समाजवादी पार्टी की लाल टोपी को रेड अलर्ट के तौर पर पेश करने लगे हैं.
प्रियंका के उठाये मुद्दे इग्नोर करना काफी मुश्किल
चुनावों में महिला वोट बैंक की अहमियत अरसे से समझी जा रही है - और बार बार ये सही भी साबित हो रहा है. 2020 में भी बिहार विधानसभा चुनाव में तो ये देखने को मिला ही, 2021 में पश्चिम बंगाल में भी स्पष्ट तौर पर महसूस किया गया. बिहार चुनाव 2020 के नतीजे आने के बाद तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी...
कांग्रेस उत्तर प्रदेश भी में अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रही है, सत्ता के लिए हरगिज नहीं. ये चीज सबको मालूम है, कांग्रेस नेताओं से लेकर राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) को भी, लेकिन सीमित अवसर और संसाधनों के बीच जो असर नजर आ रहा है, वो उम्मीद कहीं बढ़ कर है.
ये तो नहीं कह सकते कि महिला वोट बैंक को लेकर प्रियंका गांधी वाड्रा ने कोई ऐसा काम किया है, जिस पर पहले किसी का ध्यान न गया हो, लेकिन जिस तरीके से प्रोजेक्ट किया है - एक्ट्रा अटेंशन बीजेपी सहित सभी राजनीतिक दलों के लिए मजबूरी का सबब बन गया है.
कोई भी राजनीतिक दल कांग्रेस की तरह ये तो ऐलान नहीं करने वाला है कि वो महिलाओं को कितने फीसदी टिकट देने वाला है, लेकिन ये भी तय है कि कई सीटें ऐसी भी होंगी जिन पर उम्मीदवारों के चयन पहले से ज्यादा माथापच्ची करनी होगी और किसी भी मजबूत महिला फेस के सामने पुरुष उम्मीदवार को खड़ा करना काफी जोखिमभरा होगा.
ये ठीक है कि विपक्ष के तीन राजनीतिक दलों में ऊपरी तौर पर कोई चुनाव पूर्व गठबंधन नहीं है, लेकिन फिर भी बीजेपी के लिए खुला मैदान भी नजर नहीं आ रहा है - और ये प्रियंका गांधी वाड्रा का ही असर है कि अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) भी रेस में ऐसे मोड़ पर पहुंच गये हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narendra Modi) समाजवादी पार्टी की लाल टोपी को रेड अलर्ट के तौर पर पेश करने लगे हैं.
प्रियंका के उठाये मुद्दे इग्नोर करना काफी मुश्किल
चुनावों में महिला वोट बैंक की अहमियत अरसे से समझी जा रही है - और बार बार ये सही भी साबित हो रहा है. 2020 में भी बिहार विधानसभा चुनाव में तो ये देखने को मिला ही, 2021 में पश्चिम बंगाल में भी स्पष्ट तौर पर महसूस किया गया. बिहार चुनाव 2020 के नतीजे आने के बाद तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने महिलाओं को साइलेंट वोटर बताया था.
1. महिलाओं की भागीदारी बढ़ानी ही पड़ेगी: बंगाल विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के स्लोगन 'बांग्ला निजेर मेयेकेई चाए' यानी 'बंगाल को चाहिये अपनी बेटी' की भी ममता बनर्जी की जीत में बहुत बड़ी भूमिका रही - और बिहार में नीतीश कुमार के शराबबंदी कार्यक्रम के पीछे भी निगाह महिला वोट बैंक पर ही रही है.
2019 के आम चुनाव से पहले भी प्रधानमंत्री मोदी की 'उज्ज्वला योजना' से लेकर 'इज्जत घर' तक महिला वोट हासिल करने के मकसद से ही बना था - और तीन तलाक का मामला तो दो कदम आगे का ही लगा था. ये जानते हुए भी कि मुस्लिम समुदाय का वोट तो बीजेपी को मिलने से रहा, महिलाओं के बीच तीन तलाक का मुद्दा उठाकर फूट डालने की कोशिशें हुईं - और कारगर भी साबित हुईं.
प्रियंका गांधी वाड्रा का 40 फीसदी महिलाओं को कांग्रेस का विधानसभा उम्मीदवार बनाने की घोषणा ने तो पहले से ही सबको हिला कर रख दिया था, अब महिला मैनिफेस्टो आने के बाद तो यूपी के किसी भी राजनीतिक दल के लिए वे चीजें नजरअंदाज करना मुश्किल होगा.
2. सभी महिला उम्मीदवारों को नजरअंदाज करना नामुमकिन: ये ठीक है कि कांग्रेस के 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों को टिकट देने की घोषणा को चुनावी एजेंडे के तौर पर पेश करने की कोशिश है, लेकिन बीजेपी के अयोध्या एजेंडे को भी तो उसके राजनीतिक विरोधी ऐसे ही प्रोजेक्ट करते आये हैं - लेकिन बीजेपी के वोटर को क्या कोई ये बात समझा सका है?
अयोध्या आंदोलन में बीजेपी को केंद्र और राज्यों में सत्ता दिलाने के साथ ही सबसे बड़ी और ताकतवर पार्टी बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका तो निभायी ही है - एक तरफ राम मंदिर भी बन रहा है और दूसरी तरह उसी माहौल में हो रहे चुनाव में बीजेपी बढ़त बनाये हुए है.
ये भी स्पष्ट है कि कांग्रेस की तरह महिलाओं को चुनावी मैदान में कोई उतारने नहीं जा रहा है. ऐसा इसलिए भी क्योंकि कांग्रेस को तो उम्मीदवार भी खोजने हैं, जैसे पुरुष प्रत्याशी खोजते वैसे ही महिला उम्मीदवार की तलाश पूरी हो सकती है - बाकी दलों के लिए ऐसा करना मुश्किल होगा क्योंकि वहां तो एक एक सीट पर इतने उम्मीदवार हैं कि किसी एक को टिकट देने के लिए भी काफी माथापच्ची करनी होगी.
कांग्रेस तो इंतजार में बैठी है कि कैसे बीजेपी, सपा और बसपा के नाराज नेताओं का शिकार किया जा सके. अगर उनमें कोई महिला और मजबूत चेहरा मिल जाता है तो कांग्रेस में भी उसी को तरजीह मिलेगी - और ऐसी सूरत में बाकी दलों के लिए भी महिला चेहरों को नजरअंदाज करना टेढ़ी खीर होगा.
हो सकता है कि कुछ सीटों पर बीजेपी या सपा और बसपा ऐसे पचड़ों में न फंसने का फैसला करे, लेकिन क्या ऐसे सभी सीटों पर महिला उम्मीदवारों को नजरअंदाज करना मुमकिन हो सकता है - और प्रियंका गांधी ये माहौल बनाने में सफल लगती हैं.
प्रियंका गांधी वाड्रा ने महिला मैनिफेस्टो जारी करते हुए ये भी घोषणा की कि यूपी चुनाव में कांग्रेस के पहले 100 उम्मीदवारों में से 60 महिलाएं हैं.
3. महिला वोट बैंक पर फोकस बढ़ा दिया है: कांग्रेस के यूपी महिला मैनिफेस्टो के मुताबिक, कांग्रेस के सत्ता में आने पर 50 फीसदी महिलाओं को नौकरी देने वाले उद्योगों को टैक्स में छूट और मदद मिलेगी, नये सरकारी पदों पर आरक्षण के दायरे में 40 फीसदी महिलाओं की नियुक्ति होगी, सरकारी बसों में दिल्ली की तरह महिलाओं को पूरे उत्तर प्रदेश में मुफ्त यात्रा की सुविधा मिलेगी - और छात्राओं को स्मार्टफोन और स्कूटी देने की बातें तो हैं ही.
ऐसे सभी चुनावी वादों के चक्कर में भले ही बाकी राजनीतिक दल न पड़ें, लेकिन कहीं न कहीं, काउंटर करने के लिए कुछ न कुछ इंतजाम तो करने ही पड़ेंगे - चुनावी राजनीति में मुफ्त की चीजें हद से ज्यादा असरदार साबित होती हैं - मुफ्त की बिजली और पानी के भरोसे ही तो दिल्ली की सत्ता में वापसी के बाद अरविंद केजरीवाल पंजाब, उत्तराखंड और गोवा तक कुलांचे भर रहे हैं. पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को तो दिल्ली में भी पोस्टर लगा कर बताना पड़ रहा है कि उनकी सरकार निजी इस्तेमाल के लिए तीन रुपये प्रति यूनिट बिजली देने वाली है.
सपा को लेकर बीजेपी का रेड अलर्ट
योगी आदित्यनाथ के मुख्यमंत्री बनने के ठीक साल भर बाद गोरखपुर और फूलपुर में हुए लोक सभा उपचुनावों के नतीजे आये थे. दोनों ही संसदीय सीटें बीजेपी के हाथ से छिटक कर पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के खाते में चली गयी थीं.
योगी आदित्यनाथ ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा था कि बीजेपी ने सपा-बसपा के मिल कर चुनाव लड़ने को काफी हल्के में ले लिया था. फिर बीजेपी नेतृत्व सतर्क हो गया और 2019 के आम चुनाव में सपा-बसपा के चुनावी गठबंधन को 15 सीटों पर रोकने में कामयाब रहा.
1. बीजेपी के लिए अखिलेश यादव ही चैलेंजर हैं: जब बीजेपी के सबसे बड़े नेता अखिलेश यादव को खुलेआम टारगेट करने लगें, फिर तो कोई शक शुबहे वाली बात ही नहीं रह जाती कि पार्टी ने मान लिया है कि अखिलेश यादव ही यूपी चुनाव में सबसे बड़े चैलेंजर हैं.
पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और बीजेपी के सीनियर नेता अमित शाह योगी आदित्यनाथ को बेहतर साबित करने के लिए पिछली सरकारों का जिक्र किया करते थे. पिछली सरकारों में कांग्रेस तो चर्चा से पहले ही बाहर है, ऐसे में सपा और बसपा की सरकारें ही बचती हैं. कानून-व्यवस्था के मामलों से लेकर महिलाओं की सुरक्षा और सूबे के विकास जैसे मुद्दे पर मोदी-शाह 2017 से पहले की शासन व्यवस्था को खारिज करते रहे हैं. आजादी के बाद से देखें तो शुरू की कांग्रेस सरकारें भी शामिल हो जाती हैं - लेकिन अब अखिलेश यादव निकल कर सीधे निशाने पर आ गये हैं.
गोरखपुर में जिस तरीके से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 'लाल टोपी' का मतलब 'रेड अलर्ट' समझाया वो तो यही बता रहा है. प्रधानमंत्री मोदी समझाने लगे हैं कि लाल टोपी उत्तर प्रदेश के लिए खतरे की घंटी है - लाल टोपी असल में समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव पहनते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी समझाते हैं कि लाल टोपी वालों को सिर्फ लाल बत्ती से मतलब रहता है ताकि सत्ता में आने के बाद आतंकियों की मदद कर सकें, उनको जेल से छुड़ा सकें, घोटाला कर अपनी तिजोरी भर सकें और जमीनों पर कब्जे के लिए माफिया को खुली छूट दी जा सके.
ऐसी बातें तो प्रधानमंत्री मोदी के 2017 के भाषणों में भी सुनने को मिला करती रहीं, लेकिन तब तो अखिलेश यादव मुख्यमंत्री थे ही, जाहिर है बीजेपी का स्वाभाविक रूप से अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी को ही टारगेट करना था. प्रधानमंत्री मोदी ने अखिलेश यादव के स्लोगन 'काम बोलता है' को 'कारनामा' साबित कर दिया और मौका मिलते ही 'कब्रिस्तान बनाम श्मशान' पर बहस भी शुरू करा डाली.
अब फिर से बीजेपी नेतृत्व ने मान लिया है कि कोई और नहीं बल्कि सिर्फ अखिलेश यादव ही योगी आदित्यनाथ को सामने से चैलेंज कर रहे हैं - और ये सब प्रियंका गांधी वाड्रा की वजह से ही तो हो रहा है.
2. प्रियंका की राजनीति तो योगी शासन ने ही चमकायी है: राहुल गांधी और सोनिया गांधी अपने ड्रीम प्रोजेक्ट न्याय योजना का भले ही कोई फायदा नहीं उठा सके, लेकिन 2019 में बीजेपी सरकार पर किसान सम्मान निधि लेकर आने के लिए दबाव तो कायम कर ही दिया था - ये बात अलग है कि कांग्रेस के आइडिया का पूरा फायदा भी बीजेपी को ही मिला भी.
लखीमपुर खीरी हिंसा के बाद ही सही, प्रियंका गांधी वाड्रा को लोगों के बीच बने रहने का आइडिया सूझा और फिर वो प्रतिज्ञा यात्राएं कर रही हैं - कांग्रेस की पैठ बढ़ाने के लिए सदस्यता अभियान भी तेजी से चल रहा है.
मायावती को लेकर तो ये धारणा ही बन चुकी है कि वो वर्क फ्रॉम होम स्टाइल में ही चुनावी राजनीति भी कर रही हैं - और अखिलेश यादव को भी कठघरे में खड़ा किया जा रहा है कि पूरे पांच साल वो घर से निकले ही नहीं. कुछ खास मौकों को छोड़ दिया जाये तो अखिलेश यादव और मायावती दोनों ही ट्विटर के जरिये ही कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते रहे, लेकिन प्रियंका गांधी ने तो ऐसा नहीं ही किया.
2019 के चुनाव नतीजों ने राहुल गांधी से कांग्रेस अध्यक्ष पद छीन लिया तो, अमेठी की हार प्रियंका गांधी के लिए सबसे बड़ा सेटबैक रही, लेकिन वो कभी बैठी नहीं. सोनभद्र का उभ्भा नरसंहार हो, उन्नाव और हाथरस गैंगरेप हो या फिर लखीमपुर खीरी में हुई हिंसा हो - प्रियंका गांधी वाड्रा अक्सर अकेले तो कभी कभी भाई राहुल गांधी के साथ फील्ड में ही नजर आयी हैं. मान लेते हैं कि मुख्तार अंसारी को पंजाब से यूपी लाने के मामले में प्रियंका गांधी बीजेपी के निशाने पर रहीं, लेकिन सीएए विरोध प्रदर्शन के लिए पुलिस एक्शन के शिकार लोगों के साथ, डॉक्टर कफील खान तक खंभे की तरह पीछे से सपोर्ट बन कर खड़ी तो प्रियंका गांधी ही नजर आयी हैं.
सार्वजनिक तौर पर भले ही जाहिर न कर पायें, लेकिन मन ही मन योगी आदित्यनाथ भी सोचते जरूर होंगे कि प्रियंका गांधी वाड्रा को भी यूपी में बीजेपी ने 2018 के सपा-बसपा गठजोड़ की तरह ही हल्के में ले लिया और अब वही महंगा सौदा साबित हो रहा है.
देखा जाये तो प्रियंका गांधी की फील्ड पॉलिटिक्स का मौका भी तो योगी आदित्यनाथ शासन ने ही दिया है. कुछ कानून व्यवस्था के हालात ने तो कुछ रफा-दफा करने की कोशिश में योगी सरकार के ही आला अफसरों ने.
प्रियंका गांधी की राजनीति चमकाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका तो योगी सरकार के अफसरों ही रही है. उभ्भा से लेकर लखीमपुर खीरी और फिर आगरा तक जब भी प्रियंका गांधी वाड्रा का प्रोग्राम बनता है, पहले तो रोक दिया जाता है फिर जैसे जैसे वो जिद करती रही हैं पूरा भी किया जाता है. उभ्भा के केस में वो रात भर गेस्ट हाउस में धरने पर बैठी रहीं और सुबह तक अफसरों ने हाथ जोड़ लिये. लखीमपुर खीरी के मामले भी तो ऐसा ही हुआ. सिर्फ स्लोगन ही नहीं प्रियंका गांधी का एक्शन भी बोल रहा है - "लड़की हूं... लड़ सकती हूं."
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