सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की तरफ से लोन रिकवरी का नोटिस मिलते ही कांग्रेस नेताओं का रोना शुरू हो गया है. असल में उदयपुर के कांग्रेस नव संकल्प शिविर में अपने अध्यक्षीय भाषण में सोनिया गांधी ने कहा था कि पार्टी की तरफ से बहुत कुछ मिला है, लेकिन अब वक्त आ गया है कि नेता अपना कर्ज लौटा दें. हाथ खड़े करते हुए कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि कॉरपोरेट से फंड मिल नहीं रहा है. पार्टी के कार्यक्रमों के लिए पैसे नहीं मिल रहे हैं - यहां तक कि पार्टी चलाने के लिए पैसे नहीं हैं.
चिंतन शिविर शुरू होने से पहले से ही ये समझाने की कोशिश होती रही कि अध्यक्ष पद को लेकर कोई चर्चा नहीं होनी है, लेकिन कोई माने तब तो. अगर सोनिया गांधी इतने दिनों से G-23 नेताओं की एक पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग पर ध्यान नहीं दे रही हैं, तो भला कांग्रेस नेता कहां मानने वाले. वैसे चिंतन शिविर से एक चीज निकल कर आ रही है कि G-23 नेताओं को मनाने की कोशिश में उनकी कई मांगें मान ली गयी हैं - और उनमें प्रमुख मांग है संसदीय बोर्ड के गठन की.
बीच बीच में ऐसी भी रिपोर्ट आती रही कि मुमकिन है राहुल गांधी (Rahul Gandhi) राजी हो जायें और कांग्रेस को एक स्थायी अध्यक्ष भी चिंतन शिविर में ही मिल जाये. मनाही के बावजूद कांग्रेस के कई नेता रह रह कर सलाह भरी मांग उठाते रहे कि राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी संभाल लेनी चाहिये. शुरू होने के साथ ही ये मांग खत्म भी हो जाती. लोग एक दूसरे की तरफ मुस्कुरा कर देख लेते और फिर चुप हो जाते. राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र का ये भी एक खास रूप होता है.
लेकिन लगता है आचार्य प्रमोद कृष्णम पहले से ही बिल्ली के गले में घंटी बांधने का फैसला करके आये थे. जब देखे कि कांग्रेस के कई नेता राहुल गांधी की वापसी की बात कर भी चुप हो...
सोनिया गांधी (Sonia Gandhi) की तरफ से लोन रिकवरी का नोटिस मिलते ही कांग्रेस नेताओं का रोना शुरू हो गया है. असल में उदयपुर के कांग्रेस नव संकल्प शिविर में अपने अध्यक्षीय भाषण में सोनिया गांधी ने कहा था कि पार्टी की तरफ से बहुत कुछ मिला है, लेकिन अब वक्त आ गया है कि नेता अपना कर्ज लौटा दें. हाथ खड़े करते हुए कांग्रेस नेता कह रहे हैं कि कॉरपोरेट से फंड मिल नहीं रहा है. पार्टी के कार्यक्रमों के लिए पैसे नहीं मिल रहे हैं - यहां तक कि पार्टी चलाने के लिए पैसे नहीं हैं.
चिंतन शिविर शुरू होने से पहले से ही ये समझाने की कोशिश होती रही कि अध्यक्ष पद को लेकर कोई चर्चा नहीं होनी है, लेकिन कोई माने तब तो. अगर सोनिया गांधी इतने दिनों से G-23 नेताओं की एक पूर्णकालिक अध्यक्ष की मांग पर ध्यान नहीं दे रही हैं, तो भला कांग्रेस नेता कहां मानने वाले. वैसे चिंतन शिविर से एक चीज निकल कर आ रही है कि G-23 नेताओं को मनाने की कोशिश में उनकी कई मांगें मान ली गयी हैं - और उनमें प्रमुख मांग है संसदीय बोर्ड के गठन की.
बीच बीच में ऐसी भी रिपोर्ट आती रही कि मुमकिन है राहुल गांधी (Rahul Gandhi) राजी हो जायें और कांग्रेस को एक स्थायी अध्यक्ष भी चिंतन शिविर में ही मिल जाये. मनाही के बावजूद कांग्रेस के कई नेता रह रह कर सलाह भरी मांग उठाते रहे कि राहुल गांधी को फिर से कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी संभाल लेनी चाहिये. शुरू होने के साथ ही ये मांग खत्म भी हो जाती. लोग एक दूसरे की तरफ मुस्कुरा कर देख लेते और फिर चुप हो जाते. राजनीतिक दलों के आंतरिक लोकतंत्र का ये भी एक खास रूप होता है.
लेकिन लगता है आचार्य प्रमोद कृष्णम पहले से ही बिल्ली के गले में घंटी बांधने का फैसला करके आये थे. जब देखे कि कांग्रेस के कई नेता राहुल गांधी की वापसी की बात कर भी चुप हो जा रहे हैं तो प्रमोद कृष्णम ने जोखिमभरा कदम आगे बढ़ाने का फैसला किया.
मौका मिलते ही प्रमोद कृष्णम ने कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi) को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने का सुझाव दे डाला. ये ऐसा मुद्दा है कि सबका सपोर्ट भले न मिले लेकिन विरोध कौन करेगा?
जब प्रमोद कृष्णम ने ये सुझाव दिया तो प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ साथ सोनिया गांधी भी वहां मौजूद थीं. सोनिया गांधी या प्रियंका गांधी की तरफ से कोई रिएक्शन तो नहीं आया, लेकिन गांधी परिवार के करीबी नेताओं ने ये कह कर प्रमोद कृष्णम को चुप कराने की कोशिश की कि चिंतन शिविर में चर्चा का ये टॉपिक है ही नहीं.
प्रियंका गांधी को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने की मांग
कांग्रेस के चिंतन शिविर में आचार्य प्रमोद कृष्णम ने एक मीटिंग में प्रस्ताव रखा कि अगर राहुल गांधी अध्यक्ष बनने को तैयार नहीं हैं, तो प्रियंका गांधी को राष्ट्रीय अध्यक्ष की जिम्मेदारी सौंप दी जाये. हालांकि, बाकी मौकों पर और कार्यकारिणी की बैठक में भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी को ही अध्यक्ष बनाये जाने की मांग कर रहे थे.
जब प्रमोद कृष्णम ने ये पहल की तब राहुल गांधी वहां नहीं थे. प्रमोद कृष्णम की मांग पर न तो सोनिया गांधी ने कुछ बोला, न ही प्रियंका गांधी वाड्रा ने - लेकिन हरियाणा कांग्रेस के नेता दीपेंद्र हुड्डा ने जरूर सपोर्ट किया. दीपेंद्र हुड्डा का कहना रहा कि प्रियंका गांधी को सिर्फ उत्तर प्रदेश तक सीमित करके नहीं रखा जाना चाहिये.
बीच में प्रमोद कृष्णम को मल्लिकार्जुन खड़्गे रोकने की कोशिश जरूर करते रहे, लेकिन वो नहीं माने. दीपेंद्र हुड्डा की तरह रंजीत रंजन ने भी प्रियंका गांधी को एक राज्य तक सीमित न करने के प्रस्ताव का समर्थन किया. मल्लिकार्जुन खड़्गे चिंतन शिविर के लिए बनी राजनीतिक समिति के संयोजक हैं और उसी पैनल में प्रमोद कृष्णम और रंजीत रंजन भी हैं.
ये सवाल जब सचिन पायलट के सामने मीडिया ने उठाया तो बोले कि कांग्रेस में सबको बोलने का हक है - और राहुल गांधी ने भी उसी बात को अपने तरीके से एनडोर्स किया है - कांग्रेस पार्टी के डीएनए में सबको बिना डरे बोलने की आजादी है, जबकि बीजेपी में ऐसा नहीं है.
राहुल के मुकाबले प्रियंका का प्रदर्शन
जोड़ा जाये तो राहुल गांधी 18 साल से सक्रिय राजनीति में हैं, लेकिन प्रियंका गांधी वाड्रा को अभी तीन साल ही हुए हैं. पहले प्रियंका गांधी सिर्फ अमेठी और रायबरेली में अपने भाई और मां के चुनाव कैंपेन तक खुद को सीमित रखती थीं.
2019 के आम चुनाव से पहले प्रियंका गांधी वाड्रा को कांग्रेस महासचिव और पूर्वांचल का प्रभारी बनाया गया, लेकिन तब से लेकर अभी तक उनके नाम कामयाबी के नाम पर जीरो बैलेंस ही है. जिस क्षेत्र में प्रियंका गांधी बचपन से चुनाव प्रचार में शामिल होती रहीं, औपचारिक जिम्मेदारी मिलते ही फेल हो गयीं - राहुल गांधी को अमेठी में बीजेपी की स्मृति ईरानी ने हरा दिया.
फिर 2022 का विधानसभा चुनाव आया और तमाम तामझाम के बावजूद कांग्रेस को महज दो सीटें मिलीं - वो भी नेताओं ने अपने बूते जीती होंगी. प्रियंका गांधी ने 'लड़की हूं, लड़ सकती हूं' जैसा जोरदार कैंपेन चलाया और 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों को टिकट भी दिया था.
बेशक राहुल गांधी को हाल फिलहाल कोई कामयाबी नहीं मिली है. अपनी भी सीट हार गये. वो तो वायनाड ने इज्जत बचा ली, लेकिन ऐसा 2019 के बाद से ही ज्यादा हो रहा है. तभी से जब से प्रियंका गांधी को कांग्रेस में औपचारिक जिम्मेदारी दी गयी है.
2018 में राहुल गांधी ने देश के तीन राज्यों में कांग्रेस को जीत दिलायी थी - मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़. उससे करीब छह महीने पहले कर्नाटक में कांग्रेस की सत्ता में वापसी नहीं करा पाये, लेकिन बीजेपी को आने से रोक देना भी तो कम महत्व की चीज नहीं है.
2017 में राहुल गांधी पर यूपी की हार की तोहमत तो मढ़ दी जाती है, लेकिन पंजाब की जीत का कोई क्रेडिट नहीं मिलता. पंजाब चुनाव निश्चित तौर पर कांग्रेस ने कैप्टन अमरिंदर सिंह ने अपनी बदौलत और प्रशांत किशोर के कैंपेन के बूते जीता था, लेकिन राहुल गांधी भी काफी सक्रिय रहे. ये जरूर था कि यूपी के मुकाबले कम सक्रियता रही - कैप्टन के दबाव में ही सही, लेकिन राहुल गांधी ने ही उनको मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया था.
उसी साल गुजरात चुनाव में कांग्रेस इतना तो नहीं कर पायी कि सरकार बना ले, लेकिन बीजेपी को मुश्किल में तो डाल ही दिया था. कांग्रेस के एक साधारण कैंपेन 'विकास पागल हो गया है' को रोकने के लिए बीजेपी को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा था. जब कोई उपाय नहीं सूझ रहा था तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को मोर्चा संभालना पड़ा था - फिर भी जैसे तैसे सरकार बन पायी.
राहुल गांधी ने 2004 में सक्रिय राजनीति में कदम रखा था और 2019 में कांग्रेस को यूपी में ज्यादा सीटें दिलाकर कर काफी तारीफ बटोरी थी - क्या प्रियंका गांधी के पास बताने के लिए ऐसा कुछ भी है?
संकटमोचक की छवि बन गयी, हासिल क्या हुआ?
प्रियंका गांधी को औपचारिक तौर पर तो 2019 के आम चुनाव से पहले शामिल किया गया, लेकिन 2017 में राहुल गांधी की ताजपोशी के साथ ही आगे बढ़ कर दखल देने लगी थीं. तब मालूम हुआ कि ताजपोशी की सारी तैयारियों का जिम्मा प्रियंका के हाथ में ही रहा - और छोटी से छोटी चीज उनसे पूछ कर ही की गयी. उससे पहले 2018 की शुरुआत में जब कांग्रेस ने रेप की घटनाओं के विरोध में इंडिया गेट पर कैंडल मार्च किया था तो पहल प्रियंका गांधी की ही बतायी गयी थी.
जब 2018 के आखिर में कांग्रेस को तीन राज्यों में सरकार बनाने का मौका मिला तो मुख्यमंत्री पद को लेकर पेंच फंस गया. तभी पहली बार प्रियंका गांधी के संकटमोचक रूप को देखा गया.
लेकिन हुआ क्या? तीनों राज्यों में मामला अब तक उलझा हुआ है - और मध्य प्रदेश में तो करीब साल भर बाद ही कांग्रेस को सत्ता तक गंवानी पड़ी थी.
पंजाब का प्रयोग सबने देख ही लिया है. पंजाब के पूरे एक्सपेरिमेंट को भाई-बहन लीडरशिप का फैसला माना गया, हालांकि कपिल सिब्बल के सवाल उठाने पर सोनिया गांधी ने कार्यकारिणी की बैठक बुला कर काउंटर किया कि फैसले वो ही लेती हैं. पंजाब को लेकर सोनिया गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़्गे के नेतृत्व में एक कमेटी बना दी थी. राहुल गांधी अपने स्तर पर विधायकों से संपर्क कर रहे थे, लेकिन तभी प्रियंका गांधी ने नवजोत सिंह सिद्धू से मुलाकात की और बात आगे बढ़ी - बाद में क्या हुआ बताने की जरूरत नहीं है.
यूपी चुनाव में भी प्रियंका गांधी को खुल कर काम करने की छूट दी गयी थी. चुनावों के बीच पहली बार राहुल गांधी गये भी तो इलाहाबाद और वाराणसी होकर निजी दौरा बताकर लौट गये - और दोबारा गये तब भी अमेठी तक सीमित रहे. मतलब, किसी तरह का कोई दखल नहीं हुआ. हो सकता है ये राहुल गांधी की तरफ से हुआ हो या प्रियंका गांधी को ही दखल बर्दाश्त न हुई हो.
वैसे भी कांग्रेस के एक मैनिफेस्टो रिलीज के मौके पर प्रियंका गांधी ने तो खुल कर बोल ही दिया था कि कांग्रेस में उनके अलावा किसी और का चेहरा नजर आ भी रहा है क्या?
लखीमपुर खीरी जैसे मुद्दे को उठाकर कर सड़क पर उतरीं प्रियंका गांधी ने कोई कम मेहनत तो नहीं ही की थी. सोनभद्र के उभ्भा गांव से लेकर उन्नाव गैंगरेप पीड़ित की मां - और सीएए आंदोलन में एक्टिव लोगों को भी टिकट दिया था - लेकिन क्या वजह रही कि पूरे यूपी में कांग्रेस को दो से ज्यादा जिताऊ उम्मीदवार नहीं मिले.
तब क्या होता जब यूपी में कांग्रेस की सीटें दहाई में पहुंच गयी होतीं? फिर तो कांग्रेस में प्रियंका गांधी के करीबी राहुल गांधी का जीना ही हराम कर देते.
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