प्रियंका गांधी वाड्रा ने पूर्वांचल दौरे पर निकलते वक्त यूपी के लोगों के नाम एक चिट्ठी लिखी थी. ये वादा भी रहा कि वो गंगा के सहारे लोगों तक पहुंचने की कोशिश करेंगी. गंगा के साथ प्रियंका गांधी वाड्रा का खुद को जोड़ना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गंगा द्वारा बुलाये जाने की बात से जुड़ना भी स्वाभाविक है.
लोहे को लोहा काटता है और अगर ऐसा न हो सके तो लोहा काटने के लिए लोहे की ही राह चलनी पड़ती है. प्रियंका गांधी वाड्रा कर भी यही रही हैं. प्रियंका गांधी भले ही गंगा की धारा के साथ अपने सियासी सफर पर निकली हों, लेकिन कांग्रेस को तो उनसे पूर्वांचल की राजनीति की धारा बदलने की रही है.
सवाल ये है कि क्या प्रियंका वाड्रा कांग्रेस की उन उम्मीदों पर खरा उतर रही हैं? ऐसा क्यों लगता है जैसे प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीतिक की मुश्किल राहों पर भी ऐसे ही चल रही हैं जैसे बहती गंगा में हाथ धोती हुर्ई चलती जा रही हों!
उस करिश्मे का क्या हुआ?
क्या प्रियंका गांधी वाड्रा में बीस साल पहले वाला वो तेवर नहीं रहा? 1999 का प्रियंका का एक भाषण आज भी याद आता है जिसने रायबरेली में चुनाव का रूख ही बदल दिया था. उस वक्त कांग्रेस की ओर से कैप्टन सतीश शर्मा को टक्कर देने बीजेपी के टिकट पर अरुण नेहरू मैदान में उतरे थे. अरुण नेहरू पहले कांग्रेस में ही थे और राजीव गांधी के भरोसेमंद नेताओं की टोली का हिस्सा हुआ करते थे.
तब प्रियंका गांधी ने रायबरेली के लोगों से पूछा था, 'क्या आप उन्हें वोट देंगे जिन्होंने मेरे पिता की पीठ में छुरा घोंपा?' ये सवाल पूछने से पहले प्रियंका ने रायबरेली के लोगों को ललकारते हुए कहा कि उनके पिता के साथ दगाबाजी करने वालों को उन लोगों ने घुसने कैसे दिया? प्रियंका के इस धारदार भाषण का असर ये हुआ कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी रायबरेली पहुंच गये और प्रियंका के प्रश्न पर अपने अंदाज में सवाल दागा - 'हमने सुना है ये किसी का इलाका है...'
जब नतीजे आये तो बीजेपी को काटो तो खून नहीं और कांग्रेस को जश्न का...
प्रियंका गांधी वाड्रा ने पूर्वांचल दौरे पर निकलते वक्त यूपी के लोगों के नाम एक चिट्ठी लिखी थी. ये वादा भी रहा कि वो गंगा के सहारे लोगों तक पहुंचने की कोशिश करेंगी. गंगा के साथ प्रियंका गांधी वाड्रा का खुद को जोड़ना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गंगा द्वारा बुलाये जाने की बात से जुड़ना भी स्वाभाविक है.
लोहे को लोहा काटता है और अगर ऐसा न हो सके तो लोहा काटने के लिए लोहे की ही राह चलनी पड़ती है. प्रियंका गांधी वाड्रा कर भी यही रही हैं. प्रियंका गांधी भले ही गंगा की धारा के साथ अपने सियासी सफर पर निकली हों, लेकिन कांग्रेस को तो उनसे पूर्वांचल की राजनीति की धारा बदलने की रही है.
सवाल ये है कि क्या प्रियंका वाड्रा कांग्रेस की उन उम्मीदों पर खरा उतर रही हैं? ऐसा क्यों लगता है जैसे प्रियंका गांधी वाड्रा राजनीतिक की मुश्किल राहों पर भी ऐसे ही चल रही हैं जैसे बहती गंगा में हाथ धोती हुर्ई चलती जा रही हों!
उस करिश्मे का क्या हुआ?
क्या प्रियंका गांधी वाड्रा में बीस साल पहले वाला वो तेवर नहीं रहा? 1999 का प्रियंका का एक भाषण आज भी याद आता है जिसने रायबरेली में चुनाव का रूख ही बदल दिया था. उस वक्त कांग्रेस की ओर से कैप्टन सतीश शर्मा को टक्कर देने बीजेपी के टिकट पर अरुण नेहरू मैदान में उतरे थे. अरुण नेहरू पहले कांग्रेस में ही थे और राजीव गांधी के भरोसेमंद नेताओं की टोली का हिस्सा हुआ करते थे.
तब प्रियंका गांधी ने रायबरेली के लोगों से पूछा था, 'क्या आप उन्हें वोट देंगे जिन्होंने मेरे पिता की पीठ में छुरा घोंपा?' ये सवाल पूछने से पहले प्रियंका ने रायबरेली के लोगों को ललकारते हुए कहा कि उनके पिता के साथ दगाबाजी करने वालों को उन लोगों ने घुसने कैसे दिया? प्रियंका के इस धारदार भाषण का असर ये हुआ कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी रायबरेली पहुंच गये और प्रियंका के प्रश्न पर अपने अंदाज में सवाल दागा - 'हमने सुना है ये किसी का इलाका है...'
जब नतीजे आये तो बीजेपी को काटो तो खून नहीं और कांग्रेस को जश्न का मौका मिल गया. कैप्टन सतीश शर्मा न सिर्फ जीत गये बल्कि अरुण नेहरू चौथे स्थान पर जा पहुंचे थे.
अब वो बात क्यों नहीं नजर आ रही है? क्या प्रियंका की बातों को लोग अब पहले की तरह नहीं ले रहे हैं? क्या प्रियंका की बातें लोगों को विक्टिम कार्ड खेलने जैसी लग रही हैं?
प्रियंका कहती हैं, 'मैं बिल्कुल नहीं डरती. चाहें कुछ भी करें, हमें जितना भी प्रताड़ित करें, हम डरते नहीं हैं. हम उनके खिलाफ लड़ते रहेंगे. वो हमें जितना प्रताड़ित करेंगे उतनी जोर से हम लड़ेंगे.'
ये कौन सी लड़ाई की बात हो रही है? ये किसके प्रताड़ना की बात हो रही है? ये किसके डरने की बात हो रही है?
प्रियंका अपने पति रॉबर्ट वाड्रा को जब ईडी दफ्तर तक छोड़ने गयीं तो उनकी छवि एक भारतीय पत्नी के तौर पर पेश करने की कोशिश समझी गयी. अब अगर प्रियंका लड़ाई की बात करती हैं, प्रताड़ना की बात करती हैं और डरने की बात करती हैं तो लोग उसे निजी ही तो समझेंगे - वो अवाम की लड़ाई कैसे हुई? वो लोकतंत्र की लड़ाई कैसे हुई? वो संस्थाओं को बचाने की लड़ाई कैसे हुई?
पत्रकारों से बात करते हुये प्रियंका कहती हैं, 'वो पिछले पांच साल से देश के हर संस्थान पर हमला कर रहे हैं. इनमें वो संस्थान भी शामिल हैं जिनमें आप काम करते हैं. आप इस बारे में मुझसे बेहतर जानते हैं. इसलिए मेरा मानना है कि प्रधानमंत्री को ये सोचना छोड़ देना चाहिये कि लोग बेवकूफ हैं, उन्हें पता होना चाहिये कि लोग सब समझ रहे हैं.'
आखिर 27 की उम्र में दिखा प्रियंका का तेवर अब क्यों नहीं नजर आ रहा है? ये सही है कि प्रियंका गांधी वाड्रा पूर्वांचल में कांग्रेस के हिसाब से बहुत ही दुरूह दौरे पर हैं, लेकिन उनके आस-पास लोग 'मोदी-मोदी' के नारे लगाने लगे हैं - ऐसा क्यों?
वही पुरानी बातें, वही पुराना राग
कांग्रेस महासचिव प्रियंका के निशाने पर भी राहुल गांधी की तरह ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं, लेकिन वो सारी बातें बगैर नाम लिये कह रही हैं. जिन चीजों की ओर प्रियंका इशारा कर रही हैं वो सारी बातें राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी का नाम लेकर कहते हैं.
प्रियंका गांधी कहती हैं - 'आप शक्तिमान हैं. आप बड़े नेता हैं. आपका 56 इंच का सीना है, तो रोज़गार क्यों नहीं दिया - क्योंकि ये इनकी दुर्बलता है. ये दुर्बल सरकार है.
आखिर राहुल गांधी भी तो यही सबक कहते फिरते हैं - 'ये आदमी डरपोक है. ये हमसे डरता है. मेरे सामने बहस में टिक नहीं पाएगा...'
मिर्जापुर के एक घाट पर पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से अपनी तुलना किये जाने पर प्रियंका ने कहा, 'बहुत से लोग कहते हैं कि मैं अपनी दादी जैसी दिखती हूं. आप उनसे मेरी तुलना करते हैं - क्योंकि आपका उनसे लगाव रहा है. उन्होंने आप सबके लिए जो काम किए, इसलिए आप उनका आदर करते हैं.'
गुजरात की पहली रैली से लेकर अब तक प्रियंका गांधी के भाषण पर गौर करें तो राहुल गांधी के ही भाषणों की नयी पैकेजिंग सुनायी देती है. राहुल गांधी और प्रियंका के भाषण में फर्क बस ये है कि भाई गुस्सा दिखाने की कोशिश करता है तो बहन संजीदगी.
1. गुजरात की रैली में प्रियंका गांधी के भाषण में तत्व की दो बातें ही सुनने को मिली थीं - '15 लाख खाते में' और 'दो करोड़ रोजगार' को लेकर वादाखिलाफी.
2. कहने को तो प्रियंका गांधी कहती हैं कि सत्तर साल की रट लगाने की भी एक्सपायरी डेट होती है, लेकिन उनके सवाल भी नये नहीं होते. क्या इसलिए कि प्रियंका कोई नयी आइडिया देने की जगह नये शब्दों में वही बातें करने लगी हैं जो राहुल गांधी अरसे से करते आ रहे हैं. प्रियंका ने पूछा है कि पांच साल में केंद्र सरकार ने क्या किया? कुछ भी नहीं किया?
3. प्रियंका गांधी भी राहुल गांधी वाले 'सॉफ्ट हिंदुत्व' के रास्ते चल पड़ी हैं. प्रयागराज में हनुमान मंदिर, विंध्याचल में देवी दर्शन और फिर काशी विश्वनाथ दर्शन. गुजरात और कर्नाटक विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी भी ऐसे ही मंदिरों और मठों में घूमते देखे गये थे.
गंगा और मंदिरों के रास्ते चलते हुए प्रियंका गांधी गठबंधन के तकरीबन वही तरीके अपना रही हैं जो पांच साल पहले और 2017 में बीजेपी ने अपनाया था. बीजेपी ने लोक सभा चुनाव में अपना दल के साथ समझौता किया था और यूपी विधानसभा चुनावों में ओम प्रकाश राजभर की सुहेलदेव राजभर पार्टी के साथ. सपा-बसपा गठबंधन में एंट्री न मिल पाने के बाद से कांग्रेस अपने परंपरागत वोटबैंक को अपनी ओर खींचने की कोशिश में जुटी है. कांग्रेस ने यूपी में अभी तीन दलों के साथ गठबंधन किया है - कृष्णा पटेल वाले अपना दल, बाबू सिंह कुशवाहा की राष्ट्रीय जन अधिकार पार्टी और महान दल. अनुप्रिया पटेल का अपना दल फिलहाल बीजेपी के साथ है और उनकी मां कृष्णा पटेल ने कांग्रेस से हाथ मिलाया है जिनका आधार कुर्मी मतदाता हैं. महानदल औैर राष्ट्रीय जन अधिकार पार्टी को वोट देने वालों में मौर्य, शाक्य, सैनी और कुशवाहा समुदाय है - ये वोट करीब 12 फीसदी है.
कांग्रेस का भविष्य अंधकारमय तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन ज्यादा उज्ज्वल भी नहीं दिखायी दे रहा है. कांग्रेस को प्रियंका गांधी से जिस करिश्मे की उम्मीद रही होगी, अब तक तो वो निराश ही करती लगती हैं.
वैसे तो प्रियंका गांधी को टास्क ही सबसे कठिन मिला हुआ है - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ के गढ़ में कांग्रेस को खड़ा करना. वो कोशिश भी कर रही हैं. हो सकता है कहीं और से शुरुआत हुई रहती तो लोगों का रिएक्शन और होता.
पहली बार में ही प्रियंका गांधी वाड्रा ऐसे मोर्चे पर खड़ी हो गयी हैं जहां सीधे प्रधानमंत्री मोदी से टक्कर हो रही है - गुजरात और वाराणसी. बीजेपी के गढ़ में भला प्रियंका गांधी कर भी क्या सकती हैं?
बीजेपी के गढ़ और मोदी के इलाके में कड़ी टक्कर देने के लिए प्रियंका गांधी वाड्रा को कुछ नया करना होगा. कुछ नयी बातें करनी होंगी. कोई नयी उम्मीद जगानी होगी. प्रियंका गांधी की ओर से अब तक कोई नयापन नहीं दिखायी दिया है सिवा उनकी भाषण की शुरुआत से - 'बहनों और भाइयों!'
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