प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) से इंदिरा गांधी जैसी अपेक्षा रखने वाले कांग्रेसी अगर अब भी निराश हैं, तो एक बार राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से तुलना करके फर्क देखने की कोशिश करनी चाहिये - काफी राहत मिल सकती है.
कांग्रेस के फील्ड प्रदर्शन को लेकर निराशा का भाव धीरे धीरे कम होकर उम्मीदों भरा लग सकता है हां, भाई-बहन की नेतृत्व क्षमता में ये फर्क लखीमपुर खीरी एपिसोड के बाद की घटनाओं के जरिये ही समझने की कोशिश की जा सकती है - क्योंकि उसके बाद ही तस्वीर ज्यादा साफ हुई है.
ऐसा भी नहीं कह सकते कि लखीमपुर खीरी के रास्ते में पुलिस हिरासत में 60 घंटे बिताने के बाद बड़ा बदलाव हुआ है, लेकिन प्रियंका गांधी ये तो समझ ही चुकी हैं कि राजनीतिक मुद्दों को बिकाऊ के साथ साथ टिकाऊ कैसे बनाया जा सकता है.
जो काम प्रियंका गांधी वाड्रा लगातार कर रही हैं, राहुल गांधी किसान आंदोलन से पहले उस वक्त देखने को मिला था जब हरियाणा में एंट्री नहीं दी जा रही थी. तब राहुल गांधी भी बॉर्डर पर वैसे ही धरने पर बैठ गये थे जैसे प्रियंका गांधी सोनभद्र की हत्या और हाथरस जैसे वाकयों में किया था - और राहुल गांधी के दबाव में हरियाणा की खट्टर सरकार को राहुल गांधी को आगे के रास्ते के लिए ग्रीन सिग्नल देना पड़ा था.
राहुल गांधी की ट्रैक्टर रैली के दौरान के प्रदर्शन को छोड़ दें तो वो भी प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ वाले हर मिशन पर ज्यादा ही सफल रहे हैं - राहुल गांधी के साथ एक मुश्किल ये जरूर है कि वो अपनी हर हरकत के लिए बीजेपी के निशाने पर आ जाते हैं, जबकि प्रियंका गांधी पर रिएक्ट करने से पहले बीजेपी की तरफ से बड़े नेता बहुत नपा-तुला ही...
प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) से इंदिरा गांधी जैसी अपेक्षा रखने वाले कांग्रेसी अगर अब भी निराश हैं, तो एक बार राहुल गांधी (Rahul Gandhi) से तुलना करके फर्क देखने की कोशिश करनी चाहिये - काफी राहत मिल सकती है.
कांग्रेस के फील्ड प्रदर्शन को लेकर निराशा का भाव धीरे धीरे कम होकर उम्मीदों भरा लग सकता है हां, भाई-बहन की नेतृत्व क्षमता में ये फर्क लखीमपुर खीरी एपिसोड के बाद की घटनाओं के जरिये ही समझने की कोशिश की जा सकती है - क्योंकि उसके बाद ही तस्वीर ज्यादा साफ हुई है.
ऐसा भी नहीं कह सकते कि लखीमपुर खीरी के रास्ते में पुलिस हिरासत में 60 घंटे बिताने के बाद बड़ा बदलाव हुआ है, लेकिन प्रियंका गांधी ये तो समझ ही चुकी हैं कि राजनीतिक मुद्दों को बिकाऊ के साथ साथ टिकाऊ कैसे बनाया जा सकता है.
जो काम प्रियंका गांधी वाड्रा लगातार कर रही हैं, राहुल गांधी किसान आंदोलन से पहले उस वक्त देखने को मिला था जब हरियाणा में एंट्री नहीं दी जा रही थी. तब राहुल गांधी भी बॉर्डर पर वैसे ही धरने पर बैठ गये थे जैसे प्रियंका गांधी सोनभद्र की हत्या और हाथरस जैसे वाकयों में किया था - और राहुल गांधी के दबाव में हरियाणा की खट्टर सरकार को राहुल गांधी को आगे के रास्ते के लिए ग्रीन सिग्नल देना पड़ा था.
राहुल गांधी की ट्रैक्टर रैली के दौरान के प्रदर्शन को छोड़ दें तो वो भी प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ वाले हर मिशन पर ज्यादा ही सफल रहे हैं - राहुल गांधी के साथ एक मुश्किल ये जरूर है कि वो अपनी हर हरकत के लिए बीजेपी के निशाने पर आ जाते हैं, जबकि प्रियंका गांधी पर रिएक्ट करने से पहले बीजेपी की तरफ से बड़े नेता बहुत नपा-तुला ही जवाब देते हैं. बहुत जरूरी होने पर बीजेपी की तरफ से छोटे नेताओं को आगे किया जाता है, जैसा यूपी चुनाव में 40 फीसदी महिलाओं को टिकट देने की कांग्रेस महासचिव की घोषणा के बाद देखने को मिला.
देखा जाये तो कांग्रेस में खुल कर बैटिंग करने की जितनी छूट राहुल गांधी को मिली है, अभी तक प्रियंका गांधी वाड्रा को नहीं दी गयी. 2019 के आम चुनाव से पहले प्रियंका गांधी को कांग्रेस में औपचारिक एंट्री दिये जाने के बाद भी उनको बाकी पार्टी महासचिवों के साथ बिठाया जाता रहा है, कांग्रेस अध्यक्ष और उपाध्याक्ष बनने से पहले महासचिव रहते राहुल गांधी को शायद ही ऐसे कभी प्रोजेक्ट किया गया हो - या कहें कि कम महत्व दिया गया हो.
फिर भी प्रियंका गांधी वाड्रा ने राहुल गांधी के मुकाबले अपने छोटे से परफॉर्मेंस पीरियड में जो जुझारूपन दिखाया है, राहुल गांधी के मुकाबले वो काफी आगे नजर आती हैं. प्रियंका गांधी वाड्रा ने अब तक कम से कम एक संकेत तो दे ही दिया है कि वो पार्ट टाइम पॉलिटिशियन नहीं हैं - और यही वो चीज है जो बीजेपी (BJP) या यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए ज्यादा परेशान करने वाली हो सकती है!
प्रियंका और राहुल की राजनीति का फर्क नजर आने लगा है
देखा जाये तो प्रियंका गांधी वाड्रा को भी वे राजनीतिक मुद्दे ही ज्यादा पसंद हैं जो राहुल गांधी को - दलित, पीड़ित पक्ष, किसान, सॉफ्ट हिंदुत्व, मुस्लिम वोट बैंक और बीजेपी विरोध.
अमेठी और रायबरेली से बाहर निकलने के बाद प्रियंका गांधी का सफर भी वैसी ही घटनाओं के इर्द-गिर्द घूमता नजर आता है जैसा राहुल गांधी के मामले में रहा, लेकिन राहुल गांधी किसी भी मुद्दे को जोर-शोर से उठाने के बाद भी उसे टिकाये नहीं रखते और फिर मामला जल्द ही शांत हो जाता है. दलितों के घरों से लेकर भट्टा-पारसौल या उसके बाद में राहुल गांधी ने कई यात्राएं की, लेकिन कोई बचकानी हरकत करने सारी मेहनत पर खुद ही पानी फेर दिया.
2017 के यूपी चुनाव से पहले राहुल गांधी पूरे राज्य में किसान यात्रा के तहत खाट सभा करते रहे, लेकिन उसके खत्म होते ही दिल्ली पहुंच कर सर्जिकल स्ट्राइक पर 'खून की दलाली' वाला बयान दिया और उत्तर प्रदेश में अपने सारे किये धरे की मिट्टी पलीत कर डाली. ये एक्ट भी कुछ ऐसा ही था जैसे संसद में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव के बाद राहुल गांधी आगे बढ़े और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पास जाकर सीधे गले मिल लिये - अगर उसके बाद राहुल गांधी अपने साथियों के साथ रिएक्शन में आंख नहीं मारे होते तो बहस तो गले मिलने पर होती, लेकिन वो पीछे छूट गया और आंख मारने पर बात होने लगी.
प्रियंका गांधी के मामले में एक बड़ा फर्क देखने को मिलता है, जो राहुल गांधी के मामले में अब तक शायद ही नजर आया हो - और हो सकता है ऐसा राहुल गांधी की अपनी राजनीतिक स्टाइल के चलते होता रहा हो - लॉकडाउन के बाद से राहुल गांधी को छुट्टियों पर जाने का ज्यादा मौका भले न मिला हो, लेकिन किसी मुद्दे को उठाने के बाद उसे बीच में ही छोड़ कर आगे बढ़ने की फितरत में कोई फर्क देखने को तो नहीं ही मिला है.
राहुल गांधी अगर अब तक अपनी किसी एक बात पर टिके हुए हैं तो वो है मोदी विरोध - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को निजी तौर पर टारगेट न करने की साथी कांग्रेस नेताओं की सलाह को दरकिनार कर वो अपनी जिद पर कायम है, भले ही उसकी कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े. 'चौकीदार चोर है' का नतीजा दे्ख लेने के बाद भी. अव्वल तो वो संघ, बीजेपी और मोदी से नहीं डरने की बातें करते हैं, लेकिन फिर अचानक बताने लगते हैं कि 'मोदी को युवा डंडे मारेंगे...' - और दांव फौरन ही बैकफायर कर जाता है.
प्रियंका गांधी के लखीमपुर खीरी हिंसा को लेकर भी वैसा ही स्टैंड लिया जैसा सोनभद्र के उभ्भा गांव में हत्याओं के बाद पीड़ितों से मिलने के मामले में लिया था. मौके पर तब तक डटी रहीं जब तक कि प्रशासन झुक नहीं गया और पीड़ितों से मुलाकात कराने को तैयार न हुआ. लखीमपुर खीरी जाने से पहले हिरासत में लेने के बाद भी योगी सरकार के अफसरों ने वही किया जो कांग्रेस महासचिव को चाहिये था. आगरा के रास्ते में भी रुकावट आयी और फिर उसी तरीके से साफ भी हो गयी.
प्रियंका गांधी की पॉलिटिक्स में एक खास बात जो हाल फिलहाल देखने को मिल रही है, राहुल गांधी की राजनीति में अब तक वही कमी महसूस की जाती रही है - किसी भी मुद्दे पर आक्रामक रुख अख्तियार करने के बाद उसे बनाये रखना, उस पर ज्यादा देर तक कायम रहना. आक्रामकता तो राहुल गांधी में भी यूपी चुनाव के मैदान में ही पहले देखने को मिला करती थी जब वो अचानक से मंच पर कुर्ते की आस्तीन चढ़ाने लगते और लोगों से पूछा भी करते - आपको गुस्सा नहीं आता?
प्रियंका गांधी मैदान में आक्रामक होने के साथ साथ ज्यादा जुझारू और लंबे वक्त तक लड़ते हुए नजर आती हैं - जैसे रोके जाने पर पुलिसवालों से सीधे दो-दो हाथ गुत्थमगुत्थी करने का इरादा रखती हों.
जैसे पुलिस को एक्शन लेने की गलती करने के लिए उकसा रही हों और अगर पुलिस से गलती से मिस्टेक हो जाये तो उसे बड़ा मुद्दा बनाया जा सके. अगर CAA विरोध प्रदर्शन के दौर को याद करें तो लखनऊ में प्रियंका गांधी ने ऐसी ही ट्रिक आजमायी थी, लेकिन जैसे ही लगा कि मामला बेदम साबित हो सकता है, फौरन ही कदम पीछे खींच लिये थे.
उस दिन लखनऊ पहुंचने के बाद प्रियंका गांधी ने पुलिस एक्शन के शिकार मुस्लिम समुदाय के लोगों से मिलने के साथ ही जेल भेजे गये पूर्व आईपीएस अधिकारी एसआर दारापुरी के परिवार से मिलने का कार्यक्रम बनाया था - उसी दौरान प्रियंका गांधी की तरफ से लखनऊ पुलिस पर गला दबाने का आरोप लगाया गया, लेकिन कुछ ही देर बाद आरोप को सामान्य दुर्व्यव्हार में तब्दील कर दिया गया.
राहुल गांधी से तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को शायद ही कभी कोई खास दिक्कत महसूस हुई हो, लेकिन यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ निश्चित तौर पर प्रियंका गांधी को ज्यादा मौका देने के लिए थोड़ा बहुत पश्चाताप तो कर ही रहे होंगे.
ऐसा भी नहीं है कि प्रियंका गांधी के तेवर को देखते हुए उत्तर प्रदेश के लोग 2022 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी की जगह कांग्रेस के हाथ सत्ता सौंपने के बारे में सोचने लगे हों, लेकिन ये तो है ही कि प्रियंका गांधी की वजह से कांग्रेस को नोटिस लेने लगे हैं.
भले ही राहुल गांधी कांग्रेस अध्यक्ष रहते हुए 2018 के आखिर में तीन राज्यों में कांग्रेस को सत्ता को सत्ता की सीढ़ी तक पहुंचा चुके हों और उसके बाद आम चुनाव में भी पार्टी का नेतृत्व कर चुके हों, लेकिन अब तक वो शौकिया राजनीति करते ही नजर आये हैं, जबकि छोटी सी अवधि में ही सही प्रियंका गांधी कई मौकों पर राजनीति करने का पेशेवराना अंदाज दिखा चुकी हैं - और ये बात बीजेपी के लिए सबसे ज्यादा परेशान करने वाली है.
चुनावी राजनीति की नब्ज पकड़ने की है कोशिश
पंजाब को दलित मुख्यमंत्री और यूपी में 40 फीसदी महिलाओं को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाने की घोषणा के बाद राहुल गांधी ने कहा है कि ये तो बस शुरुआत है. मतलब, ये मैसेज समझा जाये कि देखिये आगे आगे होता है क्या?
बहुत आगे का तो अभी नहीं पता, लेकिन प्रियंका गांधी वाड्रा ने एक वीडियो शेयर करते हुए ट्विटर पर लिखा है, 'कल मैं कुछ छात्राओं से मिली... उन्होंने बताया कि उन्हें पढ़ने और सुरक्षा के लिए स्मार्टफोन की जरूरत है. मुझे खुशी है कि घोषणा समिति की सहमति से आज P कांग्रेस ने निर्णय लिया है कि सरकार बनने पर इंटर पास लड़कियों को स्मार्टफोन और स्नातक लड़कियों को इलेक्ट्रानिक स्कूटी दी जाएगी.'
बताते हैं कि जब प्रियंका गांधी वाड्रा जब उन छात्राओं से मिलीं तो बातों बातों में वे बोल पड़ीं कि उनके पास मोबाइल नहीं है. ये सुनते ही प्रियंका गांधी वाड्रा पूछ बैठीं - 'तुम लोगों को मोबाइल दिलवा दें?'
छात्राएं भी खुश हो गयीं. नेकी और पूछ पूछ कर. बोलीं कि अब इससे अच्छा क्या होगा कि हर लड़की के पास एक मोबाइल फोन हो. मोबाइल मिलने की बात सुन कर छात्राएं खुश हो गयीं, और मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक, वे खुशी से चहकते हुए कह रही हैं कि वे प्रियंका गांधी वाड्रा को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते देखना चाहती हैं.
बहरहाल, प्रियंका गांधी वाड्रा ने खुद या कांग्रेस की तरफ से किसी ने अब तक ये नहीं बताया या दावा किया है कि वो ही यूपी में मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस का चेहरा हैं. छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने भी सिर्फ इतना ही कहा था कि कांग्रेस प्रियंका गांधी के नेतृत्व में ही यूपी विधानसभा चुनाव लड़ेगी.
बनारस में त्रिपुंड लगाकर प्रियंका गांधी वाड्रा ने हिंदुत्व से जुड़ी अपनी छवि पेश करने की कोशिश की और उसके बाद महिलाओं को 40 फीसदी टिकट देने और इंटर की छात्राओं को स्मार्टफोन देने के साथ साथ ग्रेजुएशन करने वाली छात्राओं को स्कूटी देने की जो घोषणा की है, उसके आगे तो यही समझ में आ रहा है कि जिन मुद्दों को लेकर वो योगी आदित्यनाथ सरकार पर हमलावर रही हैं, वे ही धीरे धीरे करके यूपी में कांग्रेस के चुनावी वादों की लिस्ट में शुमार होता जा रहा है.
सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान तो प्रियंका गांधी मुस्लिम समुदाय के पीछे खड़ी रहीं ही, किसानों के लिए पाबंदी के बावजूद दिल्ली में मार्च निकालने की कोशिश कीं और हिरासत में ले ली गयीं - लखीमपुर खीरी में कुचले गये किसानों के घर से केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी को हटाये जाने तक संघर्ष का ऐलान किया और बनारस रैली के बाद राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से राहुल गांधी के साथ मिल कर ज्ञापन भी दे चुकी हैं.
हालांकि, अब भी कांग्रेस ये डायलॉग बोलने की स्थिति में नहीं आ सकी है कि 'अगर किसी चीज को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात तुम्हे उससे मिलाने में लग जाती है'. जिस तरीके से बीजेपी दलित और पिछड़े वोट बैंक में सेंध लगाने के उपाय करती जा रही है, मायावती और अखिलेश यादव को नुकसान तो पहुंचना ही है - और जरा गौर से सोचें तो अपने साथ साथ बीजेपी एक तरीके से कांग्रेस की भी मदद कर रही है. कांग्रेस के लिए सपा और बसपा का कमजोर होना फायदे का ही सौदा है, भले ही वे गठबंधन में हों या अलग अलग.
महिलाओं के खिलाफ अपराध और उनकी सुरक्षा का मुद्दा उठाते उठाते प्रियंका गांधी ने अपने साथ कंधे से कंधा मिलाकर लड़ने की बात करती रहीं और अब उनको राजनीति में लाने के लिए 40 फीसदी टिकट देने का ऐलान किया है. छात्राओं को सुरक्षा के लिए स्मार्टफोन देने की बात भी उसी का एक्सटेंशन है - आने वाले दिनों में बेरोजगारों के लिए बिहार में सरकारी नौकरियों को लेकर तेजस्वी यादव जैसी घोषणा सुनायी दे तो कोई अचरज की बात नहीं होनी चाहिये.
इन्हें भी पढ़ें :
यूपी चुनाव में योगी आदित्यनाथ घिरते जा रहे हैं महिला ब्रिगेड से!
प्रियंका गांधी वाड्रा के प्लान में मुख्यमंत्री का कोई महिला चेहरा है क्या ?
कांग्रेस के बुजुर्ग नेता क्यों डरते हैं प्रियंका गांधी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने से?
इस लेख में लेखक ने अपने निजी विचार व्यक्त किए हैं. ये जरूरी नहीं कि आईचौक.इन या इंडिया टुडे ग्रुप उनसे सहमत हो. इस लेख से जुड़े सभी दावे या आपत्ति के लिए सिर्फ लेखक ही जिम्मेदार है.