उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के उम्भा गांव में 10 लोगों की सामूहिक हत्या के महीने भर के भीतर प्रियंका गांधी वाड्रा दोबारा पहुंचीं. कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने जाने से पहले ही ट्वीट कर कहा, 'चुनार के किले पर मुझसे मिलने आए उम्भा गांव के पीड़ित परिवारों के सदस्यों से मैंने वादा किया था कि मैं उनके गांव आऊंगी. आज मैं उम्भा गांव के बहनों-भाइयों और बच्चों से मिलने, उनका हालचाल सुनने-देखने, उनका संघर्ष साझा करने सोनभद्र जा रही हूं.' प्रियंका गांधी दूसरे नेताओं की तरह भाइयों और बहनों या मित्रों नहीं कहतीं, वो 'बहनों और भाइयों' बोलती हैं और ये लोगों को उनके करीब लाता भी है.
उम्भा की घटना 17 जुलाई की है और 19 जुलाई को प्रियंका गांधी सोनभद्र के दौरे पर निकल गयीं. तब प्रियंका गांधी को रास्ते में ही रोक लिया गया था और चुनार गेस्ट हाउस में हिरासत में रखा गया. प्रियंका गांधी धरने पर बैठ गयीं और योगी आदित्यनाथ के सरकारी मुलाजिमों को उनकी बात माननी पड़ी. हत्या के शिकार लोगों के परिवार वालों से मुलाकात के बाद प्रियंका गांधी लौट आईं - और महीने भर के भीतर ही वादे के मुताबिक दोबारा पहुंच भी गयीं - लेकिन एक छोटी सी चूक हो गयी. राजनीति में एक छोटी चूक भी अक्सर भारी पड़ती है.
क्या प्रियंका गांधी सोनभद्र को सिंगूर बना पाएंगी?
यूपी के उम्भा नरसंहार को लेकर प्रियंका गांधी की तत्परता ने पश्चिम बंगाल के सिंगूर आंदोलन की याद दिला दी - ये सिंगूर आंदोलन ही था जिसकी बदौलत ममता बनर्जी चार दशक से सत्ता पर काबिज वाम मोर्चे को बेदखल कर राइटर्स बिल्डिंग में दाखिल हो पायीं.
सिंगूर आंदोलन के बाद किसानों की जिंदगी तो नहीं बदली, लेकिन ममता बनर्जी पांच साल सरकार चलाने के बाद सत्ता में वापसी करने में कामयाब रहीं. हालांकि, 2019 के आम चुनाव में बीजेपी ने ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को काफी नुकसान पहुंचाया है. एक दशक पहले टाटा समूह की एक लाख वाली नैनो कार के लिए तत्कालीन बुद्धदेव भट्टाचार्या सरकार ने सिंगूर के किसानों की 1000 एकड़...
उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले के उम्भा गांव में 10 लोगों की सामूहिक हत्या के महीने भर के भीतर प्रियंका गांधी वाड्रा दोबारा पहुंचीं. कांग्रेस महासचिव प्रियंका वाड्रा ने जाने से पहले ही ट्वीट कर कहा, 'चुनार के किले पर मुझसे मिलने आए उम्भा गांव के पीड़ित परिवारों के सदस्यों से मैंने वादा किया था कि मैं उनके गांव आऊंगी. आज मैं उम्भा गांव के बहनों-भाइयों और बच्चों से मिलने, उनका हालचाल सुनने-देखने, उनका संघर्ष साझा करने सोनभद्र जा रही हूं.' प्रियंका गांधी दूसरे नेताओं की तरह भाइयों और बहनों या मित्रों नहीं कहतीं, वो 'बहनों और भाइयों' बोलती हैं और ये लोगों को उनके करीब लाता भी है.
उम्भा की घटना 17 जुलाई की है और 19 जुलाई को प्रियंका गांधी सोनभद्र के दौरे पर निकल गयीं. तब प्रियंका गांधी को रास्ते में ही रोक लिया गया था और चुनार गेस्ट हाउस में हिरासत में रखा गया. प्रियंका गांधी धरने पर बैठ गयीं और योगी आदित्यनाथ के सरकारी मुलाजिमों को उनकी बात माननी पड़ी. हत्या के शिकार लोगों के परिवार वालों से मुलाकात के बाद प्रियंका गांधी लौट आईं - और महीने भर के भीतर ही वादे के मुताबिक दोबारा पहुंच भी गयीं - लेकिन एक छोटी सी चूक हो गयी. राजनीति में एक छोटी चूक भी अक्सर भारी पड़ती है.
क्या प्रियंका गांधी सोनभद्र को सिंगूर बना पाएंगी?
यूपी के उम्भा नरसंहार को लेकर प्रियंका गांधी की तत्परता ने पश्चिम बंगाल के सिंगूर आंदोलन की याद दिला दी - ये सिंगूर आंदोलन ही था जिसकी बदौलत ममता बनर्जी चार दशक से सत्ता पर काबिज वाम मोर्चे को बेदखल कर राइटर्स बिल्डिंग में दाखिल हो पायीं.
सिंगूर आंदोलन के बाद किसानों की जिंदगी तो नहीं बदली, लेकिन ममता बनर्जी पांच साल सरकार चलाने के बाद सत्ता में वापसी करने में कामयाब रहीं. हालांकि, 2019 के आम चुनाव में बीजेपी ने ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को काफी नुकसान पहुंचाया है. एक दशक पहले टाटा समूह की एक लाख वाली नैनो कार के लिए तत्कालीन बुद्धदेव भट्टाचार्या सरकार ने सिंगूर के किसानों की 1000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था. प्रोजेक्ट पर काम भी शुरू हो गया. अभी कारखाना तैयार होता और काम शुरू होता उससे पहले ही सिंगूर के 2400 किसान अपनी जमीन वापस मांगने लगे. जैसे ही ममता बनर्जी ने आंदोलन का नेतृत्व शुरू किया बवाल बढ़ गया, लिहाजा 2008 में टाटा को अपना कारोबार सिंगूर में समेट कर गुजरात शिफ्ट होना पड़ा. नतीजा ये हुआ कि आंदोलन की बदौलत ममता बनर्जी 2011 में पश्चिम बंगाल में सरकार बनाने में कामयाब हो गयीं. ये बात अलग है कि आम चुनाव के दौरान जब मीडिया की टीमें सिंगूर पहुंची तो लोगों की एक ही शिकायत थी - दीदी की सरकार बने आठ साल हो गये, लेकिन उनकी जमीन खेती के लायक नहीं बन सकी.
सोनभद्र पहुंच कर प्रियंका गांधी उम्भा गांव के प्राइमरी स्कूल में पीड़ित परिवारों से मुलाकात के बाद, गांव की ही एक महिला के साथ घटनास्थल को भी देखने गयीं. यूपी कांग्रेस के नेताओं और स्थानीय कार्यकर्ताओं की सक्रियता के चलते लोग प्रियंका गांधी से मिलने के लिए इकट्ठा भी हुए और मुलाकात के दौरान उनके हाव-भाव से लग भी रहा था कि वो किस तरह जुड़ाव महसूस कर रहे हैं.
प्रियंका गांधी के दौरे को लेकर बीजेपी नेता शुरू से ही हमलावर हैं और उनके उम्भा गांव जाने को राजनीतिक स्टंट बता रहे हैं. बीजेपी की ओर से ये भी समझाने की कोशिश की जा रही है कि उम्भा कांड के लिए कांग्रेस की ही पुरानी सरकार जिम्मेदार है. जिस जमीन को लेकर विवाद हुआ है, यूपी की योगी सरकार का कहना है कि वो कांग्रेस की ही सरकार के फैसले का नतीजा है.
ये ऐसा मामला है जिस पर प्रियंका गांधी एक बार यूपी की योगी सरकार और उनके अफसरों को शिकस्त भी दे चुकी हैं. यही वजह है कि इस बार प्रियंका गांधी को किसी ने कहीं रोका नहीं - और पीड़ित परिवार से मिलने के बाद घटनास्थल तक पहुंच गयीं. यूपी पुलिस और प्रशासन के अफसर प्रियंका गांधी के इस दौरे को देखते हुए हाई अलर्ट पर रहे. सत्ताधारी पार्टी की ओर से सिर्फ नेता बयानबाजी करते रहे. यूपी बीजेपी के सारे नेताओं की कोशिश यही रही कि कैसे प्रियंका गांधी के दौरे को महत्वहीन साबित किया जाये.
वैसे योगी सरकार को घेरने के लिएये मुद्दा बड़ा सटीक लगता है. योगी आदित्यनाथ की पुलिस एनकाउंटर तो डंके की चोट पर करती है. अगर बंदूक ने चले तो ठांय-ठांय बोल कर ही काम चलाते हैं लेकिन पीछे नहीं हटते. ऐन उसी वक्त एक विवादित जगह हमलावरों की टीम इकट्ठा होती है और 10 लोगों को घेर कर मौत के घाट उतार देती है - और पुलिस समझाती रहती है की कानून व्यवस्था ठीक है क्योंकि ये संगठित अपराध तो है नहीं.
सबसे दिलचस्प बात ये है कि सिंगूर की तरह तो नहीं लेकिन उम्भा कांड में ममता बनर्जी भी विशेष रुचि ले रही हैं. पिछली बार जिस दिन प्रियंका गांधी सोनभद्र के दौरे पर थीं, ममता बनर्जी ने भी TMC नेताओं की एक टीम मौका मुआयना के लिए भेज दी. योगी सरकार ने प्रियंका गांधी को तो उम्भा के करीब ही रोका, डेरेक ओ-ब्रायन के नेतृत्व में पहुंचे टीएमसी नेताओं को तो बाबतपुर एयरपोर्ट पर ही रोक दिया गया. प्रियंका गांधी ने भी लौटकर को टीएमसी नेताओं से मुलाकात की जिसके बाद पार्टी की तरफ से ट्वीट कर शुक्रिया भी बोला गया.
प्रियंका गांधी के लिए उम्भा का मसला सिंगूर से मिलता जुलता तो है, लेकिन बिलकुल वैसी ही नहीं है. दोनों मामले जमीन पर लोगों के हक से जुड़े हैं, लेकिन सिंगूर आंदोलन एक कॉर्पोरेट घराने के खिलाफ था और उम्भा मौजूदा सरकार के विरुद्ध. टाटा ग्रुप तो सिंगूर पर पीछे हट गया, लेकिन सत्ताधारी बीजेपी तो पीछे हटने से रही.
ये ठीक है कि पिछले दौरे में प्रियंका गांधी योगी सरकार को शिकस्त देने में कामयाब रहीं, लेकिन कांग्रेस नेता को ये भी मालूम होना चाहिये कि योगी आदित्यनाथ की टीम बदला पूरा करने में ज्यादा वक्त नहीं लेती. गोरखपुर, फूलपुर और कैराना उपचुनाव की हार और आम चुनाव में तीनों सीटों पर कब्जा इस बात की मिसाल है.
एक और फर्क है. ये फर्क प्रियंका गांधी वाड्रा होने और ममता बनर्जी के होने का है. ममता बनर्जी जब सिंगूर आंदोलन चला रही थीं तब तक वो लोगों के हक की जमीनी लड़ाई लड़ने के लिए मजबूत नेता के तौर पर जानी जाने लगी थीं. आंदोलनों के साथ साथ ममता बनर्जी को चुनाव जीतने और सरकार में काम करने का भी अनुभव हासिल रहा. प्रियंका गांधी इन सभी मामलों में उनके मुकाबले काफी पीछे हैं. दो लोक सभा सीटों से ज्यादा की कोशिश में प्रियंका पहले ही शिकस्त पा चुकी हैं. प्रियंका के पास अभी सरकार के कामकाज, राजनीतिक मुकाबले की कौन कहे चुनाव लड़ने का भी कोई अनुभव नहीं है. वो राजनीतिक विरोधियों को जबाव जरूर दे लेती हैं लेकिन अक्सर चूक जाती हैं.
प्रियंका को पहले पूर्वी यूपी और अब पूरे उत्तर प्रदेश का प्रभारी बनाया गया है. आम चुनाव में वो कुछ खास नहीं कर पायीं - लेकिन आगे की तैयारियों में जुट गयी हैं. समझा जाता है कि कांग्रेस प्रियंका को यूपी का सीएम चेहरा प्रोजेक्ट करने की रणनीति पर काम कर रही है. वैसे भी प्रियंका को यूपी में पांव जमाने के लिए कहीं भी दो गज जमीन तो चाहिये ही. अमेठी तो हाथ से निकल ही चुका है - और चुनाव नतीजों के बाद गांधी परिवार ने जो रंग दिखाया उसके बाद तो अमेठी से दोबारा कनेक्ट होना मुश्किल ही लग रहा है. राहुल गांधी तो अब अमेठी आने से रहे - अमेठी से हारने और अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद तो वो सिर्फ वायनाड के होकर रह गये हैं - और वो भी बचपन से जुड़े होने का अहसास होने लगा है.
और फिर सियासी भूल कर बैठीं प्रियंका गांधी वाड्रा
आम चुनाव के बाद अमेठी में प्रियंका गांधी ने एक ऐसी बात कह दी कि कांग्रेस की यूपी में वोटकटवा के रूप में चर्चा होने लगी, जिस पर फिर से बयान देकर स्थिति स्पष्ट करनी पड़ी थी. प्रियंका गांधी सोनभद्र पहुंच कर एक बार फिर वैसी ही गलती दोहरा दी है.
जैसे ही प्रियंका गांधी बाबतपुर हवाई अड्डे के वीआईपी गेट से बाहर निकलीं, कांग्रेस के तमाम नेता स्वागत में पहले से खड़े थे. मीडिया के लोग भी प्रियंका गांधी की प्रतिक्रिया के लिए पहले से ही पहुंचे हुए थे. संवाददाताओं के बातचीत की हर कोशिश को ठुकराते हुए चुपचाप निकल गयीं. कुछ ही देर में कांग्रेस नेताओं के साथ प्रियंका गांधी का काफिला सोनभद्र की सड़क पर रफ्तार भरने लगा.
जब प्रियंका गांधी सोनभद्र में मीडिया से मुखातिब हुईं तो उम्भा के मुद्दे को जोर शोर से उठाया भी - लेकिन फिर वो वही साउंडबाइट दे बैठीं जिसका पत्रकारों को इंतजार था - जम्मू-कश्मीर में धारा 370 खत्म किये जाने को लेकर.
जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाने पर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा की पहली टिप्पणी रही, 'ये असंवैधानिक है.' वायनाड से सांसद और प्रियंका गांधी के भाई राहुल गांधी ने भी ऐसी ही प्रतिक्रिया दी थी - 'केंद्र सरकार ने जो फैसला लिया है, वो संविधान का उल्लंघन है और इस फैसले से राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरा हो सकता है.'
प्रियंका गांधी एक बेहद संवेदनशील मसले को लेकर सोनभद्र के दौरे पर दोबारा पहुंची थीं, लेकिन धारा 370 और पर बयान देकर सब चौपट कर दिया. प्रियंका के कश्मीर पर बयान देते ही वो सुर्खियों का हिस्सा बन गया और सोनभद्र का मामला कहीं पीछे छूट गया.
प्रियंका गांधी को सोनभद्र में राजनीतिक सूझ बूझ दिखानी चाहिये थी. प्रियंका गांधी के सामने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह पर हमले के तमाम मौके आगे भी मिलते ही - लेकिन वो चूक गयीं. प्रियंका गांधी ने जो सूझ बूझ अपने पहले दौरे में दिखायी थी, वो सब एक झटके में गंवा दिया.
अच्छा तो यही होता कि प्रियंका गांधी सिर्फ उम्भा पर बात करतीं. ज्यादा से ज्यादा यूपी में कानून व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तो टारगेट करतीं. जैसे वो बीते दिनों में भी ट्विटर के जरिये या फिर बयान जारी कर करती रही हैं. धारा 370 पर बयान देने के लिए तो राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस के तमाम प्रवक्ता मोर्चे पर डटे ही हुए हैं - और अब तो सोनिया गांधी भी फिर से मैदान में उतर चुकी हैं.
बस यही वो बात है जहां प्रियंका वाड्रा से भारी सियासी चूक हो गयी. सोनभद्र का उम्भा गांव बहुत पीछे छूट गया. अब सब लोग प्रियंका गांधी की कश्मीर पर राय जानेंगे - ये समझना भी मुश्किल है कि जब कश्मीर की ही बात करनी थी तो सोनभद्र जाने की जरूरत ही क्या थी?
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