लोकसभा चुनाव के संग्राम में कांग्रेस की तरफ से दो बातें एक साथ हुई थीं. पहले प्रियंका वाड्रा सियासत में आईं और उसके साथ ही ट्विटर पर भी. सियासत में आने के पहले एक हफ्ते तक, प्रियंका ने न तो किसी सभा में कुछ कहा, न ट्विटर पर. लेकिन वह टीवी पर लगातार नमूदार होती रही.
उत्तर प्रदेश के चुनावी परिदृश्य में दिलचस्पी लेने वालों के लिए यह माहौल अच्छा ही कहा जाएगा. कुछ लोग लगातार कह रहे हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में प्रियंका वाड्रा के औपचारिक तौर पर राजनीति में प्रवेश ने न केवल राज्य कांग्रेस में नई जान फूंक दी है, बल्कि 2019 के चुनावी परिदृश्य को भी अचानक बदल दिया है. दिल्ली के सिंहासन पर कौन बैठेगा यह अक्सर उत्तर प्रदेश तय करता है. (यह असल में एक बड़ा भ्रम भी है. सांख्यिकीय सुबूत इसकी तस्दीक करते हैं. पर उसकी बात बाद में) अब जानकार यूपी में भाजपा और समाजवादी पार्टी (सपा)-बहुजन समाज पार्टी (बसपा) गठबंधन के अलावा प्रियंका के नेतृत्व में तीसरी ताकत के रूप में उभर रही कांग्रेस के बीच, कांटे की त्रिकोणीय टक्कर होने की उम्मीद कर रहे हैं.
पर यकीन मानिए यह प्रियंका के लिए अग्निपरीक्षा की घड़ी है क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में, उन्हें प्रधानमंत्री मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, दोनों की संयुक्त क्षमता को चुनौती देनी होगी. दरअसल, प्रधानमंत्री की सीट वाराणसी और योगी का गढ़ गोरखपुर भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही पड़ता है. यही वजह है कि दिल्ली के जीसस ऐंड मेरी कॉलेज से पढ़ी मनोविज्ञान की स्नातक प्रियंका को- चुनाव से ठीक 100 दिन पहले इस क्षेत्र का प्रभार सौंपा गया.
पूर्वी यूपी में अवध,...
लोकसभा चुनाव के संग्राम में कांग्रेस की तरफ से दो बातें एक साथ हुई थीं. पहले प्रियंका वाड्रा सियासत में आईं और उसके साथ ही ट्विटर पर भी. सियासत में आने के पहले एक हफ्ते तक, प्रियंका ने न तो किसी सभा में कुछ कहा, न ट्विटर पर. लेकिन वह टीवी पर लगातार नमूदार होती रही.
उत्तर प्रदेश के चुनावी परिदृश्य में दिलचस्पी लेने वालों के लिए यह माहौल अच्छा ही कहा जाएगा. कुछ लोग लगातार कह रहे हैं कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में प्रियंका वाड्रा के औपचारिक तौर पर राजनीति में प्रवेश ने न केवल राज्य कांग्रेस में नई जान फूंक दी है, बल्कि 2019 के चुनावी परिदृश्य को भी अचानक बदल दिया है. दिल्ली के सिंहासन पर कौन बैठेगा यह अक्सर उत्तर प्रदेश तय करता है. (यह असल में एक बड़ा भ्रम भी है. सांख्यिकीय सुबूत इसकी तस्दीक करते हैं. पर उसकी बात बाद में) अब जानकार यूपी में भाजपा और समाजवादी पार्टी (सपा)-बहुजन समाज पार्टी (बसपा) गठबंधन के अलावा प्रियंका के नेतृत्व में तीसरी ताकत के रूप में उभर रही कांग्रेस के बीच, कांटे की त्रिकोणीय टक्कर होने की उम्मीद कर रहे हैं.
पर यकीन मानिए यह प्रियंका के लिए अग्निपरीक्षा की घड़ी है क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में, उन्हें प्रधानमंत्री मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, दोनों की संयुक्त क्षमता को चुनौती देनी होगी. दरअसल, प्रधानमंत्री की सीट वाराणसी और योगी का गढ़ गोरखपुर भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही पड़ता है. यही वजह है कि दिल्ली के जीसस ऐंड मेरी कॉलेज से पढ़ी मनोविज्ञान की स्नातक प्रियंका को- चुनाव से ठीक 100 दिन पहले इस क्षेत्र का प्रभार सौंपा गया.
पूर्वी यूपी में अवध, पूर्वांचल और निचले दोआब शामिल हैं और यहां से 40 लोकसभा सीटें हैं. 2009 में जब कांग्रेस ने यूपी से 21 सीटें जीतीं थी जो 1984 के बाद पार्टी को इस प्रदेश से मिली सबसे ज्यादा सीटें थीं. इन 21 में से 18 सीटें पूर्वी उत्तर प्रदेश से थीं. गौरतलब यह भी है कि 2014 के चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन सबसे खराब रहा, फिर भी अवध में इसे 17.8 फीसदी वोट मिले थे.
पर प्रियंका के लिए पहली चुनौती तो पूरे सूबे में कांग्रेस के कमजोर संगठन को मजबूती देनी रही है. चैन से बैठकर वाकई कांग्रेस कुछ कर नहीं पाएगी, लेकिन बेचैन होकर भी वो जो हासिल करना चाहती हैं उसे हासिल करना इतना आसान नहीं होगा. सबसे बड़ी मुश्किल तो कमजोर संगठन है. 1989 में जब कांग्रेस सत्ता से गई तो क्षेत्रीय दलों के उभार में उसका पूरा संगठन ध्वस्त हो गया. चुनाव दर चुनाव कार्यकर्ता सपा-बसपा की ओर मुड़ते चले गए. किसी बड़े मुद्दे पर कांग्रेस की मौजूदगी उत्तर प्रदेश में न के बराबर रह गई है. 2017 के विधानसभा चुनाव में अपनी हैसियत कांग्रेस देख ही चुकी है. ऐसे में प्रियंका से उम्मीद करना कि वे यूपी में इसी लोकसभा चुनाव में कुछ चमत्कारिक रूप से कुछ अलहदा नतीजे दे पाएंगी, थोड़ी जल्दबाजी होगी. पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस 105 सीटों पर लड़ी थी. 403 सदस्यों की विधानसभा में उसे जीत मिली केवल 7 पर.
जातीय समीकरण के गणित में फंसेगा पेच
इस बार प्रियंका का उत्तर प्रदेश की सियासत में पदार्पण भाजपा के नजरिए से भी बेहतर ही प्रतीत हो रहा है. पर सवाल है कि आखिर मुस्लिम वोट किस तरफ जाएगा. बसपा सोच रही है कि दलित और दलितों में भी खासकर जाटव और पिछड़ों में यादव के साथ अगर मुस्लिम आ जाए तो बेड़ा पार. उधर सपा का ब्लूप्रिंट है कि जाटव और यादव के साथ मुस्लिम आ जाए तो जीत पक्की. लेकिन गठबंधन के इन दोनों धड़ों को ये फिक्र खाए जा रही है कि कहीं देश स्तर पर मुस्लिम वोटों ने एकतरफा कांग्रेस में जाने का फैसला कर लिया तो सारा गणित फेल हो जाएगा. देवबंद में मायावती ने तो खुलेआम कह दिया कि मुसलमान किसी और को वोट न करें. असल में मायावती की असली परेशानी कांग्रेस ही है. क्योंकि उसी की जमीन हासिल करके मायावती और बसपा का कद इतना बड़ा हुआ है. अब मायावती को मिलने वाला मुसलमान वोट अगर बंटकर कांग्रेस की तरफ आंशिक रूप से भी गया तो फायदा किसको होगा? जाहिर है, भाजपा को.
तो मतदाता क्या सोचता है?
राज्य विधानसभा और लोकसभा चुनावों में वोटिंग पैटर्न एकदम जुदा होता है और उत्तर प्रदेश की सियासत किसी भी सूबे से एकदम अलहदा है. यहां कानून व्यवस्था के नाम पर सख्त शासन चलाने वाली मायावती सरकार की तारीफों के नारे लगाने वाली जनता 2012 में बसपा को 212 सीटों से सीधे 80 तक पहुंचाती है और काम बोलता है का नारा बुलंद करने वाली अखिलेश सरकार 2017 में तकरीबन 224 सीटों से भरभराकर पचासा भी नहीं लगा पाती.
लेकिन जब लोकसभा का चुनाव आता है तो बसपा सिफ़र हो जाती है, सपा पांच पर सिमट जाती है, कांग्रेस में टॉप दो, यानी सोनिया राहुल के अलावा बाकी फिस्स हो जाते हैं. भारतीय जनता पार्टी 73 सीटों पर परचम लहराती है. कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कुछ दिन पहले ही जिस जनता ने भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनावों में 325 सीटें सौंप दी थीं वही जनता सरकार के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ढाई दशक पुरानी सीट छीन लेती है. उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या की सीट फूलपुर से भाजपा बेदखल हो जाती है और पलायन के नाम पर बदनाम कैराना से भाजपा के पैर उखड़ जाते हैं.
बहरहाल, प्रियंका के आने से मुसलमान मतदाता बंट सकते हैं. प्रदेश की कुल आबादी का 19 फीसदी मुसलमान हैं और वे फिलहाल सपा-बसपा गठबंधन के पक्ष में खड़े हैं. मुसलमान सपा का समर्थन करना चाहते हैं पर बसपा को लेकर उनके मन में असमंजस है क्योंकि मायावती के नेतृत्व वाली पार्टी के पास एक भी मजबूत मुसलमान नेता नहीं है. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद, बसपा के मुस्लिम चेहरा और पार्टी के पूर्व महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. पिछले डेढ़ वर्षों में, बसपा के 50 से अधिक प्रमुख मुसलमान नेता कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. सपा के मुसलमान चेहरे, रामपुर के विधायक आजम खान पहले ही कांग्रेस से गठबंधन करके वोटों को बंटने से रोकने को कह चुके हैं.
पर पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राह में क्या दुश्वारियां हैं?
पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राह में दुश्वारियां नहीं हैं, बोल्डर हैं. पूर्वी उत्तर प्रदेश की 41 सीटो का जायजा लिया जाए तो इनमें 26 सीटें तो ऐसी हैं जहां 2014 के आम चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी को 50 हजार से कम वोट मिले हैं. 6 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस को 50 हजार से अधिक लेकिन 1 लाख से कम वोट मिले. जबकि एक लाख से अधिक वोट पाने वाली सीटों की संख्या 10 है जिनमें अमेठी और रायबरेली जैसी पुश्तैनी सीटें भी शामिल हैं.
जरा नजर डालिए उन सीटों पर जहां लोकसभा चुनाव, 2014 में कांग्रेस को 1 लाख से अधिक वोट मिले. इलाहाबाद में कांग्रेस को कुल 1.02 लाख, कुशीनगर में 2.84 लाख, मिर्जापुर 1.5 लाख, प्रतापगढ़ः 1.38 लाख, फैजाबाद 1.29 लाख, गोंडा में 1.02 लाख, उन्नाव में 1.97 लाख, रायबरेली में 5.26 लाख, अमेठी में 4.08 लाख और लखनऊ में 2.88 लाख वोट मिले थे.
पूर्वी उत्तर प्रदेश में 6 सीटें ऐसी थीं जहां 2014 में कांग्रेस को 50,000 से 1 लाख के बीच वोट मिले थे. इनमें रॉबर्ट्सगंज, वाराणसी, डुमरियागंज, फूलपूर, कैसरगंज और मोहनलालगंज शामिल हैं.
लेकिन पूर्वी उत्तर प्रदेश की 40 सीटों में से 24 ऐसी लोकसभा सीटें रहीं जहां कांग्रेस को 50,000 से कम वोट मिले थे. इनमें बलिया, गाजीपुर, देवरिया, चंदौली, घोसी, सलेमपुर, बांसगांव, महाराजगंज, मछलीशहर, लालगंज, आजमगढ़, संत कबीर नगर, गोरखपुर, बस्ती, आंबेडकरनगर, जौनपुर, भदोही, बांदा, कौशाम्बी, सुल्तानपुर, श्रावस्ती, बहराइच, सीतापुर, फतेहपुर जैसी सीटें हैं.
देखना यह है कि प्रियंका वाड्रा इनमें से कितनी सीटों पर बढ़त बना पाती हैं. 50 हजार से कम सीटों पर तो कांग्रेस को बढ़त दिलाने के लिए वाक़ई लहर और जादू की जरूरत होगी. 1 लाख तक के वोटों वाली 6 सीटें भी तकरीबन वैसी ही हैं. पर लखनऊ और कुशीनगर सीटें ही ऐसी हैं जहां स्विंग वोट कांग्रेस के लिए जीत की बायस बन सकते हैं. पर क्या ऐसा वाक़ई होगा?
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