सियासत में प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) के पदार्पण से कई विश्लेषकों की बांछें खिल गई थीं. कांग्रेस ने उन्हें पूर्वी उत्तर प्रदेश की कमान दी थी, जहां 40 सीटें हैं. प्रियंका वाड्रा सियासत में आईं और उसके साथ ही ट्विटर पर भी नमूदार हुईं. प्रियंका ने अपने शुरुआती सियासी दौर में (समझिए पहले हफ्ते) न तो किसी सभा में कुछ कहा था, न ट्विटर पर. पर वह टीवी पर लगातार नमूदार हो रही थीं. उत्तर प्रदेश के चुनावी परिदृश्य में दिलचस्पी लेने वालों के लिए यह माहौल अच्छा ही था. कुछ लोगों को उम्मीद थी कि पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में प्रियंका वाड्रा का औपचारिक तौर पर राजनीति में प्रवेश न केवल राज्य कांग्रेस में नई जान फूंक देगा, बल्कि 2019 के चुनावी परिदृश्य को भी अचानक बदल देगा. दिल्ली के सिंहासन पर कौन बैठेगा यह अक्सर उत्तर प्रदेश तय करता है. जानकार यूपी में भाजपा और समाजवादी पार्टी (सपा)-बहुजन समाज पार्टी (बसपा) गठबंधन के अलावा प्रियंका के नेतृत्व में तीसरी ताकत के रूप में उभर रही कांग्रेस के बीच, कांटे की त्रिकोणीय टक्कर होने की उम्मीद भी कर रहे थे.
पर नतीजों ने इन उम्मीदों पर पानी फेर दिया. और यह पानी ऐसा फिरा कि पूर्वी उत्तर प्रदेश में से कांग्रेस के पास रही अमेठी सीट भी नकल गई. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी भी स्मृति ईरानी के हाथों हार गए.
बेशक, यह चुनाव प्रियंका के लिए अग्निपरीक्षा थे, क्योंकि पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रभारी के रूप में, उन्हें प्रधानमंत्री मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, दोनों की संयुक्त क्षमता को चुनौती देनी थी. दरअसल, प्रधानमंत्री की सीट वाराणसी और योगी का गढ़ गोरखपुर भी पूर्वी उत्तर प्रदेश में ही पड़ता है. यही वजह है कि दिल्ली के जीसस ऐंड मेरी कॉलेज से पढ़ी मनोविज्ञान की स्नातक प्रियंका को चुनाव से ठीक 100 दिन पहले इस क्षेत्र का प्रभार सौंपा गया था.
यह चुनाव प्रियंका गांधी के लिए अग्निपरीक्षा थे
पूर्वी यूपी में अवध, पूर्वांचल और निचले दोआब शामिल हैं और यहां से 40 लोकसभा सीटें हैं. 2009 में जब कांग्रेस ने यूपी से 21 सीटें जीतीं थी जो 1984 के बाद पार्टी को इस प्रदेश से मिली सबसे ज्यादा सीटें थीं. इन 21 में से 18 सीटें पूर्वी उत्तर प्रदेश से थीं. गौरतलब यह भी है कि 2014 के चुनाव में पार्टी का प्रदर्शन सबसे खराब रहा, फिर भी अवध में इसे 17.8 प्रतिशत वोट मिले थे.
पर प्रियंका के लिए पहली चुनौती तो पूरे सूबे में कांग्रेस के कमजोर संगठन को मजबूती देना थी. यह तय था कि चैन से बैठकर वाकई कांग्रेस कुछ कर नहीं पाती, लेकिन बेचैन होकर भी वो जो हासिल करना चाहती थी उसे हासिल करना इतना आसान नहीं था. कांग्रेस की सबसे बड़ी मुश्किल तो कमजोर संगठन है. 1989 में जब कांग्रेस सत्ता से गई तो क्षेत्रीय दलों के उभार में उसका पूरा संगठन ध्वस्त हो गया. चुनाव दर चुनाव कार्यकर्ता सपा-बसपा की ओर मुड़ते चले गए. किसी बड़े मुद्दे पर कांग्रेस की मौजूदगी उत्तर प्रदेश में न के बराबर रह गई. 2017 के विधानसभा चुनाव में अपनी हैसियत कांग्रेस देख ही चुकी है. ऐसे में प्रियंका से उम्मीद करना कि वे यूपी में इसी लोकसभा चुनाव में चमत्कारिक रूप से कुछ अलहदा नतीजे दे पाएंगी, थोड़ा अन्याय ही था. पिछले चुनाव में समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर कांग्रेस 105 सीटों पर लड़ी थी. 403 सदस्यों की विधानसभा में उसे जीत मिली थी केवल 7 पर.
जातीय समीकरण बनाम भगवा उभार के गणित में फंस गया पेच
इस बार प्रियंका का उत्तर प्रदेश की सियासत में पदार्पण भाजपा के नजरिए से भी बेहतर ही प्रतीत हो रहा है. चुनावों से पहले लाख टके का सवाल था कि आखिर मुस्लिम वोट किस तरफ जाएगा. बसपा सोच रही थी कि दलित और दलितों में भी खासकर जाटव और पिछड़ों में यादव के साथ अगर मुस्लिम आ जाए तो बेड़ा पार. उधर सपा का ब्लूप्रिंट था कि जाटव और यादव के साथ मुस्लिम आ जाए तो जीत पक्की. मायावती ने मुस्लिमों को वोट देने की अपील भी कर दी पर इससे मामला उलट गया.
तो मतदाता के मन में क्या था?
राज्य विधानसभा और लोकसभा चुनावों में वोटिंग पैटर्न एकदम जुदा होता है और उत्तर प्रदेश की सियासत किसी भी सूबे से एकदम अलहदा है. यहां कानून व्यवस्था के नाम पर सख्त शासन चलाने वाली मायावती सरकार की तारीफों के नारे लगाने वाली जनता 2012 में बसपा को 212 सीटों से सीधे 80 तक पहुंचाती है और काम बोलता है का नारा बुलंद करने वाली अखिलेश सरकार 2017 में तकरीबन 224 सीटों से भरभराकर पचासा भी नहीं लगा पाती.
यूपी में कांग्रेस को अपनी जमीनी स्थिति का भान नहीं था
लेकिन जब 2014 में लोकसभा का चुनाव आता है तो बसपा सिफर हो जाती है, सपा पांच पर सिमट जाती है, कांग्रेस में टॉप दो, यानी सोनिया राहुल के अलावा बाकी फिस्स हो जाते हैं. भारतीय जनता पार्टी 73 सीटों पर परचम लहराती है. कहानी यहीं खत्म नहीं होती. कुछ दिन पहले ही जिस जनता ने भारतीय जनता पार्टी को विधानसभा चुनावों में 325 सीटें सौंप दी थीं वही जनता सरकार के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की ढाई दशक पुरानी सीट छीन लेती है. उपमुख्यमंत्री केशव मौर्या की सीट फूलपुर से भाजपा बेदखल हो जाती है और पलायन के नाम पर बदनाम कैराना से भाजपा के पैर उखड़ जाते हैं. पर वो कहानी 2014 की थी. 2019 में उत्तर प्रदेश एक दफा फिर से दिल्ली की गद्दी की तरफ जाने का रास्ते को मोदी के लिए पुख्ता बना देता है. खबर लिखे जाने तक यूपी में भाजपा 62 सीटों पर आगे थी. कांग्रेस सिर्फ यूपीए अध्यक्षा सोनिया गांधी वाली सीट पर सिमट गया था और अमेठी का राहुल का किला स्मृति ईरानी ने फतह कर लिया था. जिस सपा-बसपा गठबंधन के पक्ष में राजनैतिक पंडित अंकगणित का हवाला दे रहे थे, वहां भाजपा का बीजगणित काम आया.
शुरू में लगा कि प्रियंका के आने से मुसलमान मतदाता बंट सकते हैं. प्रदेश की कुल आबादी का 19 प्रतिशत मुसलमान हैं और वे फिलहाल सपा-बसपा गठबंधन के पक्ष में खड़े दिख रहे थे. असल में, मुसलमान सपा का समर्थन करना चाहते थे पर बसपा को लेकर उनके मन में असमंजस रहा क्योंकि मायावती के नेतृत्व वाली पार्टी के पास एक भी मजबूत मुसलमान नेता नहीं है. 2017 के विधानसभा चुनाव के बाद, बसपा के मुस्लिम चेहरा और पार्टी के पूर्व महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी कांग्रेस में शामिल हो गए थे. पिछले डेढ़ वर्षों में, बसपा के 50 से अधिक प्रमुख मुसलमान नेता कांग्रेस में शामिल हो गए हैं. सपा के मुसलमान चेहरे, रामपुर के विधायक आजम खान पहले ही कांग्रेस से गठबंधन करके वोटों को बंटने से रोकने को कह चुके थे. पर जाहिर है, सपा और बसपा की जातीय समीकरणों वाली सियासत का रॉकेट इग्निशन हासिल नहीं कर सका और 17 सीटों पर ही सिमट गया. अखिलेश के दोनों प्रयोग नाकाम साबित हुए. कांग्रेस का साथ यूपी के लड़के वाला विधानसभाई नारा चला नहीं और बुआ-बबुआ का समीकरण कम से कम भाजपा को नुक्सान नहीं पहुंचा सका.
कांग्रेस कैसे बनी वोटकटवा?
कांग्रेस की तरफ से प्रियंका वाड्रा के चुनाव प्रचार के मैदान में उतरने से राजनैतिक टीकाकारों को लगा कि कांग्रेस सवर्णों का वोट काटकर भाजपा का नुक्सान करेगी पर यह दांव उल्टा पड़ गया. लोगों के मन में था कि कांग्रेस के अकेले मैदान में उतरने की पीछे उसका सपा-बसपा के साथ कोई रणनीतिक गठजोड़ है. पर यह गठजोड़ या तो बिना रिसर्च के बनाया गया था या फिर यूपी में कांग्रेस को अपनी जमीनी स्थिति का भान नहीं था. सपा-बसपा और कांग्रेस तीनों की जातीय समीकरणों में हद से अधिक भरोसा था और उन्हें यह भी लगा कि 2014 में मिले वोट प्रतिशत उन्हें जस का तस हासिल होंगे और एक-दूसरे को सौ फीसदी ट्रांसफर भी होंगे.
यूपी की 16 सीटों पर कांग्रेस को 50 हजार से कम वोट मिले हैं
बदायूं, बलिया, बांदा, बाराबांकी, बस्ती, भदोही, बिजनौर, सुल्तानपुर, संत कबीर नगर, धरौरा, चंदौली समेत कम से कम 24 सीटें ऐसी थीं जहां भाजपा ने जिस अंतर से सपा-बसपा गठबंधन के उम्मीदवार को हराया है उससे अधिक कांग्रेस या उसके छोटे सहयोगी हासिल कर ले गए हैं. मिसाल के तौर पर, बदायूं में भाजपा और सपा के बीच जीत का अंतर 21,000 वोट का है और कांग्रेस ने वहां 51,000 वोट हासिल किए हैं. इसी तरह बलिया में जीत का अंतर सिर्फ 19,000, बस्ती में 31,000 संत कबीर नगर में मात्र 36,000 का है. इन सभी जगह कांग्रेस ने इस अंतर से दोगुना-तिगुना वोट हासिल किया है. जाहिर है, अगर कांग्रेस सपा-बसपा गठबंधन में शामिल की जाती, तो यूपी में चुनावी तस्वीर में से भगवा रंग थोड़ा उतर गया होता.
पूर्वी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की राह में क्या थीं दुश्वारियां?
दुश्वारियां नहीं, बोल्डर थे और निकट भविष्य में भी रहेंगे. पूर्वी उत्तर प्रदेश की 41 सीटों का जायजा लिया जाए तो इनमें 16 सीटें तो ऐसी हैं जहां 2019 के आम चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी को 50 हजार से कम वोट मिले हैं. 12 लोकसभा सीटें ऐसी हैं जहां कांग्रेस को 50 हजार से अधिक लेकिन 1 लाख से कम वोट मिले. जबकि एक लाख से अधिक वोट पाने वाली सीटों की संख्या 7 है जिनमें अमेठी और रायबरेली जैसी पुश्तैनी सीटें भी शामिल हैं. इस सूची में कांग्रेस के साथ लड़ रही सहयोगी पार्टियों का शामिल नहीं किया गया है.
तालिका 1: सीटें जहां कांग्रेस को 1 लाख से अधिक वोट मिले (लोकसभा चुनाव, 2019)
कुशीनगर, उन्नाव, रायबरेली, अमेठी, लखनऊ, वाराणसी, संत कबीर नगर.
तालिका 2: सीटें जहां कांग्रेस को 50,000 से 1 लाख के बीच वोट मिले (लोकसभा चुनाव, 2019)
मिर्जापुर, प्रतापगढ़, फैजाबाद, डुमरियागंज, मोहनलालगंज, देवरिया, महाराजगंज, बस्ती, बांदा, श्रावस्ती, सीतापुर, फतेहपुर.
तालिका 3: पूर्वी उत्तर प्रदेश की सीटें जहां कांग्रेस 50,000 से कम वोट मिले (लोकसभा चुनाव, 2019)
इलाहाबाद, गोंडा, रॉबर्ट्सगंज, फूलपुर, कैसरगंज, बलिया, गाजीपुर, घोसी, सलेमपुर, लालगंज, गोरखपुर, जौनपुर, भदोही, कौशाम्बी, सुल्तानपुर, बहराइच.
2014 में पूर्वी उत्तर प्रदेश की इन्हीं 40 सीटों में कांग्रेस को 10 सीटों पर एक लाख से अधिक, 6 सीटों पर 50,000 से एक लाख के बीच और 24 सीटों पर 50,000 से कम वोट मिले थे. इस बार भी स्थिति कुछ अलहदा नहीं है. बल्कि जिन दो सीटों अमेठी और रायबरेली पर कांग्रेस का कब्जा था उनमें से अमेठी भी कांग्रेस के हाथ से चली गई. ऐसे में प्रियंका गांधी को लेकर एक ही कहावत याद आ रही हैः बंद मुट्ठी खाक की, खुल गई तो खाक की.
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