पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी मामले में खाड़ी देशों की ओर से आपत्ति जताई गई है. और, इस लिस्ट में अफगानिस्तान की तालिबान सरकार का भी नाम जुड़ गया है. तालिबान ने नूपुर शर्मा के मामले में भारत को 'कट्टरपंथियों' पर लेक्चर दिया है. तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा है कि हम भारत सरकार से आग्रह करते हैं कि 'इस तरह के कट्टरपंथियों को पवित्र मजहब इस्लाम का अपमान करने और मुसलमानों की भावनाओं को भड़काने की इजाजत न दें.' पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी मामले में कई खाड़ी देशों ने तो भारत से 'सार्वजनिक रूप' से माफी मांगने तक की बात कही है. कहना गलत नहीं होगा कि तालिबान और अरब दुनिया ने जो किया सही किया, अपने धर्म के लिए ऐसा करना ही चाहिए.
धर्म-निरपेक्षता की 'सेक्रेड गोट' है भारत
दरअसल, भारत धर्म-निरपेक्षता की वो बकरी है, जो कटने के लिए ही बनी है. भारत में खुलेआम सोशल मीडिया पर शिवलिंग का मजाक बनाना देश का अंदरुनी मामला है, कश्मीर में हिंदुओं को चुन-चुनकर आतंकियों द्वारा निशाना बनाना भी देश का अंदरूनी मामला है. लेकिन, एक हदीस को जस का तस कोट कर देना पूरी मुस्लिम दुनिया के लिए ईशनिंदा है, क्योंकि वह एक काफिर ने की है. अब काफिर क्या होता है, इसके बारे में ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है. केवल इतना जान लीजिए कि इस्लाम को ना मानने वाले सभी लोग काफिर ही होते हैं. खैर, पैगंबर मोहम्मद को लेकर टिप्पणी मामले में बवाल काटने वाले तालिबान और अरब देशों ने क्या ये वजह बताई है कि किस कारण से ये हदीस अभी भी मौजूद है.
इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या ही होगा कि बहुलतावादी भारत को उन देशों से नसीहत मिल रही हैं, जहां अल्पसंख्यकों के अधिकार दोयम...
पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी मामले में खाड़ी देशों की ओर से आपत्ति जताई गई है. और, इस लिस्ट में अफगानिस्तान की तालिबान सरकार का भी नाम जुड़ गया है. तालिबान ने नूपुर शर्मा के मामले में भारत को 'कट्टरपंथियों' पर लेक्चर दिया है. तालिबान के प्रवक्ता जबीउल्लाह मुजाहिद ने कहा है कि हम भारत सरकार से आग्रह करते हैं कि 'इस तरह के कट्टरपंथियों को पवित्र मजहब इस्लाम का अपमान करने और मुसलमानों की भावनाओं को भड़काने की इजाजत न दें.' पैगंबर मोहम्मद पर टिप्पणी मामले में कई खाड़ी देशों ने तो भारत से 'सार्वजनिक रूप' से माफी मांगने तक की बात कही है. कहना गलत नहीं होगा कि तालिबान और अरब दुनिया ने जो किया सही किया, अपने धर्म के लिए ऐसा करना ही चाहिए.
धर्म-निरपेक्षता की 'सेक्रेड गोट' है भारत
दरअसल, भारत धर्म-निरपेक्षता की वो बकरी है, जो कटने के लिए ही बनी है. भारत में खुलेआम सोशल मीडिया पर शिवलिंग का मजाक बनाना देश का अंदरुनी मामला है, कश्मीर में हिंदुओं को चुन-चुनकर आतंकियों द्वारा निशाना बनाना भी देश का अंदरूनी मामला है. लेकिन, एक हदीस को जस का तस कोट कर देना पूरी मुस्लिम दुनिया के लिए ईशनिंदा है, क्योंकि वह एक काफिर ने की है. अब काफिर क्या होता है, इसके बारे में ज्यादा बताने की जरूरत नहीं है. केवल इतना जान लीजिए कि इस्लाम को ना मानने वाले सभी लोग काफिर ही होते हैं. खैर, पैगंबर मोहम्मद को लेकर टिप्पणी मामले में बवाल काटने वाले तालिबान और अरब देशों ने क्या ये वजह बताई है कि किस कारण से ये हदीस अभी भी मौजूद है.
इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या ही होगा कि बहुलतावादी भारत को उन देशों से नसीहत मिल रही हैं, जहां अल्पसंख्यकों के अधिकार दोयम दर्जे के नागरिकों से भी बदतर हैं. जिस भारत में मुस्लिम समाज सर्वोच्च ओहदे तक पर जाने के लिए स्वतंत्र हों. उससे धर्म-निरपेक्षता पर टिके रहने के लिए इस्लामिक देशों की ओर से दबाव डाला जाता है. लेकिन, शिवलिंग का मजाक उड़ा रहे मुस्लिम नेताओं से लेकर मौलानाओं तक पर ये इस्लामिक देश चुप्पी साधे रहते हैं. हर आतंकी घटना में मुस्लिम समुदाय का नाम आने पर इनकी ओर से कुछ नहीं कहा जाता है. यही इस्लामिक देश चीन में ऊइगर मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों के मामले पर मुंह घुमाकर दूसरी ओर खड़े हो जाते हैं.
तालिबान की ओर से भारत को दी गई नसीहत को विडंबना ही कहा जाएगा. क्योंकि, ऐसा देश जो पूरी तरह से इस्लामिक कानूनों के हिसाब से शासन-प्रशासन चलाता हो. अल्पसंख्यकों के अधिकारों की बात छोड़िए, अपने ही मजहब की महिलाओं पर क्रूरता की पराकाष्ठाओं को पार कर चुका हो. लोकतंत्र के नाम की चिड़िया जहां दशकों पहले रेगिस्तान में दफन कर दी गई हो. जब वो तालिबान नैतिकता का पाठ पढ़ाए. तो, कहा जा सकता है कि तालिबान और अरब दुनिया ने जो किया सही किया, अपने धर्म के लिए ऐसा करना ही चाहिए.
रिलीजन और मजहब में 'वर्चस्व' की जंग
पश्चिमी देशों की बात हो या अरब देशों की. आबादी के लिहाज से दो सबसे बड़े धर्मों - ईसाई और इस्लाम के बीच चल रही 'वर्चस्व' की जंग किसी से छिपी नहीं है. अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों में धर्म-निरपेक्षता को किनारे रखते हुए राष्ट्राध्यक्ष अपने पद के लिए बाइबिल की शपथ लेता है. 'व्हाइट सुप्रीमेसी' यानी नस्ल के आधार पर वरीयता को अपनाने वाले ये तमाम पश्चिमी देश आतंकवाद यानी इस्लाम के साथ अपनी जंग का परोक्ष रूप से प्रदर्शन करते रहे हैं. क्योंकि, पश्चिमी देशों का सैन्य संगठन नाटो किसी भी तरह से खाड़ी देशों पर अपना रसूख कायम करने की कोशिश में हमेशा से ही रहा है. 2011 में अरब स्प्रिंग के दौरान पश्चिमी देशों के हितों को ध्यान में रखते हुए चलाया गया नाटो का एजेंडा किसी से छिपा नहीं है. बहरीन, यमन, मिस्त्र जैसे देशों को आखिर नाटो का समर्थन क्यों था? जबकि, लीबिया और ईरान में नाटो ने तानाशाहों के खिलाफ तख्तापलट तक करवा दिया.
अरब देशों की बात करें, तो 1969 में ही इस्लामिक सहयोग संगठन नाम का एक मंच बना लिया गया था. जो पूरी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी यानी मुस्लिमों का नेतृत्व करने की बात करता है. अरब मुल्कों के साथ दुनिया के 57 इस्लामिक देश फिलहाल इस संगठन में हैं. इस संगठन का एक ही काम है कि दुनिया के किसी भी हिस्से में मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचारों पर अपनी राय रखना. लेकिन, अफगानिस्तान में महिलाओं के खिलाफ हो रहे अत्याचार, क्योंकि इस्लाम सम्मत हैं. तो, इस संगठन के मुंह से आवाज नहीं निकलती है. इस्लामिक आतंकियों के पनाह देने और इस्लामिक आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले देशों पर अरब देशों के होंठ सिल जाते हैं. पश्चिमी देशों पर भी इस्लामिक सहयोग संगठन एक हद तक ही मुखर नजर आता है. यहां तक कि इस्लामिक आतंकियों के निशाने पर भी लंबे समय से पश्चिमी देश रहे हैं.
कुछ दिनों पहले ही भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर का एक बयान सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुआ था. जिसमें एस जयशंकर कहते हैं कि 'भारत दुनिया की आबादी का पांचवां हिस्सा है. दुनिया की पांचवीं या छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है. और, उसे अपने हित चुनने का अधिकार है.' विदेश मंत्री जयशंकर की बात सही नजर आती है. लेकिन, अगर भारत को उस स्तर पर पहुंचना है. तो, उसे 'आत्मनिर्भर' बनने के उपायों पर विचार करना होगा. लेकिन, ऐसी स्थिति आने तक भारत को शिवलिंग पर होने वाली भड़काऊ और आपत्तिजनक टिप्पणियों को सहन करना सीखना होगा.
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