पहली तो यह कि शायद मुसलमान इस बात को रियलाइज़ नहीं कर पाते हैं कि 1947 उनके वजूद की एक आला तवारीख़ थी. और 1947 के बाद हिंदुस्तान में उनकी पहले जैसी हैसियत नहीं रह जानी थी, ये कड़वी सच्चाई है. बंटवारे के तर्क को भारतीय मुसलमान स्वीकार नहीं करने की भूल करते हैं. लेकिन जब आप कहते हैं कि हमें अपने लिए अलग से एक मुल्क चाहिए, तो इस मांग में स्वत: ही यह निहित होता है कि बंटवारे के बाद जो दो मुल्क बनेंगे, उसमें से दूसरा वाला दूसरे के लिए होगा. यहां पर दूसरा यानी हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, दलित, आदिवासी, पारसी, ईसाई, यहूदी यानी सीएए की श्रेणी वाले सभी गैर मुस्लिम. अब आप कहते रहिए कि बंटवारा देश के सभी मुसलमानों की मांग नहीं थी, वह तो केवल लीगियों की कारस्तानी थी. लेकिन ये भी सच है कि बंटवारे के ख़िलाफ़ देश के मुसलमानों ने सड़कों पर उतरकर वैसा आन्दोलन नहीं किया कि क़ायदे-आज़म का चेहरा शर्म से लाल हो जाता और वे न घर के रहते न घाट के. मुसलमान सड़कों पर उतरकर ज़ोरदार आन्दोलन करने में कितने सक्षम हैं, यह तो हम सब बख़ूबी जानते ही हैं. आप यह भी नहीं कह सकते कि टू स्टेट थ्योरी तो हिंदुओं की भी मांग थी, हिंदू महासभा इसका परचम उठाए थी. तिस पर मैं कहूं कि हिंदू महासभा की चाह यह थी कि अगर एक इस्लामिक स्टेट बनता है तो दूसरा स्टेट स्वत: एक हिंदू राष्ट्र होगा, यह विभाजन के तर्क में ही निहित है. किंतु वह दूसरा राष्ट्र हिंदू राष्ट्र नहीं बना है.
इस बात को हिंदुस्तान के मुसलमान समझ नहीं पाते हैं कि इसने हिंदुस्तान में उनकी हैसियत को बड़ी एहतियात और सूझबूझ से बरती जाने वाली नाज़ुक चीज़ बना दिया है.बड़े मज़े की बात है कि इस्लाम के लिए पृथक से एक मुल्क बना, इसके बाद...
पहली तो यह कि शायद मुसलमान इस बात को रियलाइज़ नहीं कर पाते हैं कि 1947 उनके वजूद की एक आला तवारीख़ थी. और 1947 के बाद हिंदुस्तान में उनकी पहले जैसी हैसियत नहीं रह जानी थी, ये कड़वी सच्चाई है. बंटवारे के तर्क को भारतीय मुसलमान स्वीकार नहीं करने की भूल करते हैं. लेकिन जब आप कहते हैं कि हमें अपने लिए अलग से एक मुल्क चाहिए, तो इस मांग में स्वत: ही यह निहित होता है कि बंटवारे के बाद जो दो मुल्क बनेंगे, उसमें से दूसरा वाला दूसरे के लिए होगा. यहां पर दूसरा यानी हिन्दू, सिख, जैन, बौद्ध, दलित, आदिवासी, पारसी, ईसाई, यहूदी यानी सीएए की श्रेणी वाले सभी गैर मुस्लिम. अब आप कहते रहिए कि बंटवारा देश के सभी मुसलमानों की मांग नहीं थी, वह तो केवल लीगियों की कारस्तानी थी. लेकिन ये भी सच है कि बंटवारे के ख़िलाफ़ देश के मुसलमानों ने सड़कों पर उतरकर वैसा आन्दोलन नहीं किया कि क़ायदे-आज़म का चेहरा शर्म से लाल हो जाता और वे न घर के रहते न घाट के. मुसलमान सड़कों पर उतरकर ज़ोरदार आन्दोलन करने में कितने सक्षम हैं, यह तो हम सब बख़ूबी जानते ही हैं. आप यह भी नहीं कह सकते कि टू स्टेट थ्योरी तो हिंदुओं की भी मांग थी, हिंदू महासभा इसका परचम उठाए थी. तिस पर मैं कहूं कि हिंदू महासभा की चाह यह थी कि अगर एक इस्लामिक स्टेट बनता है तो दूसरा स्टेट स्वत: एक हिंदू राष्ट्र होगा, यह विभाजन के तर्क में ही निहित है. किंतु वह दूसरा राष्ट्र हिंदू राष्ट्र नहीं बना है.
इस बात को हिंदुस्तान के मुसलमान समझ नहीं पाते हैं कि इसने हिंदुस्तान में उनकी हैसियत को बड़ी एहतियात और सूझबूझ से बरती जाने वाली नाज़ुक चीज़ बना दिया है.बड़े मज़े की बात है कि इस्लाम के लिए पृथक से एक मुल्क बना, इसके बाद हिंदुस्तान में जो मुसलमान रह गए, वो रहे ही इसी शर्त पर थे कि इस्लाम और मुल्क में से हम मुल्क को चुनते हैं. इस्लाम से समझौता किए बिना वो विभाजन के बाद यहां नहीं रह सकते थे. किन्तु लगता है कि उन्होंने इस शर्त को कबूल नहीं किया और इस्लाम को सर्वोपरि माने रखा है. इसने टकरावों को जन्म दिया.
इसको इस तरह से देखें कि एक घर में दो बेटे हैं. दूसरा बेटा लड़-झगड़कर, दंगा-फ़साद करके बंटवारा कर लेता है, घर के बीच में एक दीवार खड़ी कर देता है. लेकिन बाप दोनों बेटों को बराबर की नज़र से देखता है तो वो दूसरे बेटे से कहता है कि ठीक है बंटवारा हो गया, लेकिन तुम चाहो तो अब भी पहले वाले बेटे के घर में आना-जाना कर सकते हो, तुम्हारा स्वागत रहेगा, अलबत्ता पहला बेटा दूसरे के घर से स्वयं को पृथक कर लेता है. यानी दूसरे बेटे को अपना एक स्वायत्त हिस्सा मिला, वहीं पहले बेटे को एक मिला-जुला हिस्सा मिला.
यह बात बंटवारे के तर्क को ख़ारिज करती है और यह तभी टिक सकती है, जब पहला बेटा अत्यंत भलामानुष हो. लेकिन इस बात की गारंटी नहीं है कि उसके नाती-पोते भी उतने ही भलेमानुष होंगे और दूसरे का उतना ही लिहाज़ करेंगे. वहीं दूसरे को भी यह बात समझ लेनी चाहिए कि बंटवारा ले लेने की बाद अब उसकी पहले वाले के घर में वैसी पूछपरख नहीं हो सकती, जैसी पहले होती थी. यह कोई वैसी चीज़ नहीं है, जिसे संविधान में साफ़ शब्दों में लिखा जाए, ताकि संविधान-विशारद् किताब खोलकर देखें कि यह कहां पर लिखा है.
यह तो सीधा-सा सामाजिक मनोविज्ञान है और समझने वाली बात है. भारत के हिंदुओं को लगता है कि मुसलमानों ने अपना पाकिस्तान ले लिया और भारत में भी रह गए, न केवल रहे बल्कि पूरी अकड़ के साथ रहे, यह एक समस्यामूलक कोण है. यह गृहयुद्ध की ओर ले जाने वाली रेसीपी है. बंटवारे के बाद जिन मुसलमानों को हिंदुस्तान में रहने की इजाज़त दी गई, हुक्मरानों ने उनसे कहा कि आप चिंता न करें आपको यहां भरपूर इज़्ज़त दी जाएगी. यह एक कहने वाली बात थी. ये तो कह नहीं सकते थे कि आपको दोयम दर्जे का नागरिक माना जाएगा.
यह वैसा ही है, जैसे घर में आए मेहमान से कहा जाता है कि इसको आप अपना घर ही समझिए, इसका ये मतलब नहीं कि मेहमान उस घर पर अपनी मिल्कियत का दावा ठोंक दे. मुसलमान इस सामान्य शिष्टाचार को समझ नहीं पाए और उनको लगा कि पाकिस्तान भी अपना है और हिंदुस्तान में भी हम अपने हिसाब से रहेंगे. वो ये भूल गए कि मालिक-मकान एक सीमा तक ही लिहाज़ करेगा. अव्वल तो मुसलमानों को बंटवारे के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ना थी, जो उन्होंने छेड़ी नहीं, तो क़ौमी एकता के तरानों और गंगा-जमुनी के फ़सानों का ख़ात्मा तो सैंतालीस में ही हो गया.
जो यहां रह गए, उनको इसके बाद बड़ी एहतियात से हिंदुस्तान के सेकुलर नागरिक बनकर रहना था और घर से निकलने से पहले अपने इस्लाम को घर पर ही छोड़कर आना था, उन्होंने ये भी नहीं किया. वो अपनी शरीयत, हिजाब, वक्फ़, अज़ान, हलाल, बाबरी पर अड़े रहे, वो ये भूल गए कि ये सब करने के लिए पाकिस्तान पहले ही ले चुके हैं और अब बचे हुए मुल्क में ये सब चलने नहीं वाला है. भारत के बुद्धिजीवियों का ये फ़र्ज़ था कि मुसलमानों को ये तमाम बातें प्यार से समझाते, लेकिन वो उलटे मुसलमानों की खुशामद, चापलूसी करने लगे, यानी उन्होंने करेले को नीम चढ़ा दिया.
वंचित तबके और अल्पसंख्यक समुदाय के हक़ की बात करना एक बात है और उसकी तमाम ग़लतियों को नज़रअंदाज़ करना, उलटे उसको सही साबित करने के लिए नित नई दलीलें खोज लाना दूसरी बात है. गीता में श्रीकृष्ण ने अर्जुन को हे महाबाहु अर्जुन, हे निष्पाप अर्जुन आदि सम्बोधनों से पुकारा था, क्योंकि कुरुक्षेत्र में अर्जुन दुविधा से भरा था. लेकिन भारत के बुद्धिजीवी जिस तरह से मुसलमानों को हे महाबाहु मुस्लिम, हे निष्पाप मुस्लिम कहकर पुकारते हैं, उसकी तुक नहीं है, क्योंकि इतिहास के कुरुक्षेत्र में मुसलमान के पास चाहे जो हो, दुविधा तो हरगिज़ नहीं है.
वह पूरी तरह से निश्चित है कि एक ही अल्लाह है और एक ही रसूल है और एक ही फ़िलॉस्फ़ी है और वो अंतिम फ़िलॉस्फ़ी है, उसमें रत्ती-तोला-माशा भी बदलाव अब नहीं हो सकता है. ऐसे आदमी को आप हे महाबाहु बोलोगे तो उलटे उसका हौसला बुलन्द होगा. जबकि उसको आत्मचिंतन में डालने की ज़रूरत है, उसमें ख़ुद पर सवाल पैदा होने चाहिए. इस समस्या का एक ही हल मुझको सूझता है और वो ये कि इस्लाम के भीतर बग़ावत हो तो ही बात बनेगी.
यानी इस्लाम की नई पीढ़ी के नौजवान ख़ुद ही अपने दक़ियानूसी मज़हब के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल लें, और लड़के बोलें कि हमको पत्थर वग़ैरा नहीं फेंकना, हमको पेचीदा गलियों वाली बस्तियों में नहीं रहना, हम हिंदुस्तान की मुख्यधारा का हिस्सा बनना चाहते हैं और इसके लिए जो ज़रूरी होगा वो हम करेंगे, और लड़कियाँ बोलें कि हमको हिजाब में नहीं रहना, हम खुली हवा में साँस लेना चाहती हैं, तब जाकर कुछ हलचल हो.
अभी तो दूर-दूर तक इसके आसार नहीं हैं, क्योंकि इस्लाम में पहली सुन्नत सोचने की क्षमता की कर दी जाती है. वहां आलोचनात्मक चिंतन की तो जगह ही नहीं है. लेकिन जब तक इस्लाम के नौजवान विद्रोह नहीं करेंगे और अपनी वरीयता को मज़हब से हटाकर नौकरी, शिक्षा, कॅरियर, समाज की मुख्यधारा पर नहीं लाएँगे, कुछ होना नहीं है. हिन्दू राष्ट्रवादियों को चुप कराने का भी यही रास्ता है कि मुस्लिम सच्चे सेकुलर बन जावें.
उनको यह मान लेना होगा कि दुनिया उनके हिसाब से नहीं चलेगी, उनको दुनिया के हिसाब से चलना होगा. और जिन चीज़ों को वो मानते हैं, उनको दुनिया मानने वाली नहीं है, क्योंकि दुनिया पढ़ी-लिखी, समझदार, साइंटिफ़िक, रैशनल है, वो दकियानूसी नहीं है. दुनिया को अपने हिसाब से चलाने की कोशिश बेकार है, और पराए घर में वैसा करना तो बेशर्मी भी है. क्योंकि मुसलमान इस बात को भले कबूल करें या न करें, लेकिन सन् सैंतालीस के बाद हिंदुस्तान अब खाला का घर नहीं जैसी बात उनके लिए हो गई है. इति.
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