आदिल अहमद डार, आज भारत का हर एक बच्चा शायद इस नाम को जानता है और साथ ही पुलवामा को भी. यह वही डार है जिसने अपनी जान तो दी ही, साथ ही ले गया अपने साथ 40 जवानों को भी. मुझे नहीं पता कि उसे जन्नत की हूरें मिलेंगी कि नहीं लेकिन पूरे भारत की नफरत उसे जरूर मिल रही है. क्या पता शायद यही हो जन्नत? क्या पता?
डार अपने बनाए वीडियो में भारत के सारे मुसलमानों को मुशरिक (इस्लाम का पालन न करने वाला) कहने से भी नहीं चूकता है, उसे कश्मीर या आज़ाद कश्मीर नहीं चाहिए था. उसे भारत के हुक्मरानों को सबक सिखाना था जो उसके हिसाब से मुसलमानों को पश्चिमी सभ्यता में रंग रहे हैं. अगर उसे मुसलमानों की फिक्र होती तो शायद उसे यह भी पता होता कि पैरा मिलिट्री के उस काफ़िले में कई मुसलमान सैनिक भी थे. नासिर अहमद शहीदों की सूची में शामिल वह नाम है जिसके बारे में मीडिया से लेकर आम लोग, कोई बात नहीं कर रहा. हां एक बडी खाई और रिक्त स्थान जरूर खिंच गया है जो धर्म के नज़रिए से भी इस पूरे वाकिए को देख रहा है.
डार कुछ कम नहीं था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का एक छात्र जो कश्मीर का रहने वाला था, ट्वीट करता है और #howsthejaish के हैश टैग से नफ़रत की एक और दीवार खड़ी कर देता है. कुछ लोग मुसलमानों को पानी पी पी कर कोस रहे हैं तो कुछ उन्हें पाकिस्तान तक भेज दे रहे हैं. शहीद अभी सुपुर्द-ए-ख़ाक भी नहीं हुए हैं और पूरे देश में एक और ही लड़ाई और नफ़रत ने घर कर लिया है.
लेकिन किसी मुसलमान को गाली देने वाले ने एक बार भी उस मुसलमान दोस्त के बारे में सोचा जो हर हाल में आपके साथ होता है. ईद की सेवइयां जिसकी मां आपको वैसे ही खिलाती हैं जैसे अपने बेटे को. हंसी ख़ुशी और गम में जो आपका...
आदिल अहमद डार, आज भारत का हर एक बच्चा शायद इस नाम को जानता है और साथ ही पुलवामा को भी. यह वही डार है जिसने अपनी जान तो दी ही, साथ ही ले गया अपने साथ 40 जवानों को भी. मुझे नहीं पता कि उसे जन्नत की हूरें मिलेंगी कि नहीं लेकिन पूरे भारत की नफरत उसे जरूर मिल रही है. क्या पता शायद यही हो जन्नत? क्या पता?
डार अपने बनाए वीडियो में भारत के सारे मुसलमानों को मुशरिक (इस्लाम का पालन न करने वाला) कहने से भी नहीं चूकता है, उसे कश्मीर या आज़ाद कश्मीर नहीं चाहिए था. उसे भारत के हुक्मरानों को सबक सिखाना था जो उसके हिसाब से मुसलमानों को पश्चिमी सभ्यता में रंग रहे हैं. अगर उसे मुसलमानों की फिक्र होती तो शायद उसे यह भी पता होता कि पैरा मिलिट्री के उस काफ़िले में कई मुसलमान सैनिक भी थे. नासिर अहमद शहीदों की सूची में शामिल वह नाम है जिसके बारे में मीडिया से लेकर आम लोग, कोई बात नहीं कर रहा. हां एक बडी खाई और रिक्त स्थान जरूर खिंच गया है जो धर्म के नज़रिए से भी इस पूरे वाकिए को देख रहा है.
डार कुछ कम नहीं था कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का एक छात्र जो कश्मीर का रहने वाला था, ट्वीट करता है और #howsthejaish के हैश टैग से नफ़रत की एक और दीवार खड़ी कर देता है. कुछ लोग मुसलमानों को पानी पी पी कर कोस रहे हैं तो कुछ उन्हें पाकिस्तान तक भेज दे रहे हैं. शहीद अभी सुपुर्द-ए-ख़ाक भी नहीं हुए हैं और पूरे देश में एक और ही लड़ाई और नफ़रत ने घर कर लिया है.
लेकिन किसी मुसलमान को गाली देने वाले ने एक बार भी उस मुसलमान दोस्त के बारे में सोचा जो हर हाल में आपके साथ होता है. ईद की सेवइयां जिसकी मां आपको वैसे ही खिलाती हैं जैसे अपने बेटे को. हंसी ख़ुशी और गम में जो आपका साथी रहा है. वह भी एक मुसलमान ही था, शहीद होने वाला नासिर अहमद भी एक मुसलमान ही था जो उसी तरह से मार दिया गया जैसे हमारे अपने हिन्दू सैनिक. लेकिन क्या वाकई सैनिकों की कोई जाति, मज़हब या क़ौम होती है? या फिर क्या कोई देश भी होता है? वह लड़ते हैं एक ऐसी लड़ाई जो दरअसल थोप दी गई है, वह खड़े होते हैं उस काल्पनिक रेखा के दोनों ओर जिसे हम सरहद कहते हैं.
लेकिन सरहद से भी बड़ी रेखाएं हमने अपने दिलों पर खींच ली हैं, उनका क्या? जहां सैनिक नहीं हमारी भावनाएं मरती हैं, हमारी संवेदनाएं निर्जीव हो जाती हैं और हम आपस में ही लड़ते मरते हैं. दरअसल, हमें जरूरत है उस देश की जहां डार जैसे लोगों का ब्रेनवॉश ना हो सके, जहां हिन्दू, मुस्लिम, सिख और ईसाई एक साथ अमन और चैन से रहें, जहां घरों में प्यार हो ना कि शक की सूइयां. जहां हिन्दू, हिन्दू नहीं, मुसलमान, मुसलमान नहीं बल्कि एक इंसान हो, जहां कौमें अमन की चाह रखती हों. और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक कुछ नहीं बदलने वाला, तब तक सिर्फ और सिर्फ राजनीति की रोटियां सेंकी जाती रहेंगी और कुछ दिनों के बहस के बाद शहीदों को भुला दिया जाता रहेगा. जहां शहीद हिन्दू और मुसलमान की तरह पहचाने जाएंगे और जहां इन्हें चुनावी और राजनैतिक मुद्दा बनाया जाता रहेगा. लोग तालियां बजाएंगे, देश भक्ति के गीत गाएंगे और फिर सब कुछ भूल जाएंगे.
आपको मुझ पर गुस्सा आ रहा होगा लेकिन एक बात बताइए आपको राजीव गांधी, इंदिरा गांधी और ऐसे ही कई राजनेताओं की शहादत याद होगी लेकिन कितने शहीदों की शहादत आपको याद है, कितने शहीदों के नाम आपको याद हैं? नहीं याद हैं और अगर हैं भी तो दिमाग पर ज़ोर देना पड़ रहा है, है ना? अब जरा सोचिए ऐसा क्यों है या फिर देशभक्ति जैसे शब्द सिर्फ एक भरोसा मात्र है हमारी सोच को एक विराम देने के लिए?
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