आदिल अहमद डार, उम्र 20 साल, निवासी गांव गुंडीबाग, पुलवामा. अभी दो दिन पहले तक उसे कोई नहीं जानता था और आज उसका विडियो वायरल है. एक 20 साल का लड़का जिसने अभी ज़िंदगी के लिए देखे खुद के और मां बाप के ख्वाब भी पूरे करने शुरू न किए हों, वो अपने हमउम्रों को प्यार में न पड़ने की अपील करता दिख रहा है. महिलाओं के लिए पर्दा की मुखालफत करता है. अपने परिवार, दोस्तों और रिश्तेदारों को संबोधित करते हुए कहता है कि इस्लाम के लिए उसकी शहादत का वे जश्न मनाएं. और फिर विडियो बनाने के कुछ घंटों बाद वो विस्फोटकों से लदी स्कॉर्पियो कार को सीआरपीएफ जवानों को ले जा रहे काफिले के बीच में घुसाते हुए एक वाहन से टकरा देता है. ट्रक में सवार 44 सीआरपीएफ जवान शहीद हो जाते हैं. सारा देश आक्रोश में है, सोशल मीडिया पर हर कोई बदला चाहता है. राजनीतिक दोषारोपण का दौर अपने चरम पर है.
मेरा मानना है कि इस विडियो को गंभीरता से देखने और समझने की जरूरत है. समझने की जरूरत है कि घाटी में जिस आतंक को हम राजनीति की देन मानकर तरह-तरह की वार्ताओं से उसका हल निकालने की कोशिश कर रहे हैं. दरअसल वो धार्मिक उन्माद और अलगाव जनित आतंक ज़्यादा है. वो जिहाद चाहते हैं, लड़ाई आज़ादी की कम और इस्लाम की ज़्यादा है. ऐसा आज से नहीं, कई सालों से है.
पिछले कई सालों से कश्मीर में मस्जिदों और मोबाइल का इस्तेमाल लोगों को उग्र बनाने और उकसाने के लिए तेजी से किया जा रहा है. मुझे याद है कि कोई दो साल पहले, दक्षिण कश्मीर की एक मस्जिद में मुफ्ती शब्बीर अहमद कासमी ने अपनी तकरीर में हिज्बुल कमांडर जाकिर मूसा के इस्लामिक जिहाद के आह्वान का खुलकर समर्थन किया था. ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी धर्मगुरु ने धार्मिक स्थान का इस्तेमाल करते हुए लोगों को कश्मीर के मोस्ट वॉन्टेड आतंकवादी का समर्थन करने के लिए प्रेरित किया. तब भी देखते ही देखते मुफ्ती की तकरीर का वो विडियो घाटी में वायरल हो गया था.