कृषि बिलों पर बेशक पंजाब के किसान सालभर से ज्यादा वक्त तक प्रदर्शन करते रहे थे और शानदार फोटोग्राफरों ने इस मौके को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. और बाद में कतिपय जटिल कारणों से केंद्र सरकार ने उन कानूनों को वापस भी ले लिया. पर, मेरी बात थोड़ी हिंदी वाली है. बात बिहार की है. बिहार के साथ छवि को लेकर दो पंगे हैं. पहला पंगा है कि मुंबइया माइंडसेट सिनेमा ने बिहार को, जितना लंठ वो है, उससे कहीं अधिक मामा ठाकुर स्टाइल का भदेस दिखाया है. दूसरी छवि है कि देशभर में सबसे ज्यादा आईएएस बिहार देता है. इसकी असलियत यह है कि कभी जमाने में ऐसा रहा होगा, अब ऐसा नहीं होता. पर तीसरी सचाई से साबका अब लॉकडाउन के दौरान हुआ है, जब हमने यह देखना शुरू किया कि आखिर कितने बिहारी सूबे से बाहर निकल चुके हैं. मैंने सुना कि पंजाब में कटाई बुआई के सीजन में बिहारी दिहाड़ी मजदूर ही काम करते हैं. लेकिन कितने मजदूर काम करते हैं, इसका कोई आकलन नहीं है. मैं शर्त बद सकता हूं कि बिहार सरकार के पास इसका कोई आंकड़ा नहीं होगा. और पंजाब इसका हिसाब क्यों कर रखने लगा भला?
थोड़ा पीछे चलते हैं. 2018 में जब गुजरात में बिहारियों के खिलाफ हिंसा भड़की थी और मवेशियों की ट्रेन के डिब्बों में भरकर ये (हम) लौटने लगे थे, तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था, 'मैं गुजरात में रह रहे बिहार के लोगों से अपील करता हूं कि वे जहां हैं, वहीं रहें, भले कोई भी घटना हुई हो.' इसी तरह जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद लगे अनिश्चितकालीन कर्फ्यू के चलते घाटी में रहने वाले मजदूर 100-150 किलोमीटर तक पैदल चलकर रेलवे स्टेशनों तक पहुंचे थे और किसी तरह घर लौटे.
उस वक्त भी न तो...
कृषि बिलों पर बेशक पंजाब के किसान सालभर से ज्यादा वक्त तक प्रदर्शन करते रहे थे और शानदार फोटोग्राफरों ने इस मौके को यादगार बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. और बाद में कतिपय जटिल कारणों से केंद्र सरकार ने उन कानूनों को वापस भी ले लिया. पर, मेरी बात थोड़ी हिंदी वाली है. बात बिहार की है. बिहार के साथ छवि को लेकर दो पंगे हैं. पहला पंगा है कि मुंबइया माइंडसेट सिनेमा ने बिहार को, जितना लंठ वो है, उससे कहीं अधिक मामा ठाकुर स्टाइल का भदेस दिखाया है. दूसरी छवि है कि देशभर में सबसे ज्यादा आईएएस बिहार देता है. इसकी असलियत यह है कि कभी जमाने में ऐसा रहा होगा, अब ऐसा नहीं होता. पर तीसरी सचाई से साबका अब लॉकडाउन के दौरान हुआ है, जब हमने यह देखना शुरू किया कि आखिर कितने बिहारी सूबे से बाहर निकल चुके हैं. मैंने सुना कि पंजाब में कटाई बुआई के सीजन में बिहारी दिहाड़ी मजदूर ही काम करते हैं. लेकिन कितने मजदूर काम करते हैं, इसका कोई आकलन नहीं है. मैं शर्त बद सकता हूं कि बिहार सरकार के पास इसका कोई आंकड़ा नहीं होगा. और पंजाब इसका हिसाब क्यों कर रखने लगा भला?
थोड़ा पीछे चलते हैं. 2018 में जब गुजरात में बिहारियों के खिलाफ हिंसा भड़की थी और मवेशियों की ट्रेन के डिब्बों में भरकर ये (हम) लौटने लगे थे, तब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कहा था, 'मैं गुजरात में रह रहे बिहार के लोगों से अपील करता हूं कि वे जहां हैं, वहीं रहें, भले कोई भी घटना हुई हो.' इसी तरह जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाए जाने के बाद लगे अनिश्चितकालीन कर्फ्यू के चलते घाटी में रहने वाले मजदूर 100-150 किलोमीटर तक पैदल चलकर रेलवे स्टेशनों तक पहुंचे थे और किसी तरह घर लौटे.
उस वक्त भी न तो बिहार सरकार ने उन्हें सुरक्षित घर पहुंचाने का इंतजाम किया और न ही आश्वासन दिया. (वचने का दरिद्रता? बोल ही देते कि गृह राज्य में नौकरी देंगे लौट आओ. यह भी न बोला गया.) लॉकडाउन के दौरान, बिहार सरकार में तब मुख्यमंत्री के नायब रहे सुशील मोदी ने 30 अप्रैल 2020 को जानकारी दी थी कि दूसरे राज्यों में फंसे बिहार के 17 लाख लोगों के अकाउंट में एक-एक हजार रुपए की सहायता राशि भेजी जा चुकी है.
इसका मतलब है कि सरकारी आंकड़ों के अनुसार, तब बिहार के 17 लाख लोग दूसरे राज्यों में फंसे हुए थे. बीबीसी हिंदी में छपी खबर के मुताबिक, बिहारी मूल के लगभग 36.06 लाख लोग महाराष्ट्र, यूपी, पश्चिम बंगाल, गुजरात, पंजाब और असम में रहते हैं. ये तो हुआ जड़ से उखड़ने की पीड़ा का आंकड़ा. अब जरा उन लोगों का मुजाहिरा करते हैं तो बिहार में ही रहते हैं.
बिहार राज्य में 77 फ़ीसद कार्यबल खेती-किसानी में लगा हुआ है. राज्य के घरेलू उत्पाद का लगभग 24 फ़ीसद कृषि से ही आता है. 2011 की जनगणना के मुताबिक़, राज्य में करीब 72 लाख लोग खेतिहर हैं जबकि 1.83 लाख लोग खेत मज़दूर हैं. कृषि गणना साल 2015-16 के मुताबिक़, बिहार में लगभग 91.2 फ़ीसद सीमान्त किसान है. यानी ऐसे किसान जिनकी जोत एक हेक्टेयर से भी कम है.
वहीं बिहार में औसत जोत का आकार 0.39 हेक्टेयर है. बिहार सरकार के आर्थिक सर्वे के अनुसार, बिहार में सीमांत जोत के मामले में 1.54 फ़ीसद की बढ़ोत्तरी हुई है जबकि बाक़ी सभी जोत (लघु, लघु-मध्यम, मध्यम, वृहद) की संख्या घटी है. राजधानी की छाती पर चढ़ बैठे किसानों ने एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य और एपीएमसी एक्ट (एग्रीकल्चर प्रोड्यूस मार्केट कमिटी ऐक्ट) यानी 'कृषि उपज और पशुधन बाज़ार समिति' अधिनियम जैसे शब्दों को घर-घर तक पहुंचा दिया हो लेकिन एपीएमसी को बिहार में ख़त्म हुए लगभग करीब डेढ़ दशक बीत गए हैं.
बिहार में इसकी जगह सहकारी समितियों को पैक्स के ज़रिए फ़सल ख़रीदने का विकल्प मुहैया कराया गया. यदि धान ख़रीद के लिहाज़ से सहकारिता विभाग, बिहार सरकार की ओर से जारी किए गए बीते वर्ष के आंकड़े देखें तो पूरे बिहार में 8,463 पैक्स और 521 व्यापार मंडल हैं. सरकार इन्हीं के माध्यम से धान या अन्य फ़सलों की सरकारी ख़रीद करती है.
अब यदि समूचे बिहार में साल 2019-20 के लिहाज़ से पैक्स और व्यापार मंडलों में रजिस्टर्ड किसानों के आंकड़ों पर ग़ौर करें तो इनकी संख्या 2,79,426 है.ज़ाहिर तौर पर पैक्स और व्यापार मंडल जैसे संगठनों ने इन्हीं किसानों से धान की कुल ख़रीद काग़ज़ पर भी दिखाया. इन तमाम किसानों से ख़रीदा गया कुल धान 20 लाख मीट्रिक टन था.
बिहार में धान की कुल उपज लगभग एक करोड़ मीट्रिक टन हुई और खरीद लगभग 20 लाख मीट्रिक टन! जब 10 लाख से भी अधिक किसान फ़सलों का सरकारी बीमा करा रहे हैं तो फिर लगभग पौने तीन लाख किसान ही क्यों सहकारिता विभाग के पास रजिस्टर्ड हैं? बिहार सरकार के आंकड़ों से स्पष्ट है कि बिहार में क़रीब पौने तीन लाख किसानों को ही इस व्यवस्था का लाभ मिलता है, बाक़ी के लाखों किसान, बनियों और बिचौलियों की तय की गई क़ीमतों पर धान को बेचने को मजबूर हैं.
भारत के उपभोक्ता मामले और खाद्य मंत्रालय के अनुसार, जून 2020 में सरकार की अलग-अलग एजेंसियों ने 389.92 लाख मिट्रिक टन गेहूँ की ख़रीदारी की इसमें बिहार का गेहूं महज़ पाँच हज़ार मिट्रिक टन था. तो इन आंकड़ों के जाल में न उलझिए कि किसने बासमती उगाने के लिए कितना पानी उलीच लिया,
ट्यूबवैल के पानी से सिंचित धान सेहत के लिए नुक्सानदेह होता है, पंजाब के किसान बनाम कॉर्पोरेट के बीच याद करिए फिल्म "उड़ता पंजाब' की बिहारी मजदूर बनी आलिया भट्ट का चेहरा, जिसने कहा था 'हमार सुनबा ना तअ गंड़िए फाट जाई.
(आंकड़े विभिन्न प्रतिष्ठित वेबसाइटों, न्यूज पोर्टलों तथा केंद्र सरकारों व राज्य सरकार के हैं.)
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