कई घटनाएं बहुत महत्वपूर्ण होने के बावजूद बार-बार घटित होने के कारण अपना महत्व खो देती हैं, और लोगों को सामान्य सी लगने लगती हैं. हमारे हमसाया मुल्क नेपाल में बार-बार होने वाला सत्ता परिवर्तन इसकी एक नजीर है. विगत ढाई दशकों में वहां करीब 25 बार प्रधानमंत्री बदले गए. यानी औसतन प्रतिवर्ष का कार्यकाल एक प्रधानमंत्री के हिस्से में आया.
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब इससे लगभग अभ्यस्त हो चुका है. इसलिए प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ का हालिया इस्तीफा भी एक आम सा घटनाक्रम लगता है लेकिन देखा जाए तो ये विगत सत्ता परिवर्तनों से थोड़ा भिन्न जरूर है. कम से कम इस मामले में कि सत्तासीन होते हुए प्रचंड ने जो वादा किया था, उसे निभाया.
असल में नेपाली सियासत में सत्तामोह के आगे विचारधारा और उसूल सिस्कियां लेते नजर आते हैं. महज सत्ता हथियाने के लिए तमामतर वैचारिक मतभेदों को ताक पर रखकर राजनीतिक दलों का गठजोड़ बनता रहा है और संवैधानिक तरीके से मिले जनादेश की धज्जियां उड़ाकर जबरदस्ती की सरकारें थोपी जाती रही हैं. विगत कुछ दशकों में होने वाले सत्ता परिवर्तनों की कई घटनाएं ऐसी हैं, जब वादों को तोड़ा गया और जनता ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया.
ताजा घटनाक्रम पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व में उनकी पार्टी सीपीएन (माओवादी केंद्र) और नेपाली कांग्रेस के सहयोग से पिछले साल अगस्त में बनी सरकार से जुड़ा है. इसलिए इतिहास के ज्यादा पुराने पन्ने पलटने के बजाए अगर हम प्रचंड के पहले कार्यकाल की पूर्ववर्ती सरकार और उसके बाद हुए सत्ता परिवर्तनों पर ही नजर डालें तो नेपाली राजनीति में फैली असंवैधानिक अराजकता का पटाक्षेप हो जाता है. उनसे पहले 2006 के युग के बाद नेपाल के सबसे शक्तिशाली...
कई घटनाएं बहुत महत्वपूर्ण होने के बावजूद बार-बार घटित होने के कारण अपना महत्व खो देती हैं, और लोगों को सामान्य सी लगने लगती हैं. हमारे हमसाया मुल्क नेपाल में बार-बार होने वाला सत्ता परिवर्तन इसकी एक नजीर है. विगत ढाई दशकों में वहां करीब 25 बार प्रधानमंत्री बदले गए. यानी औसतन प्रतिवर्ष का कार्यकाल एक प्रधानमंत्री के हिस्से में आया.
अंतर्राष्ट्रीय समुदाय अब इससे लगभग अभ्यस्त हो चुका है. इसलिए प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल ‘प्रचंड’ का हालिया इस्तीफा भी एक आम सा घटनाक्रम लगता है लेकिन देखा जाए तो ये विगत सत्ता परिवर्तनों से थोड़ा भिन्न जरूर है. कम से कम इस मामले में कि सत्तासीन होते हुए प्रचंड ने जो वादा किया था, उसे निभाया.
असल में नेपाली सियासत में सत्तामोह के आगे विचारधारा और उसूल सिस्कियां लेते नजर आते हैं. महज सत्ता हथियाने के लिए तमामतर वैचारिक मतभेदों को ताक पर रखकर राजनीतिक दलों का गठजोड़ बनता रहा है और संवैधानिक तरीके से मिले जनादेश की धज्जियां उड़ाकर जबरदस्ती की सरकारें थोपी जाती रही हैं. विगत कुछ दशकों में होने वाले सत्ता परिवर्तनों की कई घटनाएं ऐसी हैं, जब वादों को तोड़ा गया और जनता ने खुद को ठगा हुआ महसूस किया.
ताजा घटनाक्रम पुष्प कमल दहल प्रचंड के नेतृत्व में उनकी पार्टी सीपीएन (माओवादी केंद्र) और नेपाली कांग्रेस के सहयोग से पिछले साल अगस्त में बनी सरकार से जुड़ा है. इसलिए इतिहास के ज्यादा पुराने पन्ने पलटने के बजाए अगर हम प्रचंड के पहले कार्यकाल की पूर्ववर्ती सरकार और उसके बाद हुए सत्ता परिवर्तनों पर ही नजर डालें तो नेपाली राजनीति में फैली असंवैधानिक अराजकता का पटाक्षेप हो जाता है. उनसे पहले 2006 के युग के बाद नेपाल के सबसे शक्तिशाली नेता के तौर पर उभरे गिरिजा प्रसाद कोइराला 2006 से 2008 तक नेपाल के प्रधानमंत्री रहे. संसद में बहुमत न मिलने के बावजूद असंवैधानिक तरीके से उन्होंने अपने कार्यकाल को लंबा खींचा. फिर 2008 में प्रचंड की सरकार आई और 2009 में उनके इस्तीफा देने के बाद माधव कुमार से लेकर बाबूराम भट्टाराय, झालनाथ खनल, खिलराज रेगमी, सुशील कोइराला और केपी ओली तक जनादेशों को दरकिनार कर सत्ता में उठापटक का खेल चलता रहा.
इस दौरान प्रचंड पर उनके विरोधियों यहां तक कि अपनी पार्टी के भीतर भी लोगों द्वारा भ्रष्टाचार, सत्तालोभी और भारत जैसे पड़ोसी मुल्कों के साथ सांठगांठ करने के आरोप लगाए जाते रहे. इसके बावजूद सत्तालोभ के लंबे सिलसिले को पुष्प कमल दहल ने ऐसे समय में तोड़ा है जब मुख्य विपक्षी दल नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी (एकीकृत माओवादी-लेनिनवादी) ने उनपर खुले तौर पर प्रधानमंत्री पद से कम से कम जून तक इस्तीफा न देने का दबाव बनाया था. यही कारण है कि प्रचंड को अपना इस्तीफा देने में थोड़ी देर हुई और उन्हें अपनी मंशा के विरुद्ध जाकर इसकी घोषणा संसद के बजाए राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के दौरान करनी पड़ी.
ये भी एक संयोग ही है कि इससे पहले 2008 में अगस्त के महीने में ही प्रचंड नेपाल के पहली बार प्रधानमंत्री बने थे और तब भी लगभग नौ महीनों के बाद मई 2009 में ही उन्हें इस्तीफा देना पड़ा था. लेकिन इस बार परिस्थितियां भिन्न हैं. तब वो चीन के नजदीकी थे, अब भारत के करीबी हैं. पहले कार्यकाल में उन्हें नेपाल के सेना प्रमुख जनरल रुकमंडगुड कटवाल को हटाने को लेकर तत्कालीन राष्ट्रपति रामबरन यादव के कोपभाजन का शिकार होना पड़ा था, इस बार उन्होंने अपनी मर्जी से इस्तीफा दिया और अपने सहयोगी दल नेपाली कांग्रेस के शेर बहादुर देउबा के लिए कुर्सी खाली छोड़ी है.
अपने इस्तीफा की घोषणा करते हुए उन्होंने कहा है कि नेपाल की राजनीति में भरोसे का अभाव है और मैं नैतिकता के इस सूखेपन को तोड़ना चाहता हूं. जाहिर है कि कोई भी राजनेता विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप में महज नैतिकता की खातिर इतना बड़ा कदम नहीं उठाता है बल्कि अपने राजनीतिक भविष्य का जोड़-घटाव पहले कर लेता है. यही वजह है कि राष्ट्र के नाम संबोधन में उन्होंने अपने अल्पकालिक कार्यकाल की भारत-चीन सम्बंधों में संतुलन बनाने समेत आर्थिक, शैक्षिक और ढांचागत विकाल की तथाकथित दीर्घकालिक उपलब्धियां लगे हाथों गिनवा दी हैं.
मतलब साफ है कि उन्हें इसी माह 14 तारीख को हुए पहले चरण के निकाय चुनाव में अपनी हैसियत का भलीभांति अंदाजा हो गया है. इसमें अपनी जमीन दरकने और नेपाली कम्यूनिस्ट पार्टी (एकीकृत माओवादी-लेनिनवादी) की विजय का अनुमान उन्हें था. बताते चलें कि नेपाल में माओवादी विद्रोह और राजनीतिक अस्थिरता के चलते दो दशकों बाद स्थानीय चुनाव हो रहे हैं. इसीलिए उन्होंने 14 जून को होने वाले अगले चरण के स्थानीय चुनाव और फिर उसके बाद जनवरी 2018 तक प्रांतीय और केंद्र स्तर के चुनाव कराने की बागडोर अपनी सहयोगी पार्टी नेपाली कांग्रेस के हाथों में सौंप दी है. इससे उन्हें इन चुनावों के लिए थोड़ा वक्त मिल जाएगा और वो इसमें अपनी इसी नैतिकता और उपलब्धियों को भुनाने की कोशिश करेंगे.
साथ ही प्रचंड स्थानीय चुनाव के लिए तराई क्षेत्र में प्रशासनिक इकाईयों की संख्या बढ़ाने के अपने उन प्रयासों का बखान भी कर सकेंगे जिनका विपक्षी दलों के द्वारा आचार संहिता का उल्लंघन बताकर जमकर विरोध किया जा रहा है. इन इकाईयों को मधेसी दलों की खतिर बढ़ाया गया था. यानी प्रचंड ने नेपाल को राजनीतिक अस्थिरता के भंवर में एक सोची-समझी रणनीति के तहत छोड़ा है. देखना ये होगा कि वो अपनी इस राजनीति में किस कदर सफल होते हैं?
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