जो काम अभी तक दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिक नहीं कर पाए हैं, वह काम बसपा ने कर दिखाया है. उसने भीमराव अंबेडकर का क्लोन तैयार कर लिया है. देश के सामने एक और "भीमराव अंबेडकर" पेश कर दिया है. महापुरुषों की ऐसी क्लोनिंग या सरल भाषा में कहें तो उनके नाम पर ऐसी खेती चलती रहनी चाहिए. अगर महापुरुषों के नाम पर ऐसी खेतियां नहीं होंगी, तो क्या पता भारत जैसे महान देश में महापुरुष ही ख़त्म हो जाएं.
लेकिन अच्छा है कि भीमराव अंबेडकर जी भारत से कभी ख़त्म नहीं हो सकते, क्योंकि सबसे ज़्यादा खेती उन्हीं के नाम पर होती है. इतनी खेती न महात्मा गांधी, न सुभाष बोस, न भगत सिंह- किसी के नाम पर नहीं होती है. एक दौर में गली-गली राम और कृष्ण पैदा हुए. काम उन्होंने जो भी किए हों, पर इससे राम और कृष्ण भारत में मरने नहीं पाए.
इसलिए, महापुरुषों के विचार नहीं, नाम अधिक महत्वपूर्ण होते हैं. इसलिए उनके विचारों का अनुयायी बना जाए न बना जाए, नाम का अनुयायी अवश्य बन जाना चाहिए. और यह स्वतः प्रमाणित है कि ये नए वाले भीमराव अंबेडकर जी भी कम से कम पुराने वाले भीमराव अंबेडकर जी के नाम के अनुयायी तो हैं ही. विचार तो वैसे भी हवा है, हवा में उड़ जाना है, नाम ही रह जाना है.
भीमराव अंबेडकर जी के एक और अनुयायी हाल ही में अवतरित हुए थे. उनके नाम पर भीम आर्मी बना ली थी. खुद अपना नाम "चंद्रशेखर आज़ाद रावण" बताते थे. "चंद्रशेखर आज़ाद" उन्हें कम लगा होगा, इसलिए नाम में "रावण" भी जोड़ लिया था. मतलब, जैसे वैज्ञानिक कुछ खगोलीय घटनाओं के बारे में बताया करते हैं कि ऐसा अद्भुत संयोग हज़ार, दो हज़ार, पांच हज़ार साल बाद आया है, कुछ-कुछ वैसे ही ब्रह्मांड में यह पहला ही अद्भुत संयोग था, जब एक व्यक्ति एक साथ "चंद्रशेखर आज़ाद" भी था और "रावण" भी था. कई लोग...
जो काम अभी तक दुनिया के बड़े-बड़े वैज्ञानिक नहीं कर पाए हैं, वह काम बसपा ने कर दिखाया है. उसने भीमराव अंबेडकर का क्लोन तैयार कर लिया है. देश के सामने एक और "भीमराव अंबेडकर" पेश कर दिया है. महापुरुषों की ऐसी क्लोनिंग या सरल भाषा में कहें तो उनके नाम पर ऐसी खेती चलती रहनी चाहिए. अगर महापुरुषों के नाम पर ऐसी खेतियां नहीं होंगी, तो क्या पता भारत जैसे महान देश में महापुरुष ही ख़त्म हो जाएं.
लेकिन अच्छा है कि भीमराव अंबेडकर जी भारत से कभी ख़त्म नहीं हो सकते, क्योंकि सबसे ज़्यादा खेती उन्हीं के नाम पर होती है. इतनी खेती न महात्मा गांधी, न सुभाष बोस, न भगत सिंह- किसी के नाम पर नहीं होती है. एक दौर में गली-गली राम और कृष्ण पैदा हुए. काम उन्होंने जो भी किए हों, पर इससे राम और कृष्ण भारत में मरने नहीं पाए.
इसलिए, महापुरुषों के विचार नहीं, नाम अधिक महत्वपूर्ण होते हैं. इसलिए उनके विचारों का अनुयायी बना जाए न बना जाए, नाम का अनुयायी अवश्य बन जाना चाहिए. और यह स्वतः प्रमाणित है कि ये नए वाले भीमराव अंबेडकर जी भी कम से कम पुराने वाले भीमराव अंबेडकर जी के नाम के अनुयायी तो हैं ही. विचार तो वैसे भी हवा है, हवा में उड़ जाना है, नाम ही रह जाना है.
भीमराव अंबेडकर जी के एक और अनुयायी हाल ही में अवतरित हुए थे. उनके नाम पर भीम आर्मी बना ली थी. खुद अपना नाम "चंद्रशेखर आज़ाद रावण" बताते थे. "चंद्रशेखर आज़ाद" उन्हें कम लगा होगा, इसलिए नाम में "रावण" भी जोड़ लिया था. मतलब, जैसे वैज्ञानिक कुछ खगोलीय घटनाओं के बारे में बताया करते हैं कि ऐसा अद्भुत संयोग हज़ार, दो हज़ार, पांच हज़ार साल बाद आया है, कुछ-कुछ वैसे ही ब्रह्मांड में यह पहला ही अद्भुत संयोग था, जब एक व्यक्ति एक साथ "चंद्रशेखर आज़ाद" भी था और "रावण" भी था. कई लोग उनके लिंक भी बसपा से ही जोड़ रहे थे.
भीमराव अंबेडकर जी के और भी कुछ अनुयायी हैं, जो "रावण" को ही नहीं, "महिषासुर" को भी अपना हीरो मानते हैं. जेएनयू में उसकी जयंती मनाते हैं. मतलब की देश के बहुसंख्य लोग जिसे-जिसे अपना विलेन मानते हैं, उसे-उसे वे अपना हीरो बताते हैं. हिन्दूवादी संगठन वेदों-पुराणों की बात करते हैं, तो उसे वे पुरातनपंथी बताते हैं, लेकिन उन्हीं पौराणिक खलनायकों को ऐतिहासिक नायक मानकर वे उनका अनुसरण भी करते हैं.
भीमराव अंबेडकर जी के अनेक अनुयायी केवल पुरातन में ही नहीं जीते हैं, अधुनातन में भी जीते हैं, इसलिए रावण और महिषासुर के आधुनिक स्वरूप याकूब मेमन को भी फ़ॉलो करते हैं. वही याकूब मेमन जो मुंबई में सैकड़ों लोगों की हत्याओं का गुनहगार प्रमाणित हो चुका था और सुप्रीम कोर्ट से जिसे फांसी हुई थी. हैदराबाद में भीमराव अंबेडकर जी के नाम पर चलने वाले अंबेडकर स्टूडेंट्स एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य स्वर्गीय रोहित वेमुला और उनके दोस्त यूनिवर्सिटी कैम्पस में याकूब मेमन के पक्ष में कैंपेन चला रहे थे.
इधर जेएनयू में अफ़ज़ल गुरू और मकबूल बट्ट की बरसी मनाने वाले अनेक लोग भी खुद को अंबेडकर प्रेमी बताते थे. मतलब भीमराव अंबेडकर जी के अनुयायी रावण, महिषासुर, याकूब मेमन, अफ़ज़ल गुरू, मकबूल बट्ट सबके दीवाने हुए जा रहे हैं. वैसे वास्तविक दीवानगी तो ख़ुद अंबेडकर जी के लिए ही है, जो उन्हीं के नाम पर यह सब कुछ चलाया जा रहा है.
और तो और, धर्म के जाल को तोड़ने में भी भीमराव अंबेडकर जी के अनुयायियों का योगदान कम उल्लेखनीय नहीं है. आज जिसे भी हिन्दू धर्म के लिए भड़ास निकालनी होती है या दूसरे धर्म में धर्मांतरण करना/कराना होता है, वह भीमराव अंबेडकर जी की तस्वीर सीने से सटाता है और मीडिया को इत्तिला देकर धर्म-परिवर्तन कर/करा लेता/देता है. एक धर्म से निकलकर दूसरे धर्म में चला जाता है. दूसरा धर्म जिसके बारे में धारणा है कि वह शांति का संदेश देता है. लेकिन शांति का संदेश तो बुद्ध के साथ चला गया, अब बौद्ध बचे हैं, जिन्होंने म्यांमार में, श्रीलंका में, चीन में कितनी शांति कायम कर रखी है, यह भी कम उल्लेखनीय नहीं है.
वैसे, बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर का एक अनुयायी तो मैं भी हूं. भारत में दलित चेतना को जगाने के लिए उन्होंने जो किया, उसका दलितों को 70 साल में अभूतपूर्व फ़ायदा हुआ है. इतना फ़ायदा हुआ है कि सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ता है कि एससी-एसटी एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है. यानी दलितों की दशा में सुधार आया हो न आया हो, उनके लिए बने कानूनों और सुविधाओं का दुरुपयोग करने की हैसियत तो अनेक लोगों की बन ही गई है. वास्तव में देखा जाए, तो यह भी एक किस्म का सशक्तीकरण ही होता है.
भीमराव अंबेडकर जी की उपलब्धियों में एक और यह भी है कि जो लोग जातियों की कैद में छटपटा रहे थे, आज वे भी जातियों की कैद से बाहर नहीं आना चाहते. बल्कि होड़ मची हुई है लोगों में, कि कैसे उन जातियों के दायरे में ख़ुद को साबित किया जाए. एससी-एसटी होने का सर्टिफिकेट जुटाने के लिए लोग कौन-कौन से जतन नहीं करते? नई-नई जातियां सामने आती हैं और कहती हैं कि मुझे पिछड़ा या दलित घोषित कर दो.
यानी आधुनिक भारत में अनेक लोग मनु की बनाई जिस जातीय व्यवस्था को ख़त्म करना चाहते थे, अंबेडकर जी ने पावर टॉनिक पिलाकर उसे और तगड़ा कर दिया और इस तरह भारत मनुवादी जाति-व्यवस्था के दौर से आगे बढ़कर अंबेडकरवादी जाति-व्यवस्था के दौर में पहुंच गया. इसे भीमराव अंबेडकर जी की महिमा ही समझिए कि मनुवादी जाति-व्यवस्था की आलोचना की जाती है, पर अंबेडकरवादी जाति-व्यवस्था का गौरव-गान किया जाता है. यहां तक कि अंबेडकरवादी जाति-व्यवस्था को ही आज भारत में तरक्की, समानता और सशक्तीकरण का आधार समझा जाने लगा है. आरक्षण ने इस आधार को मज़बूती प्रदान करने और पक्का बनाने में सीमेंट जैसा काम किया है.
दरअसल, भीमराव अंबेडकर जी ने जातियों की दीवारों को मज़बूत करते हुए कुछ जातियों के लिए बैसाखियों की व्यवस्था करवाई. अब उन जातियों समेत अन्य जातियां भी कहने लगी हैं कि बैसाखियां मिल जाएं, तो टांगों की क्या ज़रूरत? यानी अब लोगों को टांगें नहीं, बैसाखियां ही चाहिए. तो यह भीमराव अंबेडकर जी का ही चमत्कार है कि बैसाखियों को टांगों से बेहतर विकल्प मान लिया गया है.
अब भारत में जब तक चुनावी लोकतंत्र रहेगा, कोई अन्य महापुरुष भी अंबेडकरवादी जाति-व्यवस्था को हिलाने की ज़ुर्रत नहीं कर सकते. इसे इस उदाहरण से भी समझा जा सकता है कि लोग कहते हैं कि बीजेपी में आरएसएस की मर्ज़ी के बिना पत्ता नहीं हिलता है, लेकिन आरएसएस के लोग भी जैसे ही भीमराव अंबेडकरवादी जाति-व्यवस्था (आरक्षण-आधारित) को हिलाने की बात करते हैं, ख़ुद ही हिला दिए जाते हैं.
भीमराव अंबेडकर जी के नाम की यही ताकत है. राम, कृष्ण, बुद्ध, गांधी सबकी आलोचना की जा सकती है, लेकिन उनकी आलोचना नहीं की जा सकती. वह आलोचना से परे हैं. और सिर्फ़ और सिर्फ़ फॉलो किए जा सकते हैं. चाहे उनके नाम पर आप रावण या महिषासुर का गुणगान करें. या याकूब मेमन के पक्ष में कैंपेन चलाएं. या अफ़जल गुरू की बरसी मनाएं.
जाकी रही भावना जैसी, भीम-मूरत देखी तिन तैसी.
भीमराव अंबेडकर जी के नाम का सहारा ऐसा है, जो आपको कभी बेसहारा नहीं होने देगा. बीजेपी ने भीमराव अंबेडकर नामधारी नेता को हराकर अच्छा नहीं किया.
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