राहुल गांधी (Rahul Gandhi) ने बिहार चुनाव (Bihar Election 2020) को लेकर जैसी सक्रियता दिखायी है, 2019 के आम चुनाव के बाद ऐसा पहली बार देखने को मिला है. वरना, महाराष्ट्र और हरियाणा के लिए सुना गया था कि सोनिया गांधी को विदेश दौरे से बुलाना पड़ा था - और झारखंड में तो आलम ये रहा कि 'रेप इन इंडिया' वाले भाषण के बाद वो फिर से विदेश दौरे पर रवाना हो गये. तभी तो उनके हिस्से की रैली कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा को करनी पड़ी थी.
दिल्ली चुनाव में तो राहुल गांधी और प्रियंका साथ साथ रोड शो और रैलियां किये थे, लेकिन बिहार चुनाव में कांग्रेस नेता ने गठबंधन साथी और महागठबंधन के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार तेजस्वी यादव (Tejashwi Yadav) के साथ मंच शेयर किया.
ऐसा तो नहीं कह सकते कि राहुल गांधी ने बिहार से जुड़े मुद्दों का जिक्र तक नहीं किया. बेशक प्रवासी मजदूरों का मुद्दा उठाया. लॉकडाउन को लेकर उनकी परेशानियों का जिक्र किया - लेकिन चाहते तो स्थानीय या क्षेत्रीय मुद्दों पर फोकस रख कर ज्यादा प्रभाव छोड़ सकते थे.
1. पहली रैली के लिए कोई और भी दिन चुन सकते थे
राहुल गांधी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से रैली की तारीख टकराने की जरूरत ही क्या थी? ये तो वो खुद भी मानते हैं कि प्रधानमंत्री मोदी उनके मुकाबले बढ़िया भाषण देते हैं. अपने ऑडिएंस से बेहतर तरीके से कनेक्ट होते हैं - ये सारी चीजें मालूम होने के बावजूद उसी दिन रैली करने की क्या जरूरत थी जब मोदी भी मोर्चे पर डटे हुए थे.
अगर पहले से मालूम नहीं था तो एक ही दिन के अपना कार्यक्रम टाल देते. फायदे में रहते. घर पर बैठ कर आराम से टीवी पर भाषण सुनते. गलतियां पकड़ते और अगले दिन चुन चुन कर जवाब भी देते.
लिख कर एक लाइन लाये जरूरत थे और अपने भाषण की शुरुआत भी उसी के साथ की भी. लोगों से पूछा भी, 'नीतीश जी की सरकार कैसी लगी आप लोगों को? मोदी जी के भाषण कैसे लगे?'
बिहार चुनाव में भी राहुल गांधी के निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही हैं, नीतीश कुमार नहीं!
अगर अच्छे से होम वर्क किये होते तो बताते भी अच्छे से. समझाते भी अच्छी तरह. हो सकता है लोग सुनते भी चाव से - लेकिन नतीजा ये रहा कि मीडिया कवरेज में भी अच्छी हिस्तेदारी के लिए संघर्ष करना पड़ा. ये तो टाला ही जा सकता था. है कि नहीं?
कांग्रेस के अंदरखाने से आ रही खबरों से मालूम होता है कि राहुल गांधी की फिर से ताजपोशी की तैयारियां शुरू हो चुकी हैं - और इस हिसाब से देखा जाये तो बिहार विधानसभा का चुनाव कांग्रेस की फिर से कमान संभालने से पहले राहुल गांधी के लिए एक बेहतरीन मौका हो सकता है. अभी ये कहना ठीक नहीं होगा कि पूरी तरह गंवा दिया, लेकिन इतना तो कहा ही जा सकता है कि मौके का बेहतर इस्तेमाल किया जा सकता था.
2. चीन सीमा विवाद पर एक दिन का व्रत रख लेते
नवरात्र का महीना चल रहा है. प्रधानमंत्री मोदी ने तो हर बार की तरह पूरे नौ दिन का व्रत रखा है. चूंकि राहुल गांधी खुद को शिव भक्त बताते हैं इसलिए नवरात्र न सही, कम से कम भारत-चीन सीमा विवाद पर तो एक दिन व्रत रख ही सकते थे - एक दिन के लिए इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी को न घेर कर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से जुड़े मुद्दों पर फोकस करते तो बेहतर होता.
ये पूछने के साथ ही कि मोदी का भाषण कैसा लगा, कहने लगे - 'मोदी जी ने कहा है कि बिहार के जो हमारे सैनिक शहीद हुए, उनके सामने वो अपना सिर झुकाते हैं... पूरा देश बिहार के शहीदों के सामने सिर झुकाता है.'
बोले, 'नरेंद्र मोदी ने ये नहीं कहे कि वो चीन को भारत की ताकत दिखाने जा रहे हैं. फिर दावा किया कि चीन ने हिंदुस्तान की '1200 वर्ग किलोमीटर' जमीन अपने कब्जे में ले रखी है!
3. एक दिन तो नीतीश पर फोकस रहते
चुनाव बिहार विधानसभा का है. ये ठीक है कि नीतीश कुमार के एनडीए का मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार होने के नाते प्रधानमंत्री नरेंद्र अपने तरीके से उनका बचाव करते हुए उनके लिए वोट मांग रहे हैं. राहुल गांधी को नीतीश पर फोकस रहना चाहिये था - न कि प्रधानमंत्री मोदी को टारगेट करने पर.
ये भी ठीक है कि राहुल गांधी राष्ट्रीय स्तर के नेता हैं और तेजस्वी यादव क्षेत्रीय स्तर के. निश्चित तौर पर राहुल गांधी का मुकाबला प्रधानमंत्री मोदी से और तेजस्वी यादव के लिए फिलहाल ये नीतीश कुमार के साथ है, लेकिन क्या इस चीज पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिये कि सामने क्या है?
एकबारगी तो ऐसा लगा जैसे तेजस्वी यादव, राहुल गांधी के मुकाबले मुद्दों को लेकर ज्यादा चतुराई दिखा रहे हैं, 'नीतीश जी कहते हैं कि बिहार समंदर के किनारे नहीं है इसलिए यहां उद्योग नहीं लग सके - लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि लालू जी ने रेल मंत्री रहते हुए मधेपुरा, छपरा में रेल कारखाना लगवाए या नहीं लगवाये?'
4. बेरोजगारी मुद्दा दिवस मनाने का मौका था
बाकी चीजों के अलावा बेरोजगारी और नौकरी देने की बातें राहुल गांधी के भाषणों में पूरे साल सदाबहार गीतों (या गालियों जैसी जिसकी भावना के हिसाब से उचित समझ में आये!) की तरह सुनने को मिलते हैं - ऐसे में जबकि बिहार में तेजस्वी यादव के 10 लाख नौकरी देने के चुनावी वादे के बाद बेरोजगारी प्रमुख मुद्दा बन चुका है और बीजेपी को भी अपना डबल जॉब पैकेज लाने को मजबूर होना पड़ा है - अच्छा तो ये होता कि राहुल गांधी बिहार में चुनावी मुहिम के पहले दिन को बेरोजगारी मुद्दा दिवस के रूप में मना लेते.
अब नोटबंदी और जीएसटी जैसी चीजों को भाषण में शामिल करने का क्या मतलब है. जब 2017 में गुजरात चुनाव हो रहे थे तब की बात और थी. मामला तात्कालिक था, लेकिन पांच साल की राजनीतिक के बाद 2019 का भी चुनाव हार जाने के बाद 2020 के विधानसभा चुनाव में 2014 के काले धन के 15 लाख वाले चुनावी जुमले के जिक्र का क्या मतलब रह जाता है?
राहुल गांधी चाहते तो तेजस्वी यादव के 10 लाख नौकरियों को बीजेपी के 19 लाख रोजगार से तुलना करके समझा सकते थे कि किसका पैकेज बेस्ट है - और है तो क्यों है?
5. प्रवासी मजदूरों से मुलाकात का किस्सा ही सुना देते
ये तो अच्छा हुआ कि राहुल गांधी ने कोरोना वायरस के चलते लॉकडाउन के फैसले की गलतियां गिनाने के लिए प्रवासी मजदूरों का मुद्दा उठाया और प्रधानमंत्री मोदी को खरी खोटी सुनायी - लेकिन उनके पास बेहतर संसाधन उपलब्ध थे जिसे वो लोगों से शेयर कर सकते थे.
याद कीजिये राहुल गांधी एक बार दिल्ली के एक फ्लाईओवर पर जाकर घर लौट से प्रवासी मजदूरों से मिले थे, जिसके बाद बीएसपी नेता मायावती ने खूब जोरदार हमला भी बोला था. तब राहुल गांधी ने जिन प्रवासी मजदूर परिवारों से मुलाकात की थी उनकी मदद के साथ साथ उनको घर भिजवाने का इंतजाम भी किया था.
राहुल गांधी के पास उनसे मुलाकात के किस्से तो होंगे ही. जो दर्द राहुल गांधी ने महसूस किया होगा वो सुनाकर चाहते तो लोगों के साथ ज्यादा कनेक्ट हो सकते थे - लेकिन ऐसा तो कुछ नहीं ही देखने को मिला.
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