अरविंद केजरीवाल फिलहाल तो लोकपाल के कवरेज क्षेत्र से बाहर लग रहे हैं. जाहिर मुख्यधारा की राजनीति की मजबूरियां कुछ तो होती ही होंगी. कौन जाने 'लोकपाल' भी अरविंद केजरीवाल के लिए 'अन्ना हजारे' की ही तरह आंदोलन से राजनीति में आने का एक तात्कालिक टूल रहा हो - और सलाह भी तो यही दी जाती है - 'बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेहु...' अब ये तो समझने वाले पर निर्भर करता है कि वो किसी भी नसीहत को अपने हिसाब से कैसे कस्टोमाइज करता है.
आखिर प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी जिन मुद्दों पर गरजते रहते थे, बाद के दिनों में कुर्सी पर बैठने के बाद तो बरसने की बात भी भूल ही गये. विपक्ष का एक काम ये भी होता है कि समय समय पर वो सरकार की जिम्मेदारियों में शामिल भूली-बिसरी बातों को याद दिलाता रहे. जब से राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बात को मन से कबूल कर लिया, काफी सचेत हो गये. अब तो वो लोकपाल के नाम पर मोदी सरकार को ताने भी मारने लगे हैं.
राहुल को लोकपाल क्यों पसंद आने लगा?
गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी से गुजरात में बीजेपी के 22 साल के शासन को लेकर ट्विटर पर लगातार सवाल पूछ रहे थे. दूसरे चरण के चुनाव से पहले उनका सवाल लोकपाल को लेकर था. राहुल ने पूछा था - लोकपाल को दरकिनार क्यों किया?
राहुल गांधी ने एक बार फिर लोकपाल के नाम पर प्रधानमंत्री मोदी पर हमला बोला है. राहुल ने अपने ट्वीट में मोदी के ही 2013 का एक ट्वीट शामिल किया है. राहुल का ये ट्वीट तब आया है जब वो कर्नाटक चुनाव की तैयारी कर रहे हैं.
रामलीला आंदोलन के वक्त लोकपाल के प्रति राहुल गांधी का क्या विचार रहा, शायद ही किसी को याद हो. मालूम नहीं उन्हें भी कुछ याद है कि नहीं. तब ये...
अरविंद केजरीवाल फिलहाल तो लोकपाल के कवरेज क्षेत्र से बाहर लग रहे हैं. जाहिर मुख्यधारा की राजनीति की मजबूरियां कुछ तो होती ही होंगी. कौन जाने 'लोकपाल' भी अरविंद केजरीवाल के लिए 'अन्ना हजारे' की ही तरह आंदोलन से राजनीति में आने का एक तात्कालिक टूल रहा हो - और सलाह भी तो यही दी जाती है - 'बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेहु...' अब ये तो समझने वाले पर निर्भर करता है कि वो किसी भी नसीहत को अपने हिसाब से कैसे कस्टोमाइज करता है.
आखिर प्रधानमंत्री बनने से पहले नरेंद्र मोदी जिन मुद्दों पर गरजते रहते थे, बाद के दिनों में कुर्सी पर बैठने के बाद तो बरसने की बात भी भूल ही गये. विपक्ष का एक काम ये भी होता है कि समय समय पर वो सरकार की जिम्मेदारियों में शामिल भूली-बिसरी बातों को याद दिलाता रहे. जब से राहुल गांधी ने कांग्रेस अध्यक्ष बनने की बात को मन से कबूल कर लिया, काफी सचेत हो गये. अब तो वो लोकपाल के नाम पर मोदी सरकार को ताने भी मारने लगे हैं.
राहुल को लोकपाल क्यों पसंद आने लगा?
गुजरात चुनाव के दौरान राहुल गांधी प्रधानमंत्री मोदी से गुजरात में बीजेपी के 22 साल के शासन को लेकर ट्विटर पर लगातार सवाल पूछ रहे थे. दूसरे चरण के चुनाव से पहले उनका सवाल लोकपाल को लेकर था. राहुल ने पूछा था - लोकपाल को दरकिनार क्यों किया?
राहुल गांधी ने एक बार फिर लोकपाल के नाम पर प्रधानमंत्री मोदी पर हमला बोला है. राहुल ने अपने ट्वीट में मोदी के ही 2013 का एक ट्वीट शामिल किया है. राहुल का ये ट्वीट तब आया है जब वो कर्नाटक चुनाव की तैयारी कर रहे हैं.
रामलीला आंदोलन के वक्त लोकपाल के प्रति राहुल गांधी का क्या विचार रहा, शायद ही किसी को याद हो. मालूम नहीं उन्हें भी कुछ याद है कि नहीं. तब ये भी माना गया था कि रामलीला आंदोलन को सत्ताधारी कांग्रेस ने ठीक से हैंडल नहीं किया. दिलचस्प बात ये है कि सोनिया के बीमार होने के कारण उन दिनों दारोमदार भी राहुल गांधी पर ही रहा. वैसे अपडेट यही है कि लोकपाल विधेयक 2013 में संसद में पास होने के बावजूद तकनीकी कारणों से अमल में नहीं आ सका - और लोकपाल की नियुक्ति नहीं हो सकी. लोकपाल को लेकर चर्चा ऐसे समय हो रही है जब इसी को हथियार बना कर सत्ता में पहुंची आम आदमी पार्टी इसे भूल चुकी लगती है. जिस आम आदमी पार्टी में लोकपाल का जिक्र होना चाहिये उसे राज्य सभा के लिए पैसे लेकर टिकट देने के आरोपों से जूझना पड़ रहा है. या तो आप भी पूरी तरह बाकी सत्ता धारी दलों जैसी हो गयी है, या फिर लोकपाल की उसकी जरूरत पूरी हो चुकी है.
खास बात ये है कि इन दिनों लोकपाल को लेकर निशाने पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं. एक तरफ राहुल गांधी मोदी के ही पुराने ट्वीट का हवाला देकर उन पर हमला बोल रहे हैं, तो दूसरी तरफ अन्ना हजारे लोकपाल लागू न करने को लेकर नये सिरे से आंदोलन की धमकी दे रहे हैं.
अन्ना का तो ड्रीम प्रोजेक्ट रहा है लोकपाल, लेकिन इस में राहुल गांधी नये प्लेयर हैं. सवाल ये है कि आखिर राहुल गांधी को अचानक लोकपाल इतना पसंद क्यों आने लगा है?
राहुल गांधी ये तो समझ ही रहे होंगे कि गुजरात मॉडल को सामने रख कर कर्नाटक चुनाव नहीं लड़ सकते. कर्नाटक में कांग्रेस सरकार की हालत हिमाचल प्रदेश जैसी तो नहीं है, लेकिन ये सच तो स्वीकार करना ही होगा कि वहां सत्ता विरोधी लहर तो असर दिखाएगी ही.
हिमाचल से अलग कर्नाटक में कांग्रेस के सामने बीजेपी बीएस येदियुरप्पा को उतारेगी जिन्हें कभी भ्रष्टाचार के मामलों में ही कुर्सी छोड़नी पड़ी थी. कर्नाटक में गुजरात जैसी एक बात जरूर है - वहां, पर्दे के पीछे से ही कांग्रेस के खिलाफ वाघेला थे, कर्नाटक में ये किरदार एसएम कृष्णा निभाएंगे. येदियुरप्पा ही कृष्णा को बीजेपी में ले गये हैं. वैसे जिस वक्त कृष्णा ने बीजेपी ज्वाइन की थी, उपचुनाव होने थे - और उसमें कांग्रेस बीजेपी को शिकस्त देने में कामयाब रही.
अन्ना और आजादी का अगला आंदोलन
अन्ना हजारे ने रामलीला आंदोलन को आजादी का दूसरा आंदोलन बताया था. उसके बाद हर साल दो-तीन बार तो अन्ना आंदोलन छेड़ने की बात करते ही हैं. इस बार उन्होंने एक तारीख भी मुकर्रर की है - 23 मार्च. ये तारीख भी अन्ना ने सोच समझ कर ही तय की होगी. दरअसल, 23 मार्च शहीद भगत सिंह का शहादत दिवस है. जाहिर है अन्ना लोकपाल की मांग को लेकर चलाए जाने वाले अपने आंदोलन को आजादी से जोड़ते रहे हैं - इस बार उसके लिए शहादत की बात पिरोयी जा रही है.
अन्ना तो पहले भी केजरीवाल को लेकर अपनी नाराजगी जताते रहे हैं, इस बार उन्होंने खास तौर पर कहा है कि केजरीवाल और किरण बेदी जैसे लोगों के लिए उनके आंदोलन में नो एंट्री का बोर्ड पहले से ही लगा रहेगा. रामलीला आंदोलन में केजरीवाल के साथ शामिल किरण बेदी ने बीजेपी ज्वाइन कर लिया. बीजेपी ने किरण बेदी को दिल्ली में सीएम कैंडिडेट बनाया था - और हार जाने के बाद केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की ही कृपा से फिलहाल वो पुड्डुचेरी की उप राज्यपाल हैं.
अन्ना हजारे ने स्वीकार किया है कि अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी जैसे लोगों को अपने आंदोलन से जोड़ना उनकी जिंदगी की बड़ी भूल थी. अन्ना ने बीती बातों को भूलने की जगह उनसे सबक लेते हुए आगे का फैसला ले रहे हैं. अन्ना के अनुसार, भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलन में इस बार उनसे जुड़ने वाले लोगों से ₹ 100 के स्टांप पेपर पर यह बॉन्ड भरवा रहे हैं कि भविष्य में वे किसी राजनीतिक पार्टी से नहीं जुड़ेंगे. अन्ना का कहना है कि अगर किसी ने बॉन्ड की थर्तें तोड़ी तो वो उनके खिलाफ कानूनी एक्शन लेंगे.
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