सियासी चश्मे से देखें तो यह महाधिवेशन की टाइमिंग बेहद महत्वपूर्ण है. 2019 के लोकसभा चुनाव का बिगुल फुंक चुका है. मोदी का तिलिस्म तोड़ना अब नामुमकिन नहीं. राहुल गांधी देश की सबसे पुरानी पार्टी के युवराज से अब कांग्रेस सल्तनत के बेताज बादशाह बन गए हैं. भले ही सल्तनत सिकुड़ी और सिमटी हो पर हूल में कोई कमी नहीं है.
कांग्रेस सल्तनत के बेताज बादशाह हैं राहुल
बुलऊव्वा आया तो बेचारे कार्यकर्ता भी चले आए दिल्ली हाजिरी देने. इस आस में कि महाधिवेशन के जरिए ही सही कांग्रेस के अच्छे दिन की कुछ चर्चा ही हो जाएगी. आलम ये था कि कांग्रेस दफ्तर में कार्यकर्ताओं की क्रीम ऑफ क्रीम नजर आई. जी हां, क्रीम ऑफ क्रीम इसलिए क्योंकि इनमें से एक तबका ऐसा है जो काफी छटाई-कटाई के बाद कांग्रेस डेलीगेट्स की लिस्ट में शामिल हैं. सो नेताजी के चेहरे पर नूर लिए, पीली पट्टी वाला पास टांगे, सीना चौड़ा करे कांग्रेस दफ्तर के गलियारों में बड़े उचक-उचक के चक्कर लगाते नजर आए.
वहीं दूसरा तबका मुंह लटकाए, चेहरों पर टेंशन लिए...एक रूम से दूसरे रूम में 'पीली पट्टी' वाले पास की आस में चक्कर काट रहे थे. जो हल्के वज़नदार थे वो ऊपर से नाराज़ नज़र आये भले ही पास ना मिलने से मन में डुगडुगी बंधी हो.
इस सब के बीच अकबर रोड से कुछ किलोमीटर दूर इंदिरा गांधी स्टेडियम की साज सज्जा का जायज़ा ले रही थीं राहुल की रणनीतिकार. प्रियंका गांधी वाड्रा खुद इंतेज़ाम की कमान संभाले हुए हैं. सियासी रण में अक्सर प्रियंका राहुल की सारथी के रूप में नज़र आई हैं.
मगर उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनाव में कांग्रेस-सपा को मिले झटके के बाद राहुल की बहन कुछ समय तक बैक स्टेज से भी नदारद रहीं.
प्रियंका गांधी वाड्रा खुद इंतेज़ाम की कमान संभाले हुए हैं
जब बुधवार को वो स्टेडियम पहुंचीं तो एक बार फिर कार्यकर्ताओं को इंदिरा की याद दिला गईं. कांग्रेस दफ्तर में सफेद कुर्तों की जमघट के बीच कुछ रंग बिरंगी साड़ियां दिखीं तो हमने उनका मिजाज़ भी भांपने की कोशीश की. सोनिया की क़सीदे पढ़ने और राहुल की पीठ थपथपाने के बीच प्रियंका का ज़िक्र भी चला आया. सो सब एक सुर में उनसे राजनीति में आने की विनती करने लगीं मानो प्रियंका सामने खड़ी हों. ये आम आदमी के समझ से भले ही परे हो पर सच है कि गांधी परिवार से कांग्रेस कार्यकर्ता का जुड़ाव अनोखा है. गांधी परिवार का ज़िक्र भी सबके चेहरे को रोशनदान में तब्दील कर देता है.
पर आज भी कार्यकर्ता इंदिरा को याद करते हैं. इंदिरा जैसे नेतृत्व के आभाव से पार्टी लगातार कमज़ोर होती चली गई. कांग्रेस की 'उस' आंधी का इंतेज़ार आज भी उनके समर्थकों को है. तभी तो रह रह कर मन की बात ज़ुबान पर चली आती है.
ऐसे में कांग्रेस के नए अध्यक्ष राहुल के सामने चुनौती बाहरी से ज़्यादा भीतरी है. स्टेडियम के मैदान से कांग्रेस के कप्तान का संदेश पार्टी के हर एक खिलाड़ी को कितना प्रोत्साहित करता है ये देखना दिलचस्प होगा. क्योंकि कागज़ी प्रस्तावों और हवा हवाई वादों से हट कर राहुल गांधी के सामने पार्टी में आत्मविश्वास जगाने की सबसे बड़ी चुनौती है.
कांग्रेस के हाल पर आशुफ़्ता चंगेज़ी साहब का शेर याद आता है...
'सवाल करती कई आंखें मुंतज़िर हैं यहां,
जवाब आज भी हम सोच कर नहीं आए...'
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