राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) कांग्रेस में नये नेतृत्व के रूप में उभर कर सामने आ चुके हैं - और ये अधिक स्पष्ट पंजाब कांग्रेस संकट के दौरान ही हुआ है. तस्वीर ज्यादा साफ तब हुई जब कांग्रेस के भीतर से ही सवाल उठा, 'जब कांग्रेस के पास कोई अध्यक्ष ही नहीं तो फैसले कौन ले रहा है?' और सोनिया गांधी ने आगे बढ़ कर जिस तरीके से बच्चों का बचाव किया है, सब कुछ दूध का दूध और पानी का पानी जैसा लगने लगा है.
सोनिया गांधी भारत से बाहर जन्म लेने के बावजूद परिवारवाद की राजनीति में ओल्ड-स्कूल-सोच (Old Fashioned) की पक्षधर लगती हैं. देखा जाये तो कांग्रेस की पॉलिटिक्स को सोनिया गांधी डेबिट कार्ड की तरह ही बड़े जतन से संभाल कर रखतीं - और फिर आवश्यक आवश्यकताओं के लिए भी खर्च करती हैं, लेकिन बच्चों की पीढ़ी खानदानी विरासत को क्रेडिट कार्ड जैसा समझ बैठी है - और उड़ाने लगे हैं. ये भी सोनिया गांधी की तत्परता से ही समझ में आता है.
2019 के आम चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद जब राहुल गांधी ने गैर-गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का पासा फेंका तो सोनिया गांधी को समझ आ गया कि मंशा जो भी रास्ता बर्बादी की तरफ जा सकता है. कांग्रेस की कमान गांधी परिवार से फिसल सकती है - और अगर किसी काबिल नेतृत्व में सब कुछ संभाल लिया, फिर तो कुछ भी हाथ नहीं आने वाला है. ये ख्याल दिमाग में आते ही सोनिया गांधी फटाफट अंतरिम अध्यक्ष बन गयीं - और अब सवाल पूछने वालों को 'खामोश' कर देने वाले लहजे में बड़े सभ्य तरीके से विलायती भाषा में समझाने की कोशिश कर रही हैं - अगर आप इजाजत दें तो मैं कहूंगी कि मैं ही अध्यक्ष हूं... पूर्णकालिक!
पूरी व्यवस्था में काम करने की जितनी छूट अब तक राहुल गांधी को मिली है, प्रियंका गांधी वाड्रा को हाल तक हर काम पूछ पूछ कर करते रहना पड़ता होगा. सचिन पायलट से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू का केस सुलझाने के लिए भी भले ही अपने मिल लेती हों, लेकिन सोनिया गांधी से अलग अनुमति लेनी होती है और राहुल गांधी से अलग से परमिशन - और...
राहुल गांधी (Rahul Gandhi) और प्रियंका गांधी वाड्रा (Priyanka Gandhi Vadra) कांग्रेस में नये नेतृत्व के रूप में उभर कर सामने आ चुके हैं - और ये अधिक स्पष्ट पंजाब कांग्रेस संकट के दौरान ही हुआ है. तस्वीर ज्यादा साफ तब हुई जब कांग्रेस के भीतर से ही सवाल उठा, 'जब कांग्रेस के पास कोई अध्यक्ष ही नहीं तो फैसले कौन ले रहा है?' और सोनिया गांधी ने आगे बढ़ कर जिस तरीके से बच्चों का बचाव किया है, सब कुछ दूध का दूध और पानी का पानी जैसा लगने लगा है.
सोनिया गांधी भारत से बाहर जन्म लेने के बावजूद परिवारवाद की राजनीति में ओल्ड-स्कूल-सोच (Old Fashioned) की पक्षधर लगती हैं. देखा जाये तो कांग्रेस की पॉलिटिक्स को सोनिया गांधी डेबिट कार्ड की तरह ही बड़े जतन से संभाल कर रखतीं - और फिर आवश्यक आवश्यकताओं के लिए भी खर्च करती हैं, लेकिन बच्चों की पीढ़ी खानदानी विरासत को क्रेडिट कार्ड जैसा समझ बैठी है - और उड़ाने लगे हैं. ये भी सोनिया गांधी की तत्परता से ही समझ में आता है.
2019 के आम चुनाव में कांग्रेस की हार के बाद जब राहुल गांधी ने गैर-गांधी कांग्रेस अध्यक्ष का पासा फेंका तो सोनिया गांधी को समझ आ गया कि मंशा जो भी रास्ता बर्बादी की तरफ जा सकता है. कांग्रेस की कमान गांधी परिवार से फिसल सकती है - और अगर किसी काबिल नेतृत्व में सब कुछ संभाल लिया, फिर तो कुछ भी हाथ नहीं आने वाला है. ये ख्याल दिमाग में आते ही सोनिया गांधी फटाफट अंतरिम अध्यक्ष बन गयीं - और अब सवाल पूछने वालों को 'खामोश' कर देने वाले लहजे में बड़े सभ्य तरीके से विलायती भाषा में समझाने की कोशिश कर रही हैं - अगर आप इजाजत दें तो मैं कहूंगी कि मैं ही अध्यक्ष हूं... पूर्णकालिक!
पूरी व्यवस्था में काम करने की जितनी छूट अब तक राहुल गांधी को मिली है, प्रियंका गांधी वाड्रा को हाल तक हर काम पूछ पूछ कर करते रहना पड़ता होगा. सचिन पायलट से लेकर नवजोत सिंह सिद्धू का केस सुलझाने के लिए भी भले ही अपने मिल लेती हों, लेकिन सोनिया गांधी से अलग अनुमति लेनी होती है और राहुल गांधी से अलग से परमिशन - और ये सब आज के जमाने में भी फोन पर नहीं हो पाता, मां से मिलने एक जगह जाना पड़ता है और भाई से अलग मिलने के लिए दूसरी जगह. उस पर भी, जब आम सहमति बनती है तभी सब लोग एक जगह इकट्ठा होकर बातचीत कर पाते हैं.
क्या ये राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा की अलग अलग पॉलिटिकल परवरिश और उनके सामने मौजूद राजनीतिक परिवेश ही हो सकता है, जो दोनों के लिए अलग अलग सियासी रास्ता तैयार कर रहा है?
2019 के आम चुनाव में मोदी विरोध (Narendra Modi) पर आधारित राहुल गांधी का चुनावी स्लोगन रहा - 'चौकीदार चोर है', जबकि प्रियंका गांधी वाड्रा ने 2022 के लिए नया नारा गढ़ा है, 'लड़की हूं... लड़ सकती हूं'.
देखा जाये तो दोनों स्लोगन के बीच करीब पांच साल का फर्क है क्योकि राहुल गांधी ने अपना स्लोगन सबसे पहले 2018 में इस्तेमाल किया था. चूंकि कांग्रेस ने बीजेपी को सत्ता से बेदखल कर तीन राज्यों में अपनी सरकार बना ली थी, लिहाजा राहुल गांधी को अपना स्लोगन बेहद कारगर लगा और उसे आगे भी इस्तेमाल करने का फैसला किया, लेकिन आगे ऐसा खतरनाक मोड़ आया कि अपनी अमेठी सीट तक गंवानी पड़ी. प्रियंका गांधी ने जो नारा गढ़ा है वो 2022 के यूपी विधानसभा चुनावों के लिए है.
दोनों नारों में एक बुनियादी फर्क है. दोनों में अलग अलग संदेश छिपे हुए हैं. एक स्लोगन पहले से ही विकल्प पेश कर रहा है, जबकि दूसरा बिलकुल निर्विकल्प छोड़ देता है और तभी टीना फैक्टर खड़ा हो जाता है. TINA फैक्टर राजनीति में उस थ्योरी को कहते हैं जब लोगों के पास कोई विकल्प नजर नहीं आता - राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की राजनीति में मूल रूप से यही अंतर लगता है.
जो राहुल गांधी आखिर तक नहीं समझा पाये
2019 के आम चुनाव की बात कौन कहे, 2021 में हुए विधानसभा चुनावों के दौरान भी राहुल गांधी लोगों को ये नहीं समझा पाये कि वे कांग्रेस की राजनीति में क्यों दिलचस्पी लें?
किसी को अपनी बात समझाने का मतलब महज अपनी बात कह देना भर नहीं होता है, जिसके लिए उन बातों का समझा जाना जरूरी है - उनको समझने वाले तरीके से समझाना भी होता है और ये किसी के साथ कनेक्ट और डिस्कनेक्ट होने भर का का ही फर्क नहीं है.
अगर नरेंद्र मोदी लोगों को अपनी बात समझा लेते हैं और राहुल गांधी नहीं समझा पाते तो बात यहीं नहीं खत्म हो जाती. मोदी आज लोगों को वे बातें ही समझा रहे हैं जो लोग अरसे से समझना चाहते थे. बस उनको किसी ऐसे ही समझाने वाले का इंतजार रहा. वरना, राहुल गांधी को तो देश भर के लोगों से सीधे संवाद का मौका मोदी से पहले से मिला हुआ है.
2004 में जब राहुल गांधी ने राजनीति शुरू की, तब से लेकर दस साल तक कांग्रेस की केंद्र में सरकार रही और नरेंद्र मोदी तब तक गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे. सत्ता में होने का कोई मतलब होता है तो 2014 तक तो राहुल गांधी भी वैसी ही स्थिति में रहे - तब तो अक्सर ही ये संदेश जाहिर किया जाता रहा कि जब भी राहुल गांधी चाहें, मनमोहन सिंह को कुर्सी खाली करने में एक मिनट का भी वक्त नहीं लगेगा. राहुल गांधी का जो प्रभाव फिलहाल कांग्रेस पार्टी पर है, तब पार्टी के सत्ता में होने के नाते आंच तो सरकार तक में महसूस किया ही जाता रहा होगा. जब प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी के एक ऑर्डिनेंस की कॉपी फाड़ देने भर से सरकार कदम पीछे खींच लेती हो तो बाकी बातें तो अपनेआप समझ आ जानी चाहिये.
किसी राजनीतिक दल के केंद्र की सत्ता पर काबिज होने के प्रभाव के नजरिये से देखें तो अभी मोदी को तो सात साल ही हुए हैं, जबकि राहुल गांधी ये सब दस साल तक अनुभव कर चुके हैं. अगर 2004 से शुरू करें तो राहुल गांधी के पास प्रत्यक्ष राष्ट्रीय राजनीति का 17 साल का अनुभव हो जाता है.
लेकिन हैरानी की बात ये है कि 2024 की रणनीति पर काम कर रहे राहुल गांधी राहुल गांधी अब भी खुद को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बजाये पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बेहतर साबित करने में लगे हुए हैं. ममता बनर्जी के दिल्ली और गोवा दौरे में तो यही देखने को मिला है. देखते हैं छठ के बाद जब ममता बनर्जी यूपी का रुख करती हैं तो राहुल गांधी का क्या स्टैंड होता है.
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी बीजेपी के अभी बरसों बरस देश की राजनीति में बने रहने को लेकर जो कुछ कहा है, उसके पीछे भी वही दलील है जहां राहुल गांधी बार बार गच्चा खा जाते हैं.
एक वीडियो के जरिये सामने आये प्रशांत किशोर के नजरिये को तो कांग्रेस के सोशल मीडिया सेल ने 'एक भक्त की राय...' जैसा बता कर रस्म निभा ली, लेकिन उस पर गंभीरता से विचार किया गया या नहीं ये मायने रखता है.
प्रशांत किशोर पहले ही कह चुके हैं कि बीजेपी को 2024 में हराना असंभव नहीं है. प्रशांत किशोर के बयान पर ममता बनर्जी की टिप्पणी भी महत्वपूर्ण है. प्रशांत किशोर के बयान को ममता बनर्जी ने कुछ ऐसे समझाने की कोशिश की है कि अगर कोशिशें ठीक से नहीं की गयीं तो ये हो सकता है.
कांग्रेस के ही कई सीनियर नेता जयराम रमेश, शशि थरूर और अभिषेक मनु सिंघवी तक राहुल गांधी को समझाने की कोशिश कर चुके हैं कि वो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर निजी हमलों से बचने की कोशिश करें और मोदी सरकार की गलतियों पर हमला बोलें. प्रियंक गांधी वाड्रा यही करती हैं, जबकि राहुल गांधी ऐसी बातों की कभी परवाह नहीं करते.
राहुल गांधी से सहानुभूति रखते हुए सोचें तो देश का राजनीतिक माहौल पूरी तरह बदल चुका है और वो मौजूदा राजनीतिक वातावरण में मिसफिट साबित होने लगे हैं - तब भी जबकि राहुल गांधी न तो ममता बनर्जी की तरह जय श्रीराम सुन कर आपे से बाहर हो जाते हैं और न ही अरविंद केजरीवाल की तरह हनुमान चालीसा पढ़ते पढ़ते जय श्रीराम का नारा ही लगाते हैं.
जब तक राहुल गांधी 'चौकीदार चोर है' वाली राजनीतिक सोच से आगे बढ़ कर सोचने और समझने के लिए तैयार नहीं होते - वो 2024 तक मोदी के भ्रम में ममता बनर्जी से ही लड़ते रह जाएंगे. वो लोगों को प्रॉब्लम तो बता अपनी तरफ से बता देते हैं, लेकिन सॉल्यूशन का पता नहीं होता. प्रॉब्लम अब किसी को पसंद नहीं रहा, तमाम मुश्किलों से जूझ रहा हर कोई सॉल्यूशन ढूंढ रहा है - और जब तक राहुल गांधी ये नहीं समझ लेते कुछ भी नहीं बदलने वाला है.
जो प्रियंका गांधी पहले ही साफ कर रही हैं
बतौर कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी ने जब गुजरात में हुए कांग्रेस के कार्यक्रम में अपना पहला भाषण दिया था तो शुरुआत परंपरागत तरीके से नहीं की थी. प्रियंका गांधी के भाषण के शुरुआती शब्दों का क्रम था - "बहनो और भाइयों..."
यूपी चुनाव में 40 फीसदी महिला उम्मीदवारों को टिकट देने का संकल्प जता कर प्रियंका गांधी अपनी उसी बात को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही हैं. प्रियंका गांधी ने महिलाओं को टिकट देने के साथ ही छात्राओं को स्मार्टफोन देने और स्कूटी देने का वादा कर ये संदेश देने की कोशिश की है कि वो महिलाओं को संघर्ष से समृद्धि की ओर ले जाने के प्रयास में जुटी हैं.
संघर्ष सभी को करने पड़ते हैं, तरीके अलग हो सकते हैं. पुरुष और महिला के संघर्ष अलग अलग होते हैं और दोनों की बॉयोलॉजिकल बनावट का भी अहम रोल होता है. महिलाएं संघर्ष की मिसाल होती हैं, ऐसा माना भी इसीलिये जाता है. उत्तर प्रदेश में 45 फीसदी महिला वोटर हैं - कुल 14.40 करोड़ वोटर में से 7.79 करोड़ पुरुष और 6.61 करोड़ महिलाएं हैं.
प्रियंका गांधी ये समझाने की कोशिश कर रही हैं कि महिलाएं सिर्फ संघर्ष ही नहीं करतीं, संघर्ष के जरिये चीजों को अंजाम तक पहुंचाती भी हैं. ये रास्ता दिखाना ही तो वो विकल्प है जो राहुल गांधी की राजनीति में अब तक मिसिंग है.
भारतीय समाज में महिलाओं के लिए परिवार क्या मायने रखता है ये मैसेज देने के लिए ही प्रियंका गांधी 2019 के आम चुनाव से पहले रॉबर्ट वाड्रा को ईडी दफ्तर तक छोड़ने गयी थीं. बाद में मीडया के सवाल पर कहा भी - मैं अपने परिवार के साथ हूं. ठीक वैसा ही रिटर्न गिफ्ट रॉबर्ट वाड्रा ने करवा चौथ के मौके पर दिया था. रॉबर्ट वाड्रा ने पत्नी के साथ साथ सभी महिलाओं और लड़कियों को बधाई देते हुए अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा, 'मुझे पता है कि प्रियंका ने हमेशा परंपराओं का पालन किया है - और धार्मिक रूप से अपना उपवास रखती हैं... मेरे और अपने पूरे परिवार की सुरक्षा और भलाई के लिए प्रार्थना करती हैं... मैं प्रार्थना करता हूं कि वो खुश रहें.'
हमले और आक्रामक रुख तो प्रियंका गांधी भी राजनीतिक विरोधियों के खिलाफ अख्तियार करती हैं, लेकिन राहुल गांधी के मुकाबले उसमें बड़ा सा अंतर दिखायी देता है. राहुल गांधी जो अपना लेवल समझते हैं उसके हिसाब से वो प्रधानमंत्री मोदी पर ही हमलावर होते हैं, जबकि यूपी की राजनीति को देखते हुए प्रियंका गांधी मुख्य टारगेट योगी आदित्यनाथ के साथ साथ मोदी को भी निशाना बना ही लेती हैं.
राहुल गांधी के स्लोगन से लगता है जैसे वो ये तो बता रहे होते हैं कि सामने वाला गलत है, उसको बदलो, लेकिन वो ये बताना भूल जाते हैं कि लोग बदलने का फैसला करें भी तो किसके भरोसे. अपने राजनीतिक विरोधी को बुरी तरह टारगेट करने में राहुल गांधी भूल जाते हैं कि राजनीतिक लड़ाई कोई दो मुल्कों के बीच नहीं बल्कि अपने ही देश में वैचारिक विरोधियों के बीच हो रही है - हो सकता है भड़ास जबान पर आने के बाद मन हल्का हो जाता हो, लेकिन लोगों को क्या मिलता है - लोगों के सामने कोई विकल्प भी तो होना चाहिये.
प्रियंका गांधी ने जो स्लोगन दिया है, वो राहुल गांधी की राजनीति से एक कदम आगे की बात कर रहा है - सामने वाले को दुश्मन जैसा बताते हुए पूरी गलत साबित करने से पहले प्रियंका गांधी वाड्रा खुद को विकल्प के तौर पर पेश कर रहा है - 'लड़की हूं... लड़ सकती हूं!'
हालात जो भी हों. जरूरतें जैसी भी हों, फर्क नहीं पड़ता. लड़ाई से हर मुश्किल आसान हो सकती है. लड़ाई से हर समस्या खत्म की जा सकती है - ये लड़ाई विकल्पों के साथ ही शुरू हो रही है. राजनीति में विकल्प पेश किये बगैर ऐसी लड़ाइयां लकीर पीटने जैसी ही होती हैं.
सबसे बड़ा फर्क ये है कि प्रियंका गांधी पहले ही बता दे रही हैं कि विकल्प वो लड़की है, जो लड़ने के लिए तैयार है. लेकिन राहुल गांधी आखिर तक नहीं समझा पाते कि अगर 'चौकीदार चोर है', तो आगे साधु या गृहस्थ या राजनीति के हिसाब से विकल्प यानी नेता कहां है?
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