चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बाद तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने भी देश में भाजपा के मजबूत होने के पीछे कांग्रेस को ही जिम्मेदार बता दिया है. ममता बनर्जी की मानें, तो देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के ताकतवर होने की वजह कांग्रेस का फैसले न लेना है. बंगाल की मुख्यमंत्री ने साफ कर दिया है कि अब वो दिल्ली (कांग्रेस) की 'दादागिरी' नही सहेंगी. मिशन 2024 के लिए 'दिल्ली' जिस तरह से साझा विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रही थी, ममता बनर्जी ने इस प्रयास में पलीता लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. बीच-बीच में एनसीपी चीफ शरद पवार भी बहती गंगा में हाथ धोने से परहेज करते नजर नहीं आ रहे हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो दिल्ली की गद्दी पर अब तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो केवल अपना दावा ही नही ठोंक रही हैं. बल्कि, नरेंद्र मोदी और भाजपा के उभार के लिए कांग्रेस को दोषी ठहरा कर गांधी परिवार का भविष्य भी चौपट करने की तैयारी में जुट गई हैं. ममता बनर्जी के सामने राहुल गांधी और सोनिया गांधी के सारे दांव विफल हो चुके हैं. कहना गलत नहीं होगा कि जैसे सियासी हालात बने हुए हैं, उसमें प्रियंका गांधी ही ममता बनर्जी को रोक सकती हैं, राहुल-सोनिया नहीं.
राहुल गांधी के राजनीतिक रेज्यूमे में 'हार' सबसे बड़ी उपलब्धि
2014 में कांग्रेस के सत्ता से बाहर जाने की मुख्य वजहें यूपीए सरकार के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर और देश में पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर चल रही मोदी लहर कही जा सकती हैं. लेकिन, कांग्रेस को मिली इस हार में राहुल गांधी के सहयोग को नकारा नहीं जा सकता है. गांधी परिवार की ओर से एकमात्र उम्मीद के तौर पर प्रोजेक्ट किए गए राहुल गांधी विधेयक...
चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर के बाद तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने भी देश में भाजपा के मजबूत होने के पीछे कांग्रेस को ही जिम्मेदार बता दिया है. ममता बनर्जी की मानें, तो देश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा के ताकतवर होने की वजह कांग्रेस का फैसले न लेना है. बंगाल की मुख्यमंत्री ने साफ कर दिया है कि अब वो दिल्ली (कांग्रेस) की 'दादागिरी' नही सहेंगी. मिशन 2024 के लिए 'दिल्ली' जिस तरह से साझा विपक्ष को एकजुट करने की कोशिश कर रही थी, ममता बनर्जी ने इस प्रयास में पलीता लगाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी है. बीच-बीच में एनसीपी चीफ शरद पवार भी बहती गंगा में हाथ धोने से परहेज करते नजर नहीं आ रहे हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो दिल्ली की गद्दी पर अब तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो केवल अपना दावा ही नही ठोंक रही हैं. बल्कि, नरेंद्र मोदी और भाजपा के उभार के लिए कांग्रेस को दोषी ठहरा कर गांधी परिवार का भविष्य भी चौपट करने की तैयारी में जुट गई हैं. ममता बनर्जी के सामने राहुल गांधी और सोनिया गांधी के सारे दांव विफल हो चुके हैं. कहना गलत नहीं होगा कि जैसे सियासी हालात बने हुए हैं, उसमें प्रियंका गांधी ही ममता बनर्जी को रोक सकती हैं, राहुल-सोनिया नहीं.
राहुल गांधी के राजनीतिक रेज्यूमे में 'हार' सबसे बड़ी उपलब्धि
2014 में कांग्रेस के सत्ता से बाहर जाने की मुख्य वजहें यूपीए सरकार के खिलाफ सत्ताविरोधी लहर और देश में पीएम नरेंद्र मोदी के नाम पर चल रही मोदी लहर कही जा सकती हैं. लेकिन, कांग्रेस को मिली इस हार में राहुल गांधी के सहयोग को नकारा नहीं जा सकता है. गांधी परिवार की ओर से एकमात्र उम्मीद के तौर पर प्रोजेक्ट किए गए राहुल गांधी विधेयक फाड़ने से लेकर आस्तीन चढ़ाने के बाद भी देश की जनता से जुड़ नहीं पाए. हालांकि, राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर 2014 के बाद से ही सवाल उठने लगे थे. लेकिन, सोनिया गांधी के पुत्रमोह के आगे कांग्रेस के किसी नेता की हिम्मत नहीं थी कि दबे शब्दों में भी सवाल उठा दिया जाए. 2013 में राहुल गांधी को कांग्रेस उपाध्यक्ष बनाए जाने के समय केंद्र में यूपीए सरकार के साथ ही कई राज्यों में भी कांग्रेस सत्ता में थी. लेकिन, 2014 का लोकसभा चुनाव हारने के साथ ही कांग्रेस के 'बुरे दिन' शुरू हो गए. धीरे-धीरे राज्यों में सत्ता से बाहर होती जा रही कांग्रेस की हार के लिए राहुल गांधी ही जिम्मेदार माने गए. क्योंकि, बीमारी से जुझ रहीं सोनिया गांधी ने सक्रिय राजनीति से दूरी बना ली थी.
इतना सब होने के बावजूद भी कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर राहुल गांधी को ही बैठाया गया. और, 2019 के लिए कांग्रेस पार्टी की ओर से उन्हें ही पीएम पद की रेस का सबसे बड़ा दावेदार बता दिया गया. पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कांग्रेस किसी तरह अपनी इज्जत बचाने में कामयाब रही. लेकिन, पीएम नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात और मध्य प्रदेश, असम, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में राहुल गांधी के फैसलों ने ही कांग्रेस की राह में कांटे बिछा दिये. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के ऊपर गांधी परिवार के करीबी कमलनाथ और असम में हिमंता बिस्वा सरमा की जगह गौरव गोगोई जैसे नामों को आगे बढ़ाने के फैसले ने इन राज्यों में फिलहाल कुछ वर्षों के लिए कांग्रेस को खत्म कर दिया है. आंध्र प्रदेश में जगनमोहन रेड्डी ने भी वाईएसआरसीपी के सहारे कांग्रेस को राज्य की राजनीति से बाहर कर दिया है. पंजाब, राजस्थान और छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाए, तो साल दर साल कांग्रेस का दायरा सिमटता गया और इसके पीछे राहुल गांधी को कांग्रेस का नेतृत्व थमाने की जल्दबाजी ही सबसे बड़ा कारण रहा.
2019 के आम चुनाव में भी कांग्रेस के सत्ता से बाहर रहने के कारण राहुल गांधी के विरोध में पार्टी के भीतर से ही आवाजें उठने लगीं. जिसके बाद कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं के असंतुष्ट समूह जी-23 ने सीधे तौर पर पार्टी आलाकमान यानी गांधी परिवार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. इस साल की शुरुआत में हुए पश्चिम बंगाल के साथ असम, केरल, तमिलनाडु और पुडुचेरी में हुए विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी ने जी-जान लगा दी थी. लेकिन, इतनी मेहनत के बाद भी अपने पक्ष में किसी तरह का माहौल बनाने में कामयाब नहीं हो सके. अगले साल की पहली तिमाही में होने वाली उत्तर प्रदेश समेत पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव में सुर्खियों में प्रियंका गांधी ही बनी हुई हैं. वहीं, साझा विपक्ष की कोशिशों के बाद यूपीए के तमाम सहयोगी दल कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी के नाम पर एकमत होने का जोखिम नहीं लेना चाहते हैं. उल्टा, ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल जैसे नेताओं ने कांग्रेस को ही कमजोर करने का अभियान छेड़ दिया है. ये सारी बातें राहुल गांधी के राजनीतिक रेज्यूमे में जुड़ती जा रही हैं.
पीएम नरेंद्र मोदी या भाजपा के खिलाफ राहुल गांधी की विरोध करने की रणनीति फ्लॉप कही जा सकती है. क्योंकि, उनसे ज्यादा सुर्खियां ममता बनर्जी ही बटोर ले जाती हैं. वहीं, राज्यों के विधानसभा चुनावों में राहुल के पास किसी तरह का कोई विजन नजर नहीं आता है. ना ही वो अब तक अपनी लीडरशिप में कांग्रेस के लिए कुछ चमत्कारिक प्रदर्शन भी नहीं कर पाए हैं. राहुल गांधी के भाषणों में एक परिपक्व नेता के तौर पर नजर आने वाला आत्मविश्वास अभी भी नजर नहीं आता है. इतना ही नहीं, कांग्रेस के ऊपर किए जा रहे ममता बनर्जी के इन सियासी हमलों का जिस मजबूती के साथ जवाब देने की राहुल गांधी से उम्मीद की जाती है, वो उस मामले में भी पिछड़ते हुए ही दिखाई दे रहे हैं. उनके नेतृत्व में कांग्रेस आंतरिक चुनौतियों के साथ इन बाहरी चुनौतियों से कैसे निपटेगी, पूरा देश इसका इंतजार कर रहा है.
सोनिया गांधी की सबको साथ लेकर चलने की रणनीति फेल
इस साल अगस्त के महीने में कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी के नेतृत्व में 19 विपक्षी दलों के नेताओं की वर्चुअल बैठक हुई थी. सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों के नेताओं और विपक्ष शासित कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ बातचीत में अंतिम लक्ष्य 2024 के लोकसभा चुनाव को बताया था और राष्ट्रहित में विपक्षी दलों की एकजुटता की मांग की थी. सोनिया गांधी ने कहा था कि भाजपा और पीएम नरेंद्र मोदी की चुनौती से निपटने के लिए विपक्ष के सामने एकसाथ काम करने के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है. हमारी अपनी मजबूरियां है, लेकिन अब हमें इन विवशताओं से ऊपर उठना होगा और कांग्रेस की ओर से इसमें कोई कमी नहीं रहेगी. सोनिया गांधी ने यूपीए के सहयोगी दलों और भाजपा के खिलाफ साथ आने वालों दलों के सामने एक तरह से 'आत्मसमर्पण' करते हुए एकजुट होने की मांग की थी. बस इस आत्मसमर्पण में राहुल गांधी को नेतृत्व की बागडोर देने वाली शर्त सभी के सामने मौन रूप से पेश की गई थी.
पंजाब कांग्रेस में उपजे संकट का तात्कालिक हल निकलने के बाद इतना तो तय हो ही गया था कि कांग्रेस में अब राहुल गांधी और प्रियंका गांधी की जोड़ी ही सर्वेसर्वा हो चुकी है. कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी केवल रबर स्टैंप की तरह काम कर रही हैं. कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में खुद को अध्यक्ष बताकर सोनिया गांधी ने कांग्रेस के असंतुष्ट नेताओं को के साथ ही यूपीए के सहयोगी दलों को भी साधने की कोशिश की थी. लेकिन, उनकी ये कोशिश कामयाब होती नहीं दिख रही है. ममता बनर्जी के अलावा, सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव, आरजेडी नेता तेजस्वी यादव जैसे नेता भी अब कांग्रेस को आंखें दिखा रहे हैं. आसान शब्दों में कहा जाए, तो सोनिया गांधी की सबको साथ लेकर चलने वाली रणनीति के फेल होने की वजह से राज्यों में क्षत्रपों ने अब कांग्रेस को पूरी तरह से खत्म करने के प्लान पर काम करना शुरू कर दिया है. पश्चिम बंगाल में वामदलों के साथ गठबंधन कर विधानसभा चुनाव लड़ने वाली कांग्रेस ने तृणमूल कांग्रेस के खिलाफ आक्रामक चुनाव प्रचार नहीं किया था.
वैसे, गोवा में विधानसभा चुनाव लड़ने जा रही तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो ममता बनर्जी ने कांग्रेस पर भाजपा के खिलाफ लड़ने के बजाय बंगाल में उनके खिलाफ चुनाव लड़ने के दोषारोपण साथ ही चुनाव में सीटों के बंटवारे का ऑफर भी दे दिया है. एक तरह से जिन राज्यों में कांग्रेस एक स्थापित पार्टी कही जा सकती है, अब उन्ही राज्यों में विपक्षी दल कांग्रेस से सत्ता में हिस्सेदारी मांगने के लिए तैयार खड़े नजर आ रहे हैं. यहां राहुल गांधी की बिहार उपचुनाव में आरजेडी के खिलाफ दिखाई गई आक्रामकता कुछ फर्क डालती नजर आ रही है. लेकिन, देश के राजनीतिक परिदृश्य के हिसाब से ये प्रयास बहुत छोटा है.
प्रियंका गांधी ही क्यों नजर आती हैं 'आखिरी उम्मीद'?
राजनीतिक लिहाज से देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश से राहुल गांधी का जुड़ाव पिछले लोकसभा चुनाव में ही खत्म हो गया था. अमेठी से हारने के बाद राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश की ओर निगाह तब ही डाली, जब उन्हें बहन प्रियंका गांधी ने बुलाया. वरना, बीते कुछ समय में राहुल ने तो उत्तर प्रदेश के मतदाताओं की बौद्धिक क्षमता तक पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था. खैर, प्रियंका गांधी ने कांग्रेस महासचिव बनाए जाने के बाद से ही उत्तर प्रदेश की राजनीति को प्रभावित करने वाले सभी मुद्दों और मामलों पर पैनी नजर बनाए रखी. इतना ही नहीं, प्रियंका गांधी ने सोनभद्र, उन्नाव, हाथरस, लखीमपुर खीरी, आगरा, बुंदेलखंड में लोगों के बीच जाकर उत्तर प्रदेश में मृतप्राय कांग्रेस को संजीवनी देने की कोशिश की है. यूपी विधानसभा चुनाव 2022 के मद्देनजर प्रियंका ने सूबे में न केवल मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बल्कि पीएम नरेंद्र मोदी को भी घेरने में पूरी ताकत झोंक दी है. वहीं, प्रियंका गांधी की आरएलडी अध्यक्ष जयंत चौधरी के साथ एयरपोर्ट पर हुई मुलाकात के बात सपा प्रमुख अखिलेश यादव भी असहज नजर आ रहे हैं.
आसान शब्दों में कहा जाए, तो प्रियंका गांधी की वजह से यूपी चुनाव से पहले सूबे की राजनीति एक बड़ा बदलाव देखने की ओर कदम बढ़ा रही है. प्रियंका गांधी ने सपा के गठबंधन के लिए हाथ आगे बढ़ाया था. लेकिन, अखिलेश यादव ने इसे झिटक दिया था. जिसके बाद यूपी चुनाव में कांग्रेस ने सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है. सियासी गलियारों में चर्चा है कि यूपी विधानसभा चुनाव 2022 में कांग्रेस और प्रियंका गांधी के पास प्रदर्शन के लिए बहुत खास जगह नहीं है. लेकिन, प्रियंका गांधी की रणनीति पर चलते हुए कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल सपा को भी सत्ता से दूर कर स्पष्ट संदेश देना चाह रही है कि गठबंधन नहीं करने का खामियाजा केवल कांग्रेस ही नहीं सपा को भी भुगतना पड़ेगा. और, कांग्रेस अब क्षत्रपों की शर्तों के हिसाब से नहीं चल पाएगी. मिशन 2024 से पहले अगर प्रियंका गांधी किसी भी तरह से उत्तर प्रदेश में थोड़ा-बहुत भी प्रभावी प्रदर्शन करने में कामयाब हो जाती हैं, तो यह सीधे-सीधे आधी आबादी यानी महिलाओं को लेकर उनके विजन पर मुहर लगने जैसी स्थिति होगी.
अगर प्रियंका गांधी कांग्रेस पार्टी की ओर से यूपी चुनाव में उतरने का मन बना लेती हैं, तो निश्चित तौर पर जो कांग्रेस अभी पीछे नजर आ रही है, वो अखिलेश यादव की सपा के तकरीबन बराबर पर आकर खड़ी हो जाएगी. खैर, इन तमाम बातों से इतर एक सबसे बड़ी बात ये भी है कि राहुल गांधी के नाम पर बिदकने वाले यूपीए के सहयोगी और तमाम विपक्षी दलों के नेताओं के बीच ममता बनर्जी के नाम पर भी अभी कोई एकमत नहीं है. ममता बनर्जी की ओर से साझा विपक्ष का नेतृत्व करने के लिए खुद को आगे किया जा रहा है. लेकिन, अगर कांग्रेस की ओर से नेतृत्व के लिए प्रियंका गांधी का नाम सामने आता है, तो आधे से ज्यादा विपक्षी दल ममता के नाम पर उनको तरजीह देंगे. ममता बनर्जी की छवि एक जिद्दी और गुस्से से भरी नेता के तौर पर बनी हुई है. इससे उलट प्रियंका गांधी चुनावी रणनीति के मद्देनजर आक्रामकता के साथ ही शांत व्यवहार के साथ फैसले लेने में भी सक्षम नजर आती हैं. सर्वस्वीकार्यता से इतर प्रियंका गांधी के साथ सबसे बड़ा प्लस प्वाइंट ये है कि यूपीए के अधिकांश सियासी दल पहले से ही कांग्रेस के साथ कुछ राज्यों में गठबंधन सरकार चला रहे हैं. वहीं, ममता बनर्जी के नाम पर इन दलों का एकमत होना टेढ़ी खेर नजर आता है.
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